गुरुवार, दिसंबर 30, 2010

परमात्मा की खोज

1 युवा सन्यासी परमात्मा की खोज में था । वह किसी सच्चे ग्यानी की तलाश में था । जो उसे जीवन का सत्य बता सके । आखिर उसे 1 वृद्ध सन्यासी मिला । वह वृद्ध सन्यासी के साथ हो गया । सन्यासी ने कहा । मेरी 1 शर्त है । मैं कुछ भी करूं । तुम धैर्य रखोगे । और प्रश्न नहीं करोगे । में कुछ भी करूं । तुम पूछ न सकोगे । अगर इतना धैर्य और संयम रख सको । तो मेरे साथ चल सकते हो ।
युवक ने शर्त स्वीकार कर ली । और वे दोनों यात्रा पर निकले । पहली रात वे 1 नदी के किनारे सोये । और सुबह ही boat में बैठकर उन्होने नदी पार की । मल्लाह ने सन्यासी को मुफ्त नदी के पार पहुंचा दिया । नदी के पार पहुंचते पहुंचते युवा संन्यासी ने देखा । कि बूढा संन्यासी चोरी छिपे boat में छेद कर रहा है । मल्लाह तो river के उस तरफ ले जा रहा है । और बूढा सन्यासी नाव में छेद कर रहा है । वह बहुत हैरान हुआ । यह उपकार का बदला ? मुफ्त में उन्हें नदी पार करवाई जा रही है । उस गरीब मल्लाह की नाव में किया जा रहा है यह छेद ?
भूल गया शर्त को । कल रात ही शर्त तय की थी । boat से उतरकर वे 2 कदम भी आगे नहीं बढें होगें । कि यूवा संन्यासी ने पूछा । सुनिये । यह आश्चर्य की बात है । कि 1 संन्यासी होकर जिस मल्लाह ने प्रेम से नदी पार करवाई है । मुफ्त सेवा की है । सुबह सुबह उसकी नाव में छेद करने की बात मेरी समझ में नहीं आती । कि उसकी नाव में आप छेद करें ? यह कौन सा बदला हुआ । नेकी के लिये बदी से । भलाई का बुराई से ?
बूढे संन्यासी ने कहा । शर्त तोड दी तुमने । हमने तय किया था । कि तुम पूछोगे नहीं । अब तुम विदा हो जाओ । अगर विदा होते हो । तो मैं कारण बताऐ देता हूं । और अगर साथ चलना चाहो । तो ध्यान रहे दुबारा पूछा । तो फिर साथ टूट जायेगा ।
युवा सन्यासी को ख्याल आया । उसने क्षमा मांगी । उसे हैरानी हुई । कि वह इतना भी संयम न रख सका । इतना भी धैर्य न रख सका । लेकिन दूसरे दिन फिर संयम टूटने की बात आ गई । वे 1 जंगल से गुजर रहे थे । जंगल में राजा शिकार खेलने आया । उसने सन्यासियों को देखकर बहुत आदर किया । उन्हें अपने घोडो पर सवार किया । और वे सब राजधानी की तरफ वापस लौटने लगे । वृद्ध सन्यासी के पास राजा ने अपने 1 मात्र पुत्र युवा राजकुमार को घोडे़ पर बिठा दिया । घोडे दौड़ने लगे । राजधानी की तरफ । राजा के घोडे आगे निकल गये । दोनो सन्यासियों के घोडे़ पीछे रह गये । बूढे सन्यासी के साथ राजा का बच्चा भी बैठा हुआ है । वह 1 मात्र बेटा है उसका । जब वे दोनों अकेले रह गये । उस बूढे सन्यासी ने उस युवा राजकुमार की नीचे उतारा । और उसके हाथ को मरोडकर तोड दिया । उसे झाडी में धक्का देकर अपने सन्यासी साथी से कहा । भागो जल्दी ।
यह तो बरदाश्त के बाहर था । फिर भूल गया शर्त । उसने कहा हैरानी की बात है यह ।
जिस राजा ने हमारा स्वागत किया । घोडों पर सवारी दी । महलों में ठहरने का निमन्त्रण दिया । जिसपे इतना विश्वास किया । जिसने अपने बेटे के घोडे पर तुम्हें बिठाया । उसके 1 मात्र बेटे का हाथ मरोडकर तुम जंगल में छोड आये हो । यह क्या है ? यह मेरी समझ के बाहर है । मैं इसका उत्तर चाहता हॅ ।
बूढा बोला । तुमने फिर शर्त तोड दी । मैंने कहा था । कि दूसरी बार तुम शर्त तोडोगे । तो विदा हो जायेंगे । अब हम विदा हो जाते है । और दोनो का उत्त्तर मैं तूम्हे दिये देता हॅ । जाओ पता लगाओ । तुम्हें ज्ञात होगा । कि वह नाव वह मल्लाह इसी किनारे पर रात छोड गया । और रात 1 village पर डाका डालने वाले लोग उसी boat पर सवार होकर डाका डालेंगे । मैं उसमें छेद कर आया हूं । 1 गांव में डाका बच जाएगा ।
राजा के लड़के को मैने हाथ मरोड़कर छोड़ दिया है जंगल में । यह राजा अत्यन्त दुष्ट और आततायी हैं । इसका लड़का उससे भी कू्र और आततायी होने को हैं । उस राज्य का 1 नियम है । कि गद्दी पर वही बैठ सकता है । जिसके सब अंग ठीक हो । मैंने उसका हाथ मरोड़ दिया है । वह अपंग हो गया । अब वह गद्दी पर बैठने का अधिकारी नहीं रहा । सैकड़ों वर्षो से इस देश की प्रजा पीड़ित हैं । वह पीड़ित परम्परा से मुक्त हो सकेगी । अब तुम विदा हो जाओ । मैं क्षमा चाहता हूं ।
तुम्हें जो प्रगट है । वही दिखाई पड़ता हैं । जो अदृश्य है । वह दिखाई नहीं पड़ता । और जो आदमी प्रगट पर ही ठहर जाता है । वह कभी सत्य की खोज नहीं कर सकता हैं । मैं तुमसे क्षमा चाहता हूं । हमारे रास्ते अलग हैं ।

