शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

क्या दुख का अंत हो सकता है ?

माना कि मैं किसी वस्तु या व्यक्ति से जुड़ गया हूँ । लेकिन क्या मैंने उस विषय । वस्तु । या व्यक्ति से जुड़ने से एकदम पूर्व के हालातों को देखा ? इस जुड़ने में क्या क्या शामिल था ? और यह जुड़ाव कैसे पैदा हुआ । क्यों हुआ ? क्या मैंने इस जुड़ने की घटना की सम्पूर्ण प्रकृति को देखा ?
क्या मैं किसी वस्तु या व्यक्ति से इसलिए जुड़ा । क्योंकि मैं अकेला था । मैं सुविधा चाहता था । मैं किसी पर निर्भर होना चाहता था । या क्योंकि मैं अपने आपके साथ ही नहीं रह पा रहा था ? मैं साहचर्य चाहता था । मैं चाहता था कि मुझसे कहे कि बहुत अच्छे । बरखुरदार ! तुमने बहुत अच्छा किया । मैं चाहता था कि कोई मेरा हाथ थाम कर चले । जब मैं विषाद या क्रोध में  होऊं । इसलिए मैं किसी पर निर्भर था । जिसके परिणाम स्वरूप यह जुड़ना या जुड़ाव हुआ । इस जुड़ाव से भय प्रकट हुआ । ईर्ष्या और फिर गुस्सा पैदा हुआ ।
वैसे ही जैसे आप कोई प्रेमिका पा लें । और फिर उससे अलगाव से भयभीत हों । उसके किसी से बात करने पर ईर्ष्या प्रकट करें । और उसका अन्य व्यक्ति से जुड़ाव होने पर आपको गुस्सा आये ।
तो क्या आप इस पूरी जुड़ाव की प्रक्रिया को । जब यह चल ही रही हो । हो ही रही हो । तुरंत देख सकते हैं ? आप इस पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल देख सकते हैं । यदि आप होश से भरे हों । और आपको मन की हरकतों के बारे में जानने समझने में रूचि हो ।
किसी भी व्यक्ति की अपने बारे में एक संकल्पना । खुद का ही छवि चिह्न । या छवि होती है कि उसे क्या होना चाहिए ? क्या है ? या यह कि उसे क्या नहीं होना चाहिए ।
आईये जाने । कोई भी व्यक्ति । अपने बारे में छवि क्यों बनाता है ? क्योंकि वो इसका अध्ययन कभी नहीं करता कि - वह वास्तव में वो क्या है ? यथार्थतः क्या है ? हम सोचते हैं कि हमें यह होना चाहिए । या वह होना चाहिए । आदर्श । नायकों । या कल्पना । या इतिहास के उदाहरण पुरूषों की तरह ।
हम जब भी जागरूक होते हैं । हमारी अपने ही बारे में कल्पना । आदर्श । हम पर हमला करते हैं । हमारा अपने ही बारे में जो खयाल है । वह हम जो तथ्य रूप । वास्तव में हैं । उससे पलायन बन जाता है । लेकिन जब आप स्वयं को तथ्य रूप में देखतें हैं । जो कि आप वास्तव में हैं । तब कोई भी आपको दुख नहीं पहुँचा सकता । तब यदि कोई व्यक्ति झूठा है । और उसे कोई झूठा कहता है । तो इसका मतलब यह नहीं कि झूठा कहने वाला उसे दुख पहुंचा रहा है । क्योंकि यह तो तथ्य ही है । लेकिन यदि आपका अपने बारे में यह खयाल है कि आप झूठे व्यक्ति नहीं हैं । और कोई कहता है कि आप झूठें हैं । तो आप गुस्सा हो जाते हैं । हिंसक हो जाते हैं ।
हम लोग हमेशा एक आदर्श लोक में जीते हैं । कल्पना लोक में जीते हैं । मिथकों में जीते हैं । उस जगत में नहीं । जो यथार्थतः है । जो वास्तव में है । उसे देखने के लिए । उसका जांच पूछ । परख । यथार्थ से परिचय के लिये । हमें पूर्वाग्रह । पूर्व में ही निर्णय । मूल्यांकन । उसके बारे में भय आदि बिल्कुल नहीं होना चाहिए ।