गुरुवार, सितंबर 23, 2010

एक भी बूंद तेल छलकना नहीं चाहिये ।


एक बार नारद जी को ऐसा भृम हो गया कि विष्णु की भक्ति करने वालों में उनका नाम सबसे ऊपर है । लेकिन इस विचार की पुष्टि कौन करता ? इस बात का सटीक उत्तर कौन देता ? जाहिर है । स्वयं विष्णु ही इस बारे में सही बता सकते थे । सो अपने मन मैं उठी इस जिग्यासा को शांत करने के लिये नारद क्षीरसागर में विष्णु के पास पहुंच गये । और बोले । प्रभु आपके भक्तों में आपकी सबसे ज्यादा भक्ति कौन करता है ? नारद को आशा थी कि विष्णु उनका ही नाम लेंगे । पर विष्णु नारद का अहं समझ गये । और बोले । नारद जी । मेरी सबसे ज्यादा भक्ति प्रथ्वी वासी स्त्री पुरुष करते हैं । नारद को बडा आश्चर्य हुआ । और बोले । प्रभु । इंसान तो भक्ति से बेहद दूर है । वह अपने घर संसार में ही लगा रहता है । और आप कहते है कि वो सबसे ज्यादा भक्ति करता है । विष्णु ने तुरन्त ही इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया । पर उन्हें नारद की जिग्यासा शान्त तो करनी ही थी । कुछ देर बाद विष्णु को जैसे कुछ याद आया । वह नारद के साथ एक मन्दिर के निकट पहुंच गये । और अचानक कुछ सोचते हुये से बोले । नारद जी । मेरा एक कार्य कर सकोगे । नारद ने कहा । आग्या करें प्रभु । तब विष्णु ने तेल से लबालब भरे कटोरे को उन्हें देते हुये कहा । ये कटोरा लेकर इस मन्दिर के सात चक्कर लगा लो । मगर ध्यान रहें । चक्कर लगाते समय कटोरे से एक भी बूंद तेल छलकना नहीं चाहिये । नारद ने सोचा कि ये कौन सी बडी बात है ? मगर जब चक्कर लगाना शुरू किया । तो पता चला कि ये तो बहुत बडी बात है । अगर कटोरा जरा सा भी इधर उधर हुआ । तो बूंद गिरना निश्चित थी । लिहाजा नारद एक एक पैर संभालकर रखते हुये उस मन्दिर का चक्कर लगभग दो घन्टे में लगा पाये । फ़िर इस कार्य को सफ़लतापूर्वक सम्पन्न करके नारद विष्णु के पास आकर बोले । हो गया प्रभु । विष्णु बोले । वैसे आप हर समय । नारायण हरि । नारायण हरि । बोलते रहते हो । मगर मन्दिर के चक्कर लगाते समय । आपने कितने बार मेरा नाम लिया । नारद सकुचाकर बोले । प्रभु एक भी बार नहीं । तब दरअसल मेरा पूरा ध्यान इस बात पर अटका हुआ था कि तेल की एक भी बूंद फ़ैल न जाय । इस पर विष्णु हंसकर बोले । जरा सोचिये नारद जी । मनुष्य कितने चक्करों में फ़ंसा हुआ है । फ़िर भी मेरा नाम ले लेता है । और आप कुछ देर के लिये सात चक्करों में ही फ़ंसकर मेरा नाम तक भूल गये । इससे सिद्ध होता है । कि इंसान आपसे अधिक पूजा करते हैं । इस बात पर नारद को कुछ कहते न बना । और वे लज्जित हो गये ।

सोमवार, अगस्त 23, 2010

महाराज जी और मैं । 1


आज से लगभग सात साल पहले की बात है । जब मैं द्वैत मार्ग ( तन्त्र मन्त्र पूजा आराधना उपासना । द्वैतमें खास बात ये होती है कि इसमें साधक और भगवान दो होते हैं । और ये सृष्टि या प्रकृति को पूरा महत्व देते हैं । पर अद्वैत आत्म दर्शन में ऐसा नहीं होता । इसमें सही ग्यान हो जाने पर प्रकृति या सृष्टि नहीं होती । केवल परमात्मा या पुरुष या चेतन या सार शब्द या निःअक्षर ग्यान होता है । स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति । इसमें अहम भाव का समूल नाश होता है । जबकि द्वैत में अहम की उत्तरोतर वृद्धि होती है । द्वैत से कभी आत्मा का वास्तविक ग्यान नहीं होता । और द्वैत ग्यान आत्मा के अविनाशी होने के रहस्य को भी बताने की क्षमता नहीं रखता । द्वैत के अच्छे साधक ऋषि मुनी देवता इन्द्र सिद्ध आदि का पद प्राप्त कर सकते हैं । या बहुत अच्छा साधक होने पर भगवान तक को जान सकते हैं या पूर्ण समर्पित साधक होने पर भगवान पद प्राप्त कर सकते हैं । फ़िर भी यह पूर्ण सत्य नहीं होता और इससे रूह के असली मुकाम यानी आत्मा की वास्तविक स्थिति मुक्त और परमानन्द अवस्था स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति को न जाना जा सकता है । न पाया जा सकता है । द्वैत में मुक्ति होती है और अद्वैत में मुक्त होता है । और इन दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है । ) का अच्छा साधक था । और निरन्तर गुप्त रूप से साधना में सलंग्न था । ज्यों ज्यों कोई साधना ऊपर की ओर प्रगति करती है । साधना और उसका साधक अभ्यास से गुप्त और साधारण रहन सहन सांसारिक जीवन में अपना लेते हैं । लिहाजा वे बातें सार्वजनिक रूप से बताने की नहीं होती । लेकिन जिन बातों से दूसरों को सहायता मिलती है । अथवा उनका किसी भी तरह हित होता है । वे बातें अवश्य बतायी जानी चाहिये । तो द्वैत की उसी साधना के समय में एक वक्त ऐसा आया कि मुझे आगे की साधना या मार्ग बताने वाले साधुओं का अभाव हो गया और उल्टे मेरे प्रश्न सुनकर या बात सुनकर साधु आश्चर्य से मुझे इस तरह देखने लगते जैसे मैं सीधा मंगल ग्रह से आ रहा हूं ? पर मेरे ऊपर उच्चकोटि साधनाओं का भूत सवार हो गया था । तब मैंने बिना किसी मार्गदर्शन के एक अत्यन्त दुर्लभ साधना की । और इसे मेरी भूल या सौभाग्य समझिये कि इसका परिणाम और अनुभव बेहद डरावना था क्योंकि ये साधना मैं बिना किसी गुरु के मार्गदर्शन या संरक्षण के कर रहा था । और परिणाम जैसा कि अपेक्षित था । मैं मनमुखी साधना से त्रिशंकु स्थिति में पहुंच गया । जिसको एक कहावत में यों समझ सकते हैं । सांप के मुंह में छंछुदर । न उगलते बने न निगलते । पांच महीने । बेहद परेशान स्थित में मैं न जाने कितने साधु संतो के पास गया । पर कोई भी मुझे नीचे न उतार सका । सबने हाथ खडे कर दिये । उल्टे वे भौंचक्का होकर मेरी बात या अनुभव को सुनते थे । और कहते थे कि हमने अपने जीवन में ऐसा आज तक नहीं सुना । फ़िर कुछ लोगों ने हिमालय के गन्धमादन पर्वत जैसे स्थलों पर जाने की सलाह दी कि वहां कुछ महात्मा ऐसे मिल सकते हैं । जो तुम्हारी समस्या का हल बता सकें । उस समय तक मेरे पूज्य गुरुदेव । सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस । प्रकट रूप में नहीं थे । और साधारण सफ़ेद वस्त्रों ( अभी भी सफ़ेद वस्त्र और साधारण वेशभूषा में ही रहते हैं । ) में रहते थे । उन्हें वैरागी और उच्चकोटि के ग्याता के रूप में तो कुछ गिने चुने लोग जानते थे । पर उनके और रहस्यों को कोई नहीं जानता था । बल्कि उनके रहन सहन से अभी भी बहुत लोग नहीं जानते हैं । तो अपनी उसी परेशानी के दौरान एक दिन मेरी बातचीत मेरे एक मित्र श्री श्याम वरन शास्त्री जी से हुयी । जो यादव केसेट कंपनी के मालिक थे । श्री श्याम वरन शास्त्री भी महाराज जी को कुछ ही जानने वालों में से एक थे । उन्होंने कहा । राजीव जी ।राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ । इस सम्बन्ध में आपको सही परामर्श " शिवानन्द जी " दे सकते हैं । क्रमशः ।

महाराज जी और मैं । 2


तब मुझे आशा की थोडी किरण नजर आयी । लेकिन संयोगवश यह बात भी आयी गयी हो गयी । और मैंफ़िर से और साधु संतो के चक्कर में उलझ गया । इसके करीब पन्द्रह दिन बाद की बात है । मेरी परेशानी कुछ अधिक ही बड गयी थी । तभी किसी प्रसंगवश मुझे यादव जी का ध्यान आया । और साथ ही उनकी बतायी हुयी बात याद आयी । मैंने यादव जी को फ़ोन किया तो वह उस समय किसी कार्यवश कचहरी में थे । और शाम को ही मिल सकते थे । मैंने कहा । आप किन्ही संत शिवानन्द जी के बारे में जो बात कर रहे थे । उस सम्बन्ध में कुछ काम था । यादव जी मेरी बात की गम्भीरता को शायद उस वक्त ठीक से समझ
नहीं पा रहे थे । लेकिन उन्होंने कहा कि शाम को वह महाराज जी के साथ मेरे घर आने की पूरी कोशिश करेंगे । उस वक्त दिन के ग्यारह बजे थे । और शाम होने में बहुत समय था । पर मेरे सामने बेहद मजबूरी थी । इसलिये मैं उस वक्त सिर्फ़ शाम होने का इंतजार ही कर सकता था । और ये बात भी कोई निश्चित नहीं थी कि शाम को यादव जी को कोई अन्य कार्य लग सकता था । और वे न आ पाते । जबकि मेरे लिये पल पल भारी था । खैर मैं बैचेनी से अपने घर के पिछवाडे बने बगीचे में चला गया । जहां नीम के पेड पर अनेकों चिडिंया चहचहाती हुयी एक डाली से दूसरी डाली पर जा रही थी । मेरे मन में विचार आया । परमात्मा की यह समूची सृष्टि कितनी रहस्यमय है ? चारों तरफ़ चेतन ही विभिन्न रूपों में खेल रहा है । माया के परदे में बनी यह सृष्टि मात्र एक भृम के सिवा कुछ नहीं है । सिर्फ़ जगत व्यवहार और जीवों के जिम्मेदार बरताव के लिये इसमें असली होने का अहसास मात्र लगता है । वास्तव में तो यह एक भ्रान्ति ही है । सिनेमा के परदे पर भी तो हमें जीवन असली ही नजर आता है । पर ये बात अलग है । कि सिनेमा का तकनीकी पहलू हम जानते हैं । लेकिन सृष्टि का तकनीकी पहलू अच्छे अच्छे नहीं जानते । वास्तव में उस वक्त मुझे सब सिनेमा ही नजर आ रहा था । एक बहुत बडे परदे का सिनेमा ? एक सिनेमा जो साधारण जीव और इंसान शरीर की आंखो देखते हैं । और इसके पिछले हिस्से का असली सिनेमा जो संत और योगी अन्तर की आंखो से देखते है । अभी दोपहर के दो बजे का समय था । यानी यादव जी के आने में तीन चार घन्टे का समय था । मैं बगीचे में लेट गया । उस खास अवस्था में मैं क्योंकि माया के दूसरे परदे के बारे में सोच रहा था । अतः लेटते ही मैं अंतरिक्ष में नीले पीले गुलाबी घने बादलों को पार करता हुआ सुदूर लोक में पहुंच गया । दिव्य साधना DIVY SADHNA के योगी जानते हैं । वायुमंडल की एक निश्चित सीमा पार कर लेने के बाद हमें गुरुत्वाकर्षण रहित ऐसा बहुत सा क्षेत्र मिलता है । जिसमे आधार भूमि की
आवश्यकता नहीं होती । यानी वहां बिना किसी आधार के आराम से खडे रह सकते है । वहां स्थूल शरीर का भार खत्म हो जाता है । प्रथ्वी के वातावरण से उपजी गरमी सरदी भी वहां नहीं होती । एक सुखद शान्त शीतल वायु और बेहद शान्ति अंतरिक्ष की खास खूबी है । जो मुझे बेहद आकर्षित करती है । इसका जीता जागता उदाहरण चील बाज गिद्ध आदि श्रेणी के वे पक्षी है । जो काफ़ी ऊंचाई पर पहुंचकर बिना किसी मेहनत और बिना किसी प्रयास के आराम से उडने के बजाय तैरते से रहते हैं । हालांकि जीव श्रेणी में आने वाले ये पक्षी उस आसमान पर नहीं जा सकते । जिसकी में बात कर रहा हूं । बल्कि ये प्रथ्वी के वायुमंडल और पहले आसमान के नाके के मध्य तक ही पहुंच पाते है । ठीक दो घन्टे के बाद मेरे शरीर में हरकत हुयी । मैंने घडी पर निगाह डाली । चार बज चुके थे । पांच बजे के लगभग जब मैं चाय पीकर फ़ारिग ही हुआ था कि यादव जी महाराज जी और मथुरा जिले की कृष्णाबाई के साथ मेरे घर आ गये । यह महाराज जी से मेरा प्रथम परिचय था । क्रमशः ।