अब देखिये । जब आप सुनते हैं । यदि आप सुन रहें हैं । जब आप क्या कहा जा रहा है । यह सुनते हैं । और उसमें हाजिर रहते हैं । न कि ये कि आप जो कहा जा रहा है । उसे समझने की कोशिश करते हैं । हाजिर होने में मात्र जागरूकता होती है । आप नहीं । वह क्षण जब आप जागरूक नहीं होते । आप एक केन्द्र होते हैं । आपका अहं या केन्द्र होता है । यह केन्द्र ही समस्याएं पैदा करता है । आपने जाना ? नहीं ? महानुभाव यह बहुत ही गंभीर बात है । अगर आप इसमें गहरे जाएं । अगर एक ऐसा मन चाहिए । जो समस्या रहित हो । और इसलिए अनुभव रहित भी । तो यह बहुत ही गंभीर बात है । वह क्षण जब आप कुछ अनुभव करते हैं । और आप अनुभव को संचित करना ।

सहेजना चाहते हैं । तब यह अनुभव । एक स्मृति । या याद बन जाता है । और आप इसे और अधिक मात्रा में चाहते हैं । तो वह मन जिसको कोई समस्या नहीं होगी । कोई अनुभव भी नहीं होगा । ओह ! आप नहीं जानते कि - इसमें कितनी सुन्दरता है ?
क्या मैं आपसे आदर पूर्वक कह सकता हूँ कि - आप कृपया किसी के भी अनुयायी न बनें ? अनुसरण न करें । लेकिन आप इसमें सहायता नहीं करते ।
महोदय ! इसका कारण जाने । हम अकेले नही रह सकते । हम सपोर्ट सम्बल चाहते हैं । हम दूसरों की ताकत चाहते हैं । हम चाहते हैं कि - हमें एक समूह के रूप में पहचाना जाए । एक संस्थान के साथ । यह संस्थान ( अब कृष्णमूर्ति फाउंडेशन ) उस तरह का संस्थान नहीं है । यह केवल पुस्तकें आदि प्रकाशित करने के लिए है । आप इसका अनुसरण नहीं कर सकते । क्योंकि आप किताबें नहीं छाप रहे । आप स्कूलों को नहीं चला रहे । पर संकल्पना है कि हम किसी चीज का हिस्सा बनें । ठीक ? और किसी से सम्बद्ध होना । या अनुसरण ताकत देता है । ठीक ? अगर मैं भारत में हूँ । और कहता हूँ कि मैं हिन्दू नहीं हूँ । तो लोग मुझे जिस दृष्टि से देखेंगे । वह खतरनाक होगी ।
एक प्रश्नकर्ता ने कहा है कि - जब वह एक चिह्न विशेष पर केन्द्रित होते हैं । तो ताकत का अहसास करते हैं । हम सभी चिह्नों से जुड़े हैं । ईसाई जगत चिह्नों से भरा पड़ा है । ठीक ? सारा ईसाई जगत धार्मिक चिह्न । छवियों । संकल्पनाओं । विश्वास । आदर्शों । रिवाजों से आच्छादित है । इसी तरह का माहौल भारत में भी है । बस नामकरण अलग है । जब कोई किसी विशाल समूह से सम्बद्ध रहता है । जो समूह एक ही चिह्न में श्रद्धा रखता है । वह एक अनन्य शक्ति प्राप्ति का अहसास करता है । यह प्राकृतिक है । या बहुत ही आप्राकृतिक ? यह आप में जोश बनाये रखता है । यह आप में यह अहसास बनाये रखता है कि आप कम से कम उसे चिह्न से कुछ ज्यादा ही जानते समझते हैं ।
पहले तो आप एक चिह्न की खोज करते हैं । आप देखिये कि - आपका मन कैसे काम करता है ? पहले तो हम एक चिह्न खोजते है । चर्च या मन्दिर में एक छवि । या यदि आप मस्जिद में हैं । तो कोई अक्षर हम सब खोजते गढ़ते हैं । और फिर उनकी पूजा शुरू कर देते हैं । हम उस सबकी पूजा करते हैं । जो हमने ही गढ़ा रचा या । बनाया खोजा है । यह मानकर कि वो हमारे अपने विचार से परे है । जो हमें ताकत देता है । शक्ति देता है ।
तो क्या होता है ? अब जबकि चिह्न । या संकेत । या छवि । जो कि वास्तविक नहीं है । पर चिह्न । या छवि । हमें संतुष्टि देते हैं । चिह्नों को देखने । सोचने । उनके साथ रहने से हमें जोश । जीवनी शक्ति मिलती है । निश्चित ही जो विचार से सृजित हैं । मनोवैज्ञानिक रूप से वह संभृम और कल्पनाएं ही होंगे । क्या नहीं ?
आप मुझे गढ़ सकते हैं । मैं आशा करता हूँ कि - आप ऐसा न करें । पर आप मुझे अपने गुरू के रूप में गढ़ लेते हैं । मैंने गुरू बनना सदा अस्वीकार किया है । यह एक बहुत ही बेहूदा चीज है । क्योंकि मैंने देखा है कि किस तरह अनुयायी या शिष्य गुरू को और गुरू शिष्यों अनुयायियों को बर्बाद करते हैं । आप यह सब समझ रहें हैं न । मैंने यह देखा है । मेरे लिये यह सारी बात एक वीभत्सता है । क्षमा करें । मैं रूक्ष भाषा का प्रयोग कर रहा हूँ । पर जैसे आप मेरी एक गुरू की छवि बनाते हैं । वक्ता की छवि बनाते हैं । तो सारा गुरू घंटालों का धंधा अभी यहीं शुरू हो जाता है ।
तो सर्वप्रथम यदि मैं कुछ इंगित करना चाहता हूँ । तो ये कि इन सब बातों में दिगभृमित करने वाले चर्च और मन्दिर हैं । मस्जिदें हैं । गुरुद्वारा हैं । जो कि सच नहीं हैं । वास्तविक नहीं हैं । यह सब मन्दिर । मस्जिद । चर्च । गुरुद्वारा । पुजारियों के द्वारा । विचारों के द्वारा । हमारे डर के द्वारा । हमारी चिंता । भविष्य के प्रति अनिश्चितता से

गढ़े गये हैं । आप समझें । हम एक संकेत या छवि बनाते हैं । और उसी में फंस जाते हैं । जकड़ जाते हैं । तो सर्वप्रथम हमें यह वास्तविकता जाननी होगी कि - विचार वो चीज पैदा करता है । जो हमं मनोवैज्ञानिक रूप से संतुष्टि प्रदान करती है । खुशी देती है । ठीक ? वो हमें सुविधा देती है । ये संकेत । या छवियां । हमें अत्यंतिक सुविधा देती है । यह कुल मिलाकर संभृम है । पर यह मुझे सुविधा देता है । इसलिए मैं इससे परे कुछ देखता ही नहीं ।
हम दुख को एक द्विअर्थी शब्द की तरह देखें । एक विरोधाभासी शब्द की तरह । आप उसे नकार दें । प्रश्न करें । संदेह करें । कुछ भी करें । पर इसका सत्य खोजें । हमें इसका यथार्थ उत्तर खोजना है । सब लोगों द्वारा मिल जुल कर । इसलिए नहीं कि - कोई ऐसा कह रहा है । क्या दुख का अंत हो सकता है ? हमारा अस्तित्व ही शोकमय हो गया है । कई तरह से हम दुखी होते हैं । किसी अपमान में । किसी की हेय दृष्टि से । किसी की अकड़ से । अहंकार पूर्ण मुद्रा से । बचपन में मिले घावों से । हमारे चेतन में गहरे पैठे किसी दुख से । या अचेतन में किसी के दुख से । या किसी को खो देने के दुख से । तो यदि आप गहराई से जाँचें । एक तथ्य की तरह लेकर । तो यह है कि हम किसी न किसी तरह  कभी अभिभावकों से । कभी शिक्षकों से । कभी स्कूल के अन्य छात्रों से । हमेशा ही दुखी होते रहे हैं । ये जख्म गहरे हैं । ढंके हुए हैं । और हम इनके चारों तरफ एक दीवार खड़ी कर देते हैं कि - कोई हमें दुख न पहुँचा सके । और यही दीवार भय पैदा करती है ।