महाराज जी और मैं । 3


यधपि इससे पहले मैंने कृष्णाबाई और महाराज जी को एक झलक भर एक आश्रम पर देखा था । जब मैं
होली गीतों के एक वीडियो एलबम की शूटिंग के लिये आश्रम के पास ही गया था । और गाने के कुछ दृश्योंकी शूटिंग आश्रम के अन्दर फ़ूलों की क्यारियों में हुयी थी । पर उस वक्त का माहौल कुछ और ही था । और
मैं संत मत sant mat के सफ़ेद वस्त्रधारी महात्माओं से उस वक्त अपरिचित ही था । मेरे लिये महात्मा होने का अर्थ लाल गेरुआ पीले वस्त्र ही थे । शूटिंग के बाद कृष्णाबाई ने बडे प्रेम से मुझसे चाय पीने के लिये कहा । जिसे मैंने विनम्रता से मना कर दिया । आश्रम से निकलते समय महाराज जी मुझे बाहर खडे हुये नजर आये । उन्होंने बेहद स्नेह भरी नजर से मुझे देखा । पर मैंने सफ़ेद वस्त्र होने के कारण उनसे कोई बात नहीं की । दूसरे द्वैत ग्यान का साधक अपने अन्दर विशिष्टता भाव के अहसास से दोगुने अहम का शिकार होता है । वही बात उस वक्त मुझमें भी थी । और दूसरे होली के द्विअर्थी गीतों । कामुक रसीले भाव । और भीगे वस्त्रों में युवा अभिनेत्रियों के कामुक अंग प्रदर्शन से मेरे अन्दर उस वक्त अध्यात्म का भाव एक तरह से तिरोहित ही हो गया था । अगर ऐसा नहीं होता । तो अपने जीवन के वे छह महीने मुझे बेहद परेशानी में न गुजारने पडते । महाराज जी को एक झलक देखने के बाद मैं भूल ही गया । वास्तव में मैं जानता भी नहीं था कि महाराज जी किसी प्रकार के सन्त हैं ? और जब यादव जी ने शिवानन्द जी के नाम से जिक्र किया । तब भी मुझे पता नहीं था । कि यादव जी किसका जिक्र कर रहें हैं ? कृष्णाबाई को भी व्यक्तिगत तौर पर मैं थोडा भी नहीं जानता था । और आज वे लोग मेरे सामने एक बार फ़िर मौजूद थे । जिनमें मैं सिर्फ़ श्यामबरन शास्त्री यादव जी से ही परिचित था । जिनकी पहचान मेरे मित्र के तौर पर थी ।
बाईजी काफ़ी समय पहले से घरबार त्यागकर आश्रम में रह रही थीं । और 65 वर्ष की आयु होने पर भी गजब
की ऊर्जावान थी । उनकी वाणी में मानों शहद भरा हुआ था । और चलने फ़िरने में गजब की फ़ुर्ती थी । ये लोग महाराज जी को बाबाजी के सम्बोधन से पुकारते थे । और सुरति शब्द साधना में उनके उच्चस्तर के विद्धतापूर्ण ग्यान को ही जानते थे । महाराज जी उच्चस्तर के संत हैं । ये वे लोग भी नहीं जानते थे ।
यही चिराग तले अंधेरा वाली बात होती है । और ये अंधेरा महज इसलिये था । क्योंकि वे भी संत मत sant mat की दीक्षा चन्दरपुर के संत राजानन्द उर्फ़ गडबडानन्द जी से लिये हुये थे । और महाराज जी को अपने समान या कुछ और बडकर मानते थे । वास्तव में किसी संत की वास्तविक ऊंचाई उसके प्रिय शिष्य को ही ग्यात हो सकती है । बाकी संसारी लोग इस बात का सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकते हैं । गुरु शिष्य की एक ही काया । कहन सुनन को दो बतलाया । महाराज जी उस वक्त गरमी का समय होने के कारण इनर वियर के रूप में पहनी जाने वाली सादा बनियान और सफ़ेद धोती पहने हुये थे । लेकिन उस वक्त उनके चेहरे पर गजब का तेज था । कहिये राजीव जी । मुझे यादव जी की आवाज सुनाई पडी । कैसे याद किया ? मैंने एक निगाह आसमान में उडते हुये परिंदो को देखा । आसमान में एक रहस्यमय लालिमा छायी हुयी थी । मैंने महाराज जी को देखा और बोला । करीब छह महीने पहले की बात है ?...इसके बाद
मैं अपनी उस मनमुखी साधना और उसके कष्टसाध्य अनुभवों को बताता चला गया । महाराज जी को छोडकर हरेक कोई मेरी बातों को बडे गौर से सुन रहा था । इस तरह महाराज जी के सम्पर्क में मैं पहली बार आया । लेकिन इसके बाद भी मेरे उन कष्टों का सही समाधान एक महीने बाद हुआ । इसमें भी मेरी ही गलती थी । मैं अभी भी अहम में भरा हुआ था । लेकिन एक महीने बाद ही महाराज जी को ठीक से समझते ही मेरे सभी कष्टों का अंत हो गया । और मैं असीम शान्ति का अनुभव करने लगा । इन सब बातों का विवरण आप मेरे शीघ्र प्रकाशित लेख । मायावी चक्रव्यूह के छह महीने । नामक लेख श्रंखला में पढ सकेंगे ।

बुधवार, अगस्त 18, 2010

क्योंकि जिसके पास यह होती है । वह राजा ही होता है ।


श्रेष्ठ हाथी । जीमूत ( मेघ ) वराह । शंख । मत्स्य । सर्प । शुक्ति तथा बांस में उत्पन्न मुक्ता फ़ल ही संसार में
प्रसिद्ध हैं । किन्तु इनमें शुक्ति यानी सीप में उत्पन्न मुक्ताएं ही अधिक उपलब्ध है । इन सभी मुक्ताओं में सीप में उत्पन्न होने वाली मुक्ता को रत्न के बराबर माना गया है । यह मुक्ता सूचकादि यन्त्र से वेध्य है ।
शेष मुक्ताएं अवेध्य हैं । हाथी । वराह । शंख । मत्स्य । । तथा बांस से उत्पन्न मुक्ताओं में प्रभा नहीं होती । फ़िर भी वे मांगलिक मानी जाती है । शंख और हाथी से उत्पन्न होने वाली मुक्ता अधम होती है । शंख से उत्पन्न मुक्ता बृहल्लोल फ़ल के समान होती है । हाथी के कुम्भ्स्थल से निकलने वाली मुक्ता में प्रभा नहीं होती । वह पीले रंग की होती है । मत्स्य से उत्पन्न मुक्ता अत्यन्त सुन्दर गोलाकार छोटी और सूक्ष्म होती है । यह अथाह समुद्र की जलराशि में विचरने वाले जलचर जीवों के मुख से प्राप्त होती है । वराह के दांत से उत्पन्न मुक्ता दुर्लभ होती है । ऐसे वराह प्रथ्वी के किसी किसी हिस्से में ही होते हैं । बांस के पर्वों से उत्पन्न मुक्ता ओले के समान सुन्दर शोभायुक्त होती है । ऐसे बांस भी दिव्यजनों के उपयोग हेतु किसी किसी स्थान पर ही होते है । अर्थात सब जगह नहीं मिलते । सर्प मुक्ता । मत्स्य मुक्ता के समान ही विशुद्ध तथा गोलाकार ही होती है । इसकी अत्यन्त उज्जवल शोभा होती है । जो तलवार की धार के समान चमकती है । सर्पों के सिर से प्राप्त होने वाली इस मुक्ता को पाने वाला मनुष्य राज्यलक्ष्मी से युक्त महान ऐश्वर्य सम्पन्न । तेजस्वी तथा पुण्यवान ही होता है । जिसके कोषागार में यह सर्पमुक्ता रहती है । उसकी मृत्यु सर्प राक्षस व्याधि या अन्य अभिचार के दोष से नहीं होती । जीमूत यानी मेघ यानी बादल से उत्पन्न होने वाली मुक्ता प्रथ्वी पर आ ही नहीं पाती । देवता आकाश में ही उसको उठा लेते हैं । सूर्य के समान चमकने वाली इस मुक्ता को एकटक देखना भी संभव नहीं होता । यह अपनी दिव्य कान्ति से दसों दिशाओं को आलोकित करती है । यह मुक्ता गहन अन्धकार भरी रात में दूर तक दिन जैसा उजाला करती है । विचित्र रत्न कान्ति को प्राप्त चार समुद्रों से इस मुक्ता का जन्म हुआ है । इस मुक्ता का कोई मूल्य नहीं बताया जा सकता है । क्योंकि जिसके पास यह होती है । वह राजा ही होता है । उसके आसपास की सम्पूर्ण भूमि सोने से भर जाती है । यह तमाम शत्रुओं का नाश कर देती है । और अनर्थ तो इसके पास भी नहीं फ़टकते । बलासुर के मुख से अलग हुयी दंतपंक्ति आकाश से समुद्र के जल में गिरी । और वह सामुद्रिक मुक्ता का प्राचीन बीज बन गया । जिससे अन्य मुक्तायें पैदा हुयी । और वे बीज फ़ैलकर सीपों में स्थित होकर मोती बन गये । सिंहल । परलोक । सौराष्ट्र । ताम्रपर्ण । पारशव । कुबेर । पाण्डय । हाटक और हेमक ये मुक्ताओं के खजाने हैं । मुक्ता से सम्बन्धित गुण अवगुण की कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है । ये सर्वत्र सब प्राकार की आकृतियों में पायी जाती हैं । मुक्ता को शुद्ध करने के लिये मटके में जम्बीर रस में डालकर पकाना चाहिये । फ़िर उन्हें घिसकर चिकनाकर चमकाते हुये आकार देकर जल्दी ही उसमें छेद कर देना चाहिये । मुक्ता और चिकना और चमकना बनाने के लिये । दूध या जल या सुधारस में पकाया जाता है । इसके बाद साफ़ वस्त्र से घिस घिसकर चमकाया जाता है । यदि कोई मुक्ता नकली लग रही हो तो उसे लवण मिश्रित गर्म चिकने दृव्य में एक रात रखकर सूखे वस्त्र में वेष्टित करके यथायोग्य धान्य के साथ उसका मर्दन करें । ऐसा करने से उसकी चमक में कमीं नहीं होती । तो वो असली है । जिस मुक्ता में सभी गुणों का उदय हो गया हो । यदि ऐसी मुक्ता किसी को प्राप्त हो जाती है । तो वह प्राप्तकर्ता को किसी भी प्रकार के एक भी अनर्थ को उत्पन्न करने वाले दोष के सम्पर्क में आने नहीं देती ।