आप में से कोई यह पूछ सकता है कि - क्या हम यह चोटें या जख्म पूरी तरह अपने अस्तित्व से पोंछ सकते हैं ? बिना खरोंचों के निशान छोड़े ? आइये ये सब हम मिलकर देखें करें । मैं यह आश्वस्त होकर कह सकता हूँ कि आप हम सभी जरूर कभी न कभी चोट खा चुके हैं । सब अलग अलग तरह से । अलग अलग प्रकार से । यह दुख जमी बर्फ की तरह जमा हुआ है । इसे हम जीवन भर ढोते रहते हैं । इसका प्रभाव यह होता है कि हम अधिकाधिक अकेले होने लगते हैं । दुख के प्रति ही सचेत रहने लगते हैं । दुख को गंभीरता से लेने लगते हैं । हम नहीं चाहते कि हमें और दुख मिले । तो हम अपनी चारों और एक दीवार खड़ी करते हैं । जैसे जैसे यह दीवार ऊंची होती जाती है । हमारा अकेलापन बढ़ता जाता है । आप सभी यह सब जानते हैं । तो कोई भी यह कह सकता है कि - क्या ऐसा हो सकता है कि हम चोट न खाएँ ? भविष्य की चोटों से । दुख से ही नहीं । आज के दुखों से बच सकें । और इसी तरह अतीत के दुखों से । जो किसी को बचपन में मिले । उन्हें भी अपने व्यक्तित्व से पोंछ सकें । वो दुख । जिन्हें हम जिन्दगी भर ढोते आए हैं ।
अगर कोई वाकई गंभीर है । तो उसे स्वयं इसका कारण खोजना होगा । जानना होगा कि हम दुखी क्यों होते हैं ? इसका कारण क्या है ? यह दुख क्या है ? कौन दुखी हो रहा है । और किससे ?
कृपया इसे समझें । जानें । क्या यह संभव है कि - कोई अपमान करे । और हम उसे अपने व्यक्तित्व पर अस्तित्व पर अंकित ही न करें । कोई दुत्कारे । धौंस दिखाए । उसे हम लिख कर ही न रख लें । कोई क्रोध दिखाए । गाली बके । अधैर्य दिखाये । तो इन सबको हम पंजीकृत ही न करें । हमें इसकी गहराई तक जाना होगा । तो क्या आप इसके लिए तैयार हैं ?
हमारा मस्तिष्क एक यंत्र है । गतिविधियों को अंकित करने वाला । एक कम्प्यूटर की तरह । जिसमें डाटा रिकार्ड या अंकित कर जमा रखा जाता है । हमारा मस्तिष्क सारी गतिविधियों को अंकित कर लेता है । क्योंकि इससे

उसे सुरक्षितता मिलती है । एक तरह की आत्म सुरक्षा । ठीक ? क्या आप सब यह चीजें समझ रहे हैं ? तब जब कोई कहता है - तुम मूर्ख हो । या अन्य कोई अपमान करता है । तो हमारे मस्तिष्क की त्वरित प्रतिक्रिया होती है । और वह इन सब बातों को अंकित करता जाता है । मौखिक रूप से इसका प्रभाव पड़ता है कि - यदि आप दुख ही लेना चाहते हैं । तो यह शब्द मस्तिष्क में अंकित हो जाएंगे । ठीक उसी तरह । जैसे कोई तारीफ करे । और आपका मस्तिष्क उसे एक आनन्ददाय याद की तरह अंकित कर ले । ठीक ? तो क्या यह अंकित करने की प्रक्रिया किसी अंत पर आ सकती है ?