सोमवार, अगस्त 16, 2010

राम लक्ष्मण सीता का अंतिम समय ।


राम के अश्वमेघ यज्ञ में नैमिषारण्य में बहुत सुन्दर व्यवस्था की गयी । सीता की सोने की प्रतिमा बनवाई गई । लक्ष्मण को सेना और शुभ लक्षणों से सम्पन्न अश्‍व के साथ विश्‍व भ्रमण के लिये भेजा गया । इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये महर्षि वाल्मीकि भी लव कुश के साथ आये । उन्होंने लव कुश से कहा । कि वे दोनों भाई नगर में घूमते हुये रामायण का गान करें । और कोई पूछे कि तुम किसके पुत्र हो । तो कहना हम ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं । लव कुश रामायण का गान करने के लिये चल पड़े । उनके द्वारा भावपूर्ण सीता चरित्र और रामकथा सुनकर अयोध्यावासियों ने यह समाचार राम को बताया । नगरवासियों द्वारा यह बात सुनकर राम ने वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया । यदि सीता का चरित्र शुद्ध है । तो वे आपकी अनुमति से यहाँ आकर सबके सामने अपनी शुद्धता प्रमाणित करें । और मेरा कलंक दूर करें । तो मुझे बेहद खुशी होगी । वाल्मीकि ने कहा । ऐसा ही होगा । सीता वही करेगीं । जो राम चाहेंगे क्योंकि स्त्री के लिये पति ही परमात्मा होता है । यह खबर मिलते ही राम ने सब ऋषि । मुनियों । नगरवासियों को उस समय उपस्थित रहने के लिये निमन्त्रित किया । दूसरे दिन सीता को देखने के लिये अनेकों ऋषि । मुनि । विद्वान । नागरिक उपस्थित हो गये । निश्‍चित समय पर वाल्मीकि सीता को लेकर आये । आगे वाल्मीकि और उनके पीछे दोनों हाथ जोड़े । आँसू बहाती हुयी सीता आ रही थीं । सीता की दीन दशा देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुखी हो गया और वे शोकाकुल होकर आँसू बहाने लगे । वाल्मीकि बोले । श्रीराम । मैं तुम्हें विश्‍वास दिलाता हूँ कि सीता पवित्र है । कुश और लव आपके ही पुत्र हैं । मैं कभी मिथ्या नहीं कहता । यदि मेरा कथन मिथ्या हो । तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय । लेकिन इसके बाद भी देवी सीता स्वयं आपको निर्दोषिता का प्रमाण देगी ।यह बात सुनकर सभा के बीच खड़ी सीता को देखकर राम बोले । हे ऋषिश्रेष्ठ । आपका कथन सत्य है । और मुझे आपकी बात पर पूरा विश्‍वास है । वास्तव में सीता ने अपनी सच्चरित्रता का विश्‍वास मुझे अग्नि के समक्ष ही दिला दिया था । परन्तु लोकापवाद के कारण ही मुझे सीता को त्यागना पड़ा । आप मुझे इस अपराध के लिये क्षमा करें । इसके बाद राम उपस्थित जनसमूह को देखते हुये बोले । हे मुनि एवं उपस्थित सज्जनों । मुझे महर्षि के कथन पर पूर्ण विश्‍वास है । परन्तु यदि सीता स्वयं सबके सामने अपनी शुद्धता का प्रमाण दें तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी । यह सुनकर सीता हाथ जोड़कर सिर झुकाये हुये ही बोलीं । मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथ के अतिरिक्‍त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें । सीता के इतना कहते ही पृथ्वी फटी । उसमें से एक सिंहासन निकला । उसी के साथ पृथ्वी देवी रूप में प्रकट हुईं । उन्होंने सीता को उठाकर प्रेम से सिंहासन पर बैठा लिया । देखते ही देखते सिंहासन पृथ्वी में समा गया । सब लोग भौंचक्के से यह द‍ृश्य देखते रह गये । वातावरण में सन्नाटा छा गया । इस घटना से राम को बहुत दुःख हुआ । उनकी आंखो से आंसू बहने लगे । वह बोले । मैं जानता हूँ । तुम ही सीता की सच्ची माता हो । राजा जनक ने हल जोतते हुये तुमसे ही सीता को पाया था । परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो । या मुझे भी अपनी गोद में समा लो । राम को इस प्रकार विलाप करते देख सबने उन्हें सान्त्वना देकर समझाया ।
इस प्रकार सीता के धरती में समाने के बाद राम को राज्य करते हुये बहुत समय हो गया । तब एक दिन काल तपस्वी के वेश में राजद्वार पर आया । उसने कहा । मैं महर्षि अतिबल का दूत हूँ । और अति आवश्यक कार्य से राम से मिलना चाहता हूँ । राम ने उसे तुरन्त बुलाया और बैठने को आसन दिया । तब मुनि वेषधारी काल ने कहा । यह बात अत्यन्त गोपनीय है । यहाँ हम दोनों के अतिरिक्‍त कोई अन्य नहीं होना चाहिये । तब मैं आपको वह बात बता सकता हूँ कि यदि बातचीत के समय कोई व्यक्‍ति आ जाये तो आप उसका वध कर देंगे । यह सुनकर राम ने लक्ष्मण से कहा । तुम इस समय द्वारपाल को हटाकर स्वयं द्वार पर खड़े हो जाओ । ध्यान रहे । इनके जाने तक कोई यहाँ न आ पाये । इस बीच जो भी आयेगा । मेरे द्वारा मारा जायेगा । जब लक्ष्मण चले गये तो राम ने काल से सन्देश सुनाने के लिये कहा । काल बोला । मैं आपकी माया द्वारा उत्पन्न आपका पुत्र काल हूँ । ब्रह्मा जी ने कहलाया है । कि आपने जो प्रतिज्ञा की थी वह पूरी हो गई । अब आपके अपने लोक जाने का समय हो गया है । फ़िर भी आप यहाँ रहना चाहें तो ये आपकी इच्छा है । राम ने कहा । जब मेरा कार्य पूरा हो गया तो फिर मैं यहाँ क्या करूँगा ? मैं शीघ्र ही अपने लोक को लौटूँगा । जब काल इस प्रकार वार्तालाप कर रहा था । उसी समय महल के द्वार पर महर्षि दुर्वासा राम से मिलने आये । और लक्ष्मण से बोले । मुझे अभी राम से मिलना है । देर होने से मेरा काम बिगड़ जायेगा । इसलिये तुम उन्हें तुरन्त मेरे आने की सूचना दो । लक्ष्मण बोले । भैया इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं । आप मुझे आज्ञा दें । जो भी कार्य होगा । मैं पूरा करूँगा । यदि उन्हीं से मिलना हो तो थोडी प्रतीक्षा करनी होगी । यह सुनते ही दुर्वासा को क्रोध आ गया । और वह बोले । तुम अभी राम को मेरे आने की सूचना दो । नहीं तो मैं शाप देकर समस्त रघुकुल और अयोध्या को इसी क्षण भस्म कर दूँगा । दुर्वासा की बात सुनकर लक्ष्मण ने सोचा । चाहे मेरी मृत्यु हो जाये । रघुकुल का विनाश नहीं होना चाहिये । यह सोचकर उन्होंने राम के पास जाकर दुर्वासा के आने का समाचार सुनाया । राम काल को विदा कर महर्षि दुर्वासा के पास पहुँचे । उन्हें देखकर दुर्वासा ने कहा । राम । मैंने बहुत समय तक उपवास करके आज इसी समय अपना व्रत खोलने का निश्‍चय किया है । इसलिये तुम्हारे यहाँ जो भी भोजन तैयार हो तुरन्त मँगाओ । राम ने दुर्वासा को भोजन कराकर विदा कर दिया । फिर वे काल कि दिये अपने वचन को यादकर लक्ष्मण से वियोग की आशंका से अत्यन्त दुखी हुये । राम को दुखी देखकर लक्ष्मण बोले । प्रभु । यह तो काल की गति है । आप दुखी न हों । और निश्‍चिन्त होकर मेरा वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें । लक्ष्मण की बात सुनकर राम और भी व्याकुल हो गये । उन्होंने वसिष्ठ तथा मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें पूरा वृतान्त सुनाया । यह सुनकर वसिष्ठ बोले । राम । आप सबको शीघ्र ही यह संसार त्याग कर अपने अपने लोकों को जाना है । इसका प्रारम्भ सीता के प्रस्थान से हो चुका है । इसलिये आप लक्ष्मण का त्याग कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें । प्रतिज्ञा नष्ट होने से धर्म का लोप हो जाता है । साधु पुरुषों का त्याग करना । उनके वध करने के समान ही होता है। वसिष्ठ की बात मानकर राम ने दुखी मन से लक्ष्मण का त्याग कर दिया । लक्ष्मण सरयू के तट पर आये । जल का आचमन कर हाथ जोडे । प्राणवायु को रोका । और अपने प्राण विसर्जन कर दिये । तब शोकाकुल राम ने सबको बुलाकर कहा । अब मैं अयोध्या के सिंहासन पर भरत को बैठाकर स्वयं वन को जाना चाहता हूँ ।यह सुनते ही सब रोने लगे । भरत ने कहा । मैं भी अयोध्या में नहीं रहूँगा । मैं आपके साथ चलूँगा । आप मेरी बजाय कुश और लव का राज्याभिषेक कीजिये । प्रजा भी कहने लगी । हम सब भी आपके साथ ही चलेंगे । तब राम ने विचार करके उन्होंने दक्षिण कौशल का राज्य कुश को । और उत्तर कौशल का राज्य लव को सौंपकर उनका अभिषेक किया । कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती । और लव के लिये श्रावस्ती नगर का निर्माण कराया । फिर उन्हें अपनी अपनी राजधानी जाने का आदेश दिया । इसके बाद एक दूत भेजकर मधुपुरी से शत्रघ्न को बुलाया । दूत ने शत्रुघ्न को लक्ष्मण के त्याग । लव कुश के अभिषेक आदि की सभी बातें बताईं । इस घोर हाहाकारी वृतान्त को सुनकर शत्रुघ्न अवाक् रह गये । उन्होंने अपने दोनों पुत्रों सुबाहु और शत्रुघाती को अपना राज्य दे दिया । उन्होंने सबाहु को मथुरा का और शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंप तुरन्त अयोध्या के लिये प्रस्थान किया । अयोध्या पहुँचकर वे बड़े भाई से बोले । मैं भी आपके साथ जाने के लिये तैयार होकर आ गया हूँ । कृपया मुझे रोकना नहीं । इसी बीच सुग्रीव भी आ गये ।
उन्होंने कहा । मैं अंगद का राज्याभिषेक करके आपके साथ ही जाने के लिये आया हूँ । सुग्रीव की बात सुनकर राम मुस्कुराये । और बोले । बहुत अच्छा । फिर विभीषण से बोले । विभीषण । मैं चाहता हूँ । तुम इस संसार में रहकर लंका में राज्य करो । यह मेरी हार्दिक इच्छा है । आशा है । तुम इसे अस्वीकार नहीं करोगे । भारी मन से विभीषण ने राम का आदेश माना । राम ने हनुमान को भी सदैव पृथ्वी पर रहने की आज्ञा दी । जाम्बवन्त । मैन्द । और द्विविद को द्वापर । तथा कलियुग की सन्धि तक । जीवित रहने का आदेश दिया । अगले दिन सुबह राम ने वसिष्ठ की आज्ञा से महाप्रस्थान हेतु सब तैयारी की । और पीताम्बर धारणकर हाथ में कुशा लेकर राम ने वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ सरयू की ओर प्रस्थान किया । वह सूर्य के समान मालूम पड़ रहे थे । उस समय उनके दक्षिण भाग में । साक्षात् लक्ष्मी । वाम भाग में भूदेवी । और उनके समक्ष संहार शक्‍ति चल रही थी । उनके साथ बड़े बड़े ऋषि मुनि और समस्त ब्राह्मण मण्डली थी । वे सब स्वर्ग का द्वार खुला देख उनके साथ दौडे जाते थे । उनके साथ राजमहल के सभी वृद्ध स्त्री पुरुष भी चल रहे थे । भरत व शत्रुघ्न भी अपने अपने रनवासों के साथ श्रीराम के संग संग चल रहे थे । सब मन्त्री तथा सेवक अपने परिवार सहित उनके पीछे थे । उन सबके पीछे मानो सारी अयोध्या ही चल रही थी । रीछ ‌और वानर भी किलकारियाँ मारते । उछलते कूदते । दौड़ते हुये चले जा रहे थे । लेकिन कोई भी दुःखी अथवा उदास नहीं था । इस प्रकार चलते हुये वे सब सरयू के पास पहुँच गये । उसी समय ब्रह्मा सब देवताओं और ऋषियों के साथ वहाँ आ पहुँचे । श्रीराम को स्वर्ग ले जाने के लिये बहुत से सुसज्जित विमान आये थे । उस समय आकाश दिव्य तेज से चमकने लगा । शीतल मंद सुगन्धित वायु बहने लगी । आकाश में गन्धर्व दुन्दुभी बजाने लगे । अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । देवता फूल बरसाने लगे । राम ने सब भाइयों और जनसमुदाय के साथ सरयू में प्रवेश किया । तब आकाश से ब्रह्माजी बोले । हे राम । आपका मंगल हो । हे विष्णुरूप रघुनन्दन । आप अपने भाइयों के साथ अपने लोक में प्रवेश करें । चाहें आप विष्णु रूप धारण करें । और चाहें सनातन आकाशमय अव्यक्‍त ब्रह्मरूप रहें । ब्रह्मा की स्तुति सुनकर राम वैष्णवी तेज में प्रविष्ट होकर विष्णुमय हो गये । सब देवता । ऋषि । मुनि । इन्द्र आदि उनकी पूजा करने लगे । यक्ष । किन्नर । अप्सराएँ आदि उनकी स्तुति करने लगे । तभी विष्णुरूप राम ब्रह्मा से बोले । हे सुव्रत । ये जितने भी जीव मेरे साथ आये हैं । ये सब मेरे भक्‍त हैं । इन सबको स्वर्ग में रहने के लिये उत्तम स्थान दीजिये । तब ब्रह्मा ने सबको ब्रह्मलोक के समीप स्थित । संतानक । नामक लोक में भेज दिया । वानर और रीछ आदि जिन देवताओं के अंश से उत्पन्न हुये थे । वे सब उनमें लीन हो गये । सुग्रीव ने सूर्यमण्डल में प्रवेश किया । उस समय जिसने भी सरयू में डुबकी लगाई । वहीं शरीर त्यागकर परमधाम चला गया ।