मस्तिष्क का तो काम ही है । सभी तरह की बातों को रजिस्टर में अंकित करे चले जाना । एक तरह से यह जरूरी भी है । नहीं तो आप कैसे जानेंगे कि - आपका घर कौन सा है । आप कार कैसे ड्राइव कर पाएंगे । या कोई भाषा कैसे बोल पांऐगे । लेकिन मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएं । अहसास अंकित न हों । क्या ऐसा हो सकता है ? आप यह सब समझ रहे हैं न ?
अब कोई पूछ सकता है कैसे ? कैसे मैं एक अपमान । या एक तारीफ । एक प्रशंसा को अंकित होने से रोक सकता हूं ? प्रशंसा का अहसास तो बहुत ही सुखदायक होता है । और मैं उसे एक याद की तरह संजोना भी चाहता हूँ । पर दुख और अपमान इन सबको तो मैं खत्म कर देना चाहता हूँ । बचना चाहता हूँ ।
लेकिन दोनों घटक । अपमान हो । या प्रशंसा । दोनों ही अंकित किये जाते हैं । तो क्या यह संभव है कि मनोवैज्ञानिक रूप से अंकित न किए जाएं ? ठीक । अब हम इसे मिल जुल कर एक होकर समझें । आगे बढ़ें । वह क्या है ? जो चोटिल होता है । दुखी होता है । आप कह सकते हैं - मैं चोट खाता हूँ । दुखी होता हूँ । तो प्रश्न उठता है । यह कौन सी चीज । यह कौन सा अस्तित्व है । या पहचान है । जो दुख अनुभव करती है ? क्या यह कोई वास्तविक या यथार्थ चीज है ? इसका मतलब क्या है ? क्या यह कुछ ठोस चीज है ? संवेदनशील चीज है । कुछ ऐसी चीज है । जिसके बारे में हम आप बात कर सकें । या जिसे जान सकें ?
या यह कोई ऐसी चीज है । जिसे आपने खुद ही अपने लिये गढ़ लिया है । आप समझ रहे हैं न ?
ठीक है । मैंने अपने खुद के बारे में एक छवि गढ़ी है । हममें में बहुत से लोग ऐसा ही करते हैं । यह छवि बचपन से ही गढ़ना शुरू हो जाती है । जैसे कि लोग कहते हैं । आपको अपने भाई जैसा होना चाहिए । जो कि बहुत ही चतुर और चालाक है । आपको उससे बेहतर और अच्छा होना चाहिए । यह छवि नियमित रूप से बढ़ती है । हमारी शिक्षा में । हमारे संबंधों में । और इसी तरह हमारे सभी तरह के व्यवहार में । यह छवि ही मैं बन जाती है । यह छवि है । जो मैं को धारण किये हुए है । दुखी होती । या चोट खाती है । ठीक ।
तो जब तक कि हमारी कोई छवि है । तब तक हमेशा । ये सभी लोगों द्वारा कुचली जाती है । रौंदी जाती है । इस छवि का हमसे बेहतर बुद्धिमान लोग ही नहीं । साधारण आम लोगों द्वारा भी उसका यही हश्र होता है । तो क्या यह संभव है कि हम अपनी ही एक छदम छवि का सृजन न करें ? अपने ही छवि निर्माण से बचें ? आईये हम सब इस विषय में गहरे चलें । आईये साथ चलें । और समझें कि यह छवि गढ़ने वाली यांत्रिकता मशीनरी क्या है ? समझें कि ये कैसे होती है ?
यह मेरे देश की छवि । नेताओं की छवि । पूजारियों की छवि । भगवान की छवि । आप समझ रहें हैं न । यह सब छवियों के निर्माण का ही नतीजा हैं । यह छवियां कौन बनाता है ? यह छवियाँ क्यों बनाई जाती हैं ? आईये समझें कि - ये छवियां किसके द्वारा और क्यों बनती हैं ?
हम यह आसानी से देख समझ सकते हैं कि यह छवियां सुरक्षा । आत्म सुरक्षितता के कारणों से गढ़ी जाती हैं । क्योंकि यदि मैं एक ऐसे देश में जहाँ कि कम्युनिस्ट नहीं हैं । वहाँ खुद को कम्युनिस्ट कहलवाऊं । मुझे ज्यादा तकलीफों का सामना करना पड़ेगा । या एक ऐसे देश में जो कम्युनिस्टों का है । मैं अपने आपको कम्युनिस्टों से अलग कर लूँ । तो भी मुझे दैनिक जीवन में कठिनाईयां आएंगी ।
लेकिन यदि मैं अपने आपको किसी छवि से जोड़ लेता हूँ । या एक छवि के साथ जुड़ा पहचाना जाता हूँ । तो इससे मुझे एक अत्यंत सुरक्षित अहसास का बोध होता है । इसलिए बस इसलिए । इन्हीं कारणों से हम सब किसी न किसी रूप में छवियाँ गढ़ते या उनसे सम्बद्ध रहते हैं । किसी राजनीतिक दल से जुड़ना । या धार्मिक संगठन । या संप्रदाय से । किसी विचार धारा से जुड़ना । या किसी समूह विशेष से । इससे छवि निर्माण या सम्बद्धता सतत जारी रहते हैं ।
आप जानते हैं कि - यह छवियां कौन गढ़ता है ? इसकी मशीनरी क्या है ? इसकी प्रक्रिया क्या है ? आइये हम सब मिलजुल कर सोचे विचारें । बिना किसी अन्य की प्रतीक्षा किये ? स्वयं ही समझे बूझें ।
तो यहाँ पर कृपया ध्यान से पढ़ें सुनें । क्या यह मशीनरी यह सारी प्रक्रिया एक सम्पूर्ण जागरूकता या अवधान पूर्णता से खत्म हो सकती है ? यह सारी प्रक्रिया । या मशीनरी । तब ही सक्रिय होती है । या काम करती है । जब हम बेहोश से जीते हैं ?
यदि मैं सम्पूर्ण रूप से जागरूक होता हूँ । और आप मुझे बेवकूफ कहते हैं । आप मुझे मूर्ख कहते हैं । तो यह मौखिक पत्थर मुझ पर चोट का प्रभाव करता है । और एक प्रतिक्रिया पैदा होती है कि - तुम भी बेवकूफ या मूर्ख हो । मैं यह शब्द ग्रहण करता हूँ । इन शब्दों का अर्थ लेता हूँ । वह अपमान । जो आप मुझे इन शब्दों के द्वारा देना । या अहसास कराना चाहते है । यदि मैं तत्काल उसी समय इस सारी प्रक्रिया के प्रति जागरूक रहता हूँ । जब आप इन शब्दों का प्रयोग करते हैं ? अगर मैं उस समय सम्पूर्ण रूप से जागरूक रहता हूँ । और आप इन अपमान पैदा करने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं । तो यह जागरूकता एक ढाल की तरह नहीं । या उस यांत्रिक चीज की तरह नहीं । जो आप दुख से बचने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं ? इस जागरूकता में । सावधानता में । कोई स्वीकार करने वाला । ग्रहण करने वाला नहीं होता । लेकिन जब आप मुझे मूर्ख या बेवकूफ कहें । तो यदि मैं जागरूक नहीं रहता । तो मस्तिष्क इसे अपमान की तरह अंकित कर लेगा । आप इसे एक प्रयोग की तरह करके आजमा सकते हैं ।
इस तरह केवल अतीत के घाव ही नहीं । अतीत की चोटें ही नहीं । बल्कि इससे आपका मन मस्तिष्क और संवेदनशील होंगे । ग्रहणशील और खुले होंगे । संचलन में ज्यादा सक्षम होंगे । ज्यादा जीवंत होंगे । ज्यादा सक्रिय होंगे ।
उस दीवार की ऊंचाई कितनी होगी ? जो आपने अपने ईर्द गिर्द खड़ी कर रखी है ? क्या यह संभव है कि वह हटे । खुले । आप संवेदनशील हों । ज्यादा जिंदा हों । और तथ्यात्मक रूप से समझें कि - इस दीवार की । इसे बनाने की कतई आवश्यकता नहीं है । संपत्ति की सुरक्षा के लिए दीवारें खड़ी की जाती हैं । ध्यान से सुनें । धन संपत्ति के इर्द गिर्द दीवारें खड़ी की जातीं हैं । और आपने खुद से ही एक सम्पत्ति की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है ।
आप समझ रहें है कि यहाँ क्या कहा जा रहा है ? तो फिर से समझें । हम सब इस सब तरह की बातें क्यों करते हैं ? पहले हम अपने इर्द गिर्द दीवारें उठाते हैं । और फिर उन दीवारों को गिराने की कोशिशें करते हैं । और खुद को इन दीवारों को गिराने में असमर्थ पाते हैं । हम इससे बचते हैं । हम इससे दूर भागने की कोशिश करते हैं । या इसी दीवार के पीछे छिप जाते हैं । हम सब इस तरह की बातें क्यों करते हैं ? हम अपने ही लिये समस्याएं क्यों गढ़ते हैं ? हम क्यों निरे सहज । स्वस्थ । और सरल नहीं रह सकते ?