बुधवार, अगस्त 11, 2010

इस संसार में मरे हुये प्राणी का कौन हितैषी होता है ।

आत्मा ( शरीर ) ही पुत्र के रूप मे प्रकट होता है । वह पुत्र यमलोक में पिता का रक्षक है । घोर नरक से पिता का वही उद्धार करता है अतः उसको पुत्र कहा जाता है । अतः पुत्र को पिता के लिये आजीवन श्राद्ध करना चाहिये । तब वह प्रेत रूप हुआ पिता पुत्र द्वारा दिये गये दान से सुख प्राप्त करता है । प्रेत के निमित्त
दी जलांजलि से वह प्रसन्न होकर यमलोक जाता है । चौराहे पर रस्सी की तिगोडिया में कच्चे घडे में लटकाया दूध वायु भूत हुआ वह प्रेत मृत्यु के दिन से तीन दिन तक । आकाश में स्थित उस दूध का पान करता है । अस्थि संचय चौथे दिन करके दिन का प्रथम पहर बीत जाने पर जलांजलि दें । पूर्वाह्न मध्याह्न तथा अपराह्न तथा इनके संधिकाल में जलांजलि नहीं दी जाती । जो मनुष्य जिस स्थान । मार्ग । या घर में मृत्यु को प्राप्त करता है । उसको वहां से शमशान भूमि के अतिरिक्त कही नहीं ले जाना चाहिये । मृत प्राणी वायु रूप धारण करके इधर उधर भटकता है । और वायु रूप होने से ही ऊपर की ओर जाता है । तब वह प्राप्त हुये शरीर के द्वारा ही अपने पुन्य और पाप के फ़लों का भोग करता है । दशाह कर्म करने से मृत मनुष्य के शरीर का निर्माण होता है । नवक और षोडश श्राद्ध करने से जीव उस शरीर में प्रवेश करता है । भूमि पर तिल कुश का निक्षेप करने से वह कुटी धातुमयी हो जाती है । मरणासन्न के मुख में पंच रत्न डालने से जीव ऊपर की ओर चल देता है । यदि ऐसा नहीं होता तो जीव को शरीर प्राप्त नहीं होता । जीव जहां
कहीं पशु या स्थावर योनि में जन्मता है । श्राद्ध में दी गयी वस्तु वहीं पहुंच जाती है । जब तक मृतक के सूक्ष्म शरीर का निर्माण नहीं होता । तब तक किये गये श्राद्ध से उसकी त्रप्ति नहीं होती । भूख प्यास से व्याकुल वह वायुमण्डल में इधर उधर चक्कर काटता हुआ दशाह के श्राद्ध से त्रप्त होता है । जिस मृतक का पिन्डदान नहीं होता । वह आकाश में ही भटकता रहता है । वह क्रम से लगातार तीन दिन जल तीन दिन अग्नि तीन दिन आकाश और एक दिन पूर्व मोह ममता के कारण अपने घर में निवास करता है । इसलिये अग्नि में भस्म हो जाने पर प्रेतात्मा को जल से ही त्रप्त करना चाहिये । मृत्यु के पहले तीसरे पांचवे सातवें नवें और ग्यारहवें दिन जो श्राद्ध होता है उसे नवक श्राद्ध कहते हैं । एकादशाह के दिन के श्राद्ध को सामान्यश्राद्ध कहते हैं ।
जिस प्रकार गर्भ में स्थित जीव का पूर्ण विकास दस मास में होता है । उसी प्रकार दस दिन तक दिये गयेपिन्डदान से जीव के उस शरीर की सरंचना होती है । जिस शरीर से उसे यमलोक की यात्रा करनी होती है । पहले दिन जो पिन्डदान दिया जाता है । उससे जीव की मूर्द्धा का निर्माण होता है ।
दूसरे दिन के पिन्डदान से आंख कान और नाक की रचना होती है । तीसरे दिन गण्डस्थल मुख तथा गला । चौथ पिन्ड से ह्रदय कुक्षि प्रदेश उदर भाग । पांचवे दिन कटि प्रदेश पीठ और गुदाभाग । छठे दिन दोनों उरु । सातवें दिन गुल्फ़ । आठवें दिन जंघा । नौवें दिन पैर । तथा दसवें दिन प्रबल क्षुधा की उत्पत्ति होती है ।
मानव शरीर में जो अस्थियो का समूह है । उनकी कुल सख्या तीन सौ साठ है । जल से भरे घडे का दान करने से उन अस्थियों की पुष्टि होती है । इसलिये जल युक्त घटदान से प्रेत को बहुत प्रसन्नता होती है । जिस प्रकार सूर्य की किरणें अपने तेज से सभी तारों को ढक देती हैं । उसी प्रकार प्रेतत्व पर इन क्रियाओ का आच्छादन होने से भविष्य में प्रेतत्व नहीं मिलता । अतः सपिन्डन के बाद कहीं प्रेत शब्द का प्रयोग नहीं होता । मृतक के हेतु शय्यादान की बेहद प्रसंशा की गयी है । यह जीवन अनित्य है । उसे मृत्यु के बाद कौन प्रदान करेगा । जब तक यह जीवन है । तभी तक बन्धु बान्धव अपने हैं । और अपने पिता हैं । ऐसा कहा जाता है । मृत्यु हो जाने पर । यह मर गया है । ऐसा जान करके क्षण भर मे ही वे अपने ह्रदय से स्नेह को दूर कर देते हैं । इसलिये अपना आत्मा ही अपना सच्चा हितैषी है । ऐसा बारम्बार विचार करते हुये जीते हुये ही अपने हित के कार्य कर लेने चाहिये । अन्यथा इस संसार में मरे हुये प्राणी का कौन हितैषी होता है । अर्थात कोई नहीं होता । क्या इसमें कोई संशय है ?