अब यह प्रश्न किया जा सकता है । एक समस्या क्या है ? कोई समस्या क्या है ? आपको क्या समस्या है ? किसी की भी क्या समस्या है ? वह जो कि कोई सुलझाने में समर्थ नहीं हो रहा हों । ठीक । आप उसको आकलन करते हैं । या एक मनोवैज्ञानिक के पास जाते हैं । या चर्च में जाकर स्वीकार कनफ़ेशन करते हैं । या स्वयं ही उसका आकलन संरचनात्मक अध्ययन करते हैं । और फिर भी समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है । उसके कारण बने रहते हैं । और आप प्रभावों की जाँच करते रहते हैं । प्रभावों का पर्यवेक्षण करते हैं । ठीक ? और कारण की विचित्रता देखिये । कारण ही प्रभाव हो जाता है । आप समझ रहे हैं ? और प्रभाव ही कारण बन जाता है । क्या यह सब अति बौद्धिक है ?
तो हम सबके लिए समस्या क्या है ? हमारी समस्या क्या है ? और हमें समस्याए क्यों हैं ? चलिये एक सामान्य सी समस्या लेते हैं - क्या ईश्वर है ? मैं इसे एक तुच्छ उदाहरण के रूप में ले रहा हूँ । क्योंकि हम कहते हैं - यदि ईश्वर है । तो उसने इस विशाल दैत्याकार विश्व का निर्माण कैसे किया ? ठीक । तो यह सब अधिक से अधिक । और अधिक समस्याएं उत्पन्न करता है । सर्वप्रथम तो हम मान लेते हैं कि - यह ईश्वर ने बनाया है । यह संसार । और उसके बाद हम उसमें शामिल हो जाते हैं । या मैं एक विशेष संकल्पना रखता हूँ । और उस संकल्पना या आदर्श के अनुसार जीना चाहता हूँ । इसलिए यह एक समस्या बन जाती है । मुझे बिलकुल नहीं दिखता । या बिल्कुल समझ नहीं आता कि - हम सबको क्यों एक आदर्श के अनुसार होना चाहिए ? सर्वप्रथम तो हम एक आदर्श बनाते हैं । फिर उस आदर्श के अनुसार जीने की कोशिश करते हैं । जो समस्याएं पैदा होने की जड़ बन जाता है । मैं अच्छा नहीं हूँ । मुझे अच्छा होना चाहिए । तो बताइये कि - मुझे क्या करना होगा ? यह सब प्राप्त करने के लिए आदि आदि । तो देखिये । हम कैसे समस्या बनाते हैं । सर्वप्रथम कुछ काल्पनिक छाया सा गढ़ते हैं । जैसे अहिंसा । एक काल्पनिक अप्रकट चीज है । तथ्य हिंसा है । हिंसा तथ्य है । और तब मेरी समस्या पैदा हो जाती है । कि कैसे मुझे अहिंसक बनना है ? आप समझ रहे हैं न । अगर मैं हिंसक हूँ । तो मुझे उससे निपटने देना चाहिए न कि अहिंसक बनने से ।
तो एक स्तर पर यह सब है । जो हम कर रहे हैं ? या यह कि मैं अपनी पत्नी के साथ नहीं निभा पा रहा । मैं इस सबके बारे में नर्वस रहता हूँ । मैं किसी या अन्य के साथ नहीं चल पाता । इन सबमें आप देखिये कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ ? हम सब कुछ में और सब जगह समस्याएं पैदा कर लेते । या गढ़ लेते हैं । तो प्रश्न है । समस्या न होने से ज्यादा महत्वपूर्ण । समस्या को सुलझाना हो गया है ? अगर कोई समस्या नहीं होगी । तो आपका मन मस्तिष्क । यह । वह । या अन्य । समस्याओं को सुलझाने के अनन्त संघर्षों से बच जाएंगे । सभी समस्याओं की जड़ । यह मूल समस्या क्या है ? तकनीकी । गणितीय समस्याओं की नहीं । मनुष्य की मानवीय । आंतरिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं में । इनकी जड़ क्या है ? महानुभावो कृपया आईये । और खोजिये । क्या इसका मूल कुछ ऐसा है कि - उखाड़ फेंका जा सके । या उसे सुखा कर नष्ट किया जा सके । जिससे दिल दिमाग में कोई समस्या न रहे ?
समस्या क्या है ? कुछ जो वर्तमान में सम्मिश्रित है । या भविष्य में है । ठीक ? एक समस्या केवल समय में रहती है । समय में निहित होती है ।
एक समस्या तब तक ही रहती है । जबकि हम समय की भाषा में सोचते हैं । न केवल भौतिक या वैज्ञानिक समय में । बल्कि मनोवैज्ञानिक । मानसिक समय में भी । जब तक हम मनौवैज्ञानिकता में समय की प्रकृति नहीं समझते । हम हमेशा समस्याओं में रहेंगे । हम सब एक साथ इन समस्याओं के पैदा होने । इनके अस्तित्व के बारे में । एक साथ बैठकर बात कर रहे हैं । खोजबीन कर रहे हैं ।
होता यह है कि हम दुनियादारी में सफल होना चाहते हैं । साथ ही साथ आध्यात्मिक मामलात में भी सफल होना चाहते हैं ।
ये दोनों बातें समान हैं । यह सफल होने की आकांक्षा समय में होने वाली गतिविधि है । तो हम कह रहे हैं । वह क्या जड़ या मूल है । जो समस्याएं पैदा करता है । निरंतर समस्याएं । समस्याएं । समस्याएं ।
क्या यह विचार है ? या यहाँ एक केन्द्र है । जो अपनी परिधि में ही गति करता है ? क्या समस्याएं तब तक ही नहीं रहती । जब मैं खुद के । स्वयं के बारे में ही चिंतित होता हँ ? जब तक मैं भला होने की कोशिश करता हूँ । यह और वह । और जाने क्या क्या चाहता हूँ ? मैं ही समस्याएं पैदा करूंगा । जिसका मतलब है । क्या मैं अपनी एक भी छवि बनाये बिना जिन्दगी जी सकता हूँ ?
जब तक मैं अपने सफल होने की छवि । या मुझे बुद्धत्व प्राप्त करना ही है । इसकी छवि । या मुझे ईश्वर का साक्षात्कार करना है । इसकी छवि । या मुझे भला बनना है । मुझे और प्रेमी की तरह का व्यक्ति बनना है । मुझे महत्वाकांक्षी नहीं बनना है । मुझे किसी को दुख नहीं पहुंचाना है । मुझे शांति पूर्वक जीना है । मुझे एक मौन मन होना है । मुझे अनिवार्य रूप से जानना है कि - ध्यान क्या है आदि आदि । अपनी ही छवियां बनाते हैं । क्या यह संभव है कि - हम मुक्त होकर जीते रह सकें ? जब तक किसी भी प्रकार का केन्द्र है । तब तक समस्याएं रहेंगी ही । अब यह समझें । क्या केन्द्र का होना । अजागरूक या बेहोश होने का नतीजा या निचोड़ है ? अगर जागरूकता होगी । तो निश्चित ही कोई केन्द्र नहीं होगा । जे. कृष्णामूर्ति ।
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