जव ऐसी चिंता जीव करता है ।

इस मृत्युलोक में अपने पुण्यों के अनुसार सभी जातियों के जीव रहते हैं । जो अपना काल आ जाने पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं । मृत्यु के बाद विधाता के बनाये उस मार्ग में स्थित वे जीव अत्यन्त कठिनता से गुजरते हैं । मृत्यु के बाद का रास्ता तय करने के लिये जीवात्माओं का स्थूल शरीर तो होता नहीं है । वो यहीं उतर जाता है । बल्कि धर्म अर्थ काम और चिरकालीन मोक्ष की लालसा रखने वाला अगूंठे के बराबर दूसरा शरीर होता है । वह उसी रूप में अपने पाप पुण्य के अनुसार लोक या निवास के लिये ग्रह प्राप्त करता है । तब उस यातना शरीर में स्थित होकर यम पाश से बंधा हुआ वह जीव अपनी गलतियों पर बार बार पछताते हुये रोता है । कि मैंने मनुष्य जन्म वृथा ही गंवा दिया । अब इस यम मार्ग में मेरा साथ देने वाला कौन है ? अर्थात मेरे कर्म ही यहां साथ देते हैं । जो विषय वासना में भूलकर में कर न सका । समस्त लोकों में प्रथ्वी स्वर्ग और पाताल । ये तीन लोक सारभूत हैं । सभी दीपों में जम्बूदीप । सभी देशों में । देवदेश अर्थात भारतवर्ष और समस्त योनोयों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है । संसार के सभी वर्णों में ब्राह्मण आदि चार वर्ण और उन वर्णों में भी धर्मनिष्ठ व्यक्ति ही श्रेष्ठ है । इस लोकयात्रा के मार्ग में चलता हुआ जीवात्मा सभी प्रकार का सुख और ग्यान प्राप्त कर सकता है । गर्भ में स्थित जीव को अपने पूर्वजन्मों का ग्यान रहता है । तब वहां वह इस प्रकार का चिंतन करता है । कि जीवन के समाप्त हो जाने के बाद जब मैं मृत्यु को प्राप्त हुआ और फ़िर तमाम नरक आदि यातनाओं को भोगकर और यम मार्ग के कष्ट भोगकर । अब मैं विष्ठा में रहने वाले कीडों या कीटाणुओं की विशेष योनि में आ गया हूं । मैं सरककर चलने वाला सर्प भी बना ।
मैं मच्छर भी बना । चार पैरों वाला घोडा और वैल भी बना । मैं सुअर जैसा मल खाने वाला जीव भी बना । इस प्रकार गर्भ में जीव को उसके द्वारा पूर्व में भोगे गये जन्म एक रील की तरह दिखाई देते रहते हैं । और वह बार बार यही निश्चय करता है कि अबकी बार के मनुष्य जन्म में मैं इन चौरासी के कष्टों से अवश्य अपनी आत्मा के उद्धार का ही पूर्ण प्रयास करूंगा । किन्तु जन्म लेने पर वायु के स्पर्श और माया के आवरण से वो उसे भूल जाता है । गर्भ में जीवात्मा जिस प्रकार का चिंतन करता है । तब बाद में जन्म लेकर बालक युवा और वृद्धावस्था में वह वैसा ही आचरण करता है । परन्तु यदि गर्भ की बात संसार की माया मोह में पडकर भूल जाता है । तो पुनः मृत्यु के समय वही सब य्से एकदम याद आ जाता है । जैसे जिन्दगी को एक किताब मान लो । तो जन्म के समय । और मृत्यु के समय एक ही पन्ने होते हैं । यानी बीच के पन्ने उस वक्त खत्म से हो जाते हैं । शरीर के नष्ट होने पर जो बात ह्रदय में रह जाती है । फ़िर से गर्भ में पहुंचने पर वह निश्चित याद आती है । तब उसे धर्म और दान आदि परमार्थिक कार्यों का महत्व पता चलता है । तब वह स्वयं से ही कहता है कि मैं अपने मल मूत्र से भरे इसी शरीर की पूर्ति करने में । उसे सजाने संवारने में लगारहा ।
अतः मेरा उद्धार भला कैसे हो सकता है ? जव ऐसी चिंता जीव करता है । तब यमदूत उससे कहते हैं । हे देहधारी । जैसा तुमने किया है । अब उसी के अनुसार तुम्हें भुगतना होगा । अरे तुम्हें तो देवत्व अथवा उससे भी बडकर मुक्ति या उससे भी बडकर मुक्त कराने वाली मानव योनि की देह प्राप्त थी । किन्तु लौकिक आसक्ति में फ़ंसकर यह पूरा जीवन माया मोह में ही तुमने समाप्त कर दिया और अपने परलोक सुधार हेतु कुछ भी नहीं किया । हे मूढ बुद्धि । इसलिये जैसा तुमने किया । अब वैसा ही भोगो । तुम्हारे पिता और पितामह भी पहले ही मर गये । जिसने तुमको अपने गर्भ में रखा । वह माता भी मर गयी ।
तुम्हारे बहुत से भाई बन्धु भी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं । तुम्हारा अपना पंचतत्वों से बना शरीर भी आग में जलकर भस्म हो गया । तुम्हारे द्वारा एकत्र किया गया धन सम्पत्ति भी प्रथ्वी पर तुम्हारे पुत्रादि के पास ही रह गया । अब यहां जो कुछ तुमने धर्म का संचय किया है । जो तुमने तन मन धन आदि से जो भी परोपकार किया है । वही तुम्हारे पास शेष है । उसी का तुम उपयोग कर सकते हो । वही तुम्हें प्राप्त होगा ।
इसमें कोई संशय नहीं है । हे देही । इस प्रथ्वी पर जन्म लेने वाला । चाहे राजा हो । सन्यासी हो । ब्राह्मण हो । अथवा भिखारी हो । वह मरने के बाद फ़िर से आया हुआ दिखाई नही देता । जो भी इस प्रथ्वी पर पैदा हुआ है । उसकी मृत्यु निश्चित है । इस प्रकार यम के दूत जब उस जीव से कहते हैं । तब वह दुखी जीव आश्चर्य से इस प्रकार मनुष्य की वाणी में कहता है । दान के प्रभाव से ही व्यक्ति ( मृत्यु के बाद ) विमान पर सवार होता है । उस समय धर्म उसका पिता है । दया उसकी माता है । मधुर वचन और प्रेममयी वाणी ही उसकी पत्नी है । तीर्थ आदि का सेवन ही उसके बन्धु हैं । इस तरह मनुष्य के सतकर्म और भगवान के चरणों में अर्पित कर किये गये सभी कार्य ही जीव के लिये स्वर्ग को भी बहुत छोटा ही बना देते हैं । इसलिये जो प्राणी धर्मपूर्वक जीवन यापन करता है । वह सभी सुख सुविधाओं को प्राप्त करता है । और जो पापी है । वह तो अनेकों कष्ट और दारुण नरक को ही भोगता है । तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?

रविवार, अगस्त 08, 2010

एक प्रेत का उद्धार @ वृषोत्सर्ग संस्कार

सतयुग में वंग देश में बभ्रुवाहन नाम का राजा था । उसके शासन में कोई भी पापी नहीं था । एक बार राजा सौ घुडसवार सैनिकों के साथ शिकार खेलने गया । तब राजा को नन्दनवन के समान एक घना वन नजर आया । जो बिल्ब मंदार । खदिर । कैथ तथा बांस के वृक्षों से भरा हुआ था । जलरहित वह निर्जन वन भयंकर और बेहद लम्बे क्षेत्र में फ़ैला हुआ था । राजा वन में शिकार करने लगा । उसने एक हिरन की कमर में तीर मारा । घायल मृग बडी तेजी से दौडा । राजा ने मृग का पीछा किया । और उस के पीछे लगे हुये ही वह उस वन से दूसरे घनघोर वन में पहुंच गया । राजा बेहद थक गया था । वह प्यास के कारण किसी सरोवर को खोजने लगा । हंस और सारस पक्षी की आवाज सुनकर वह पूरचक्र नामक सरोवर पर पहुंचा । और जल आदि पीकर स्नान करके एक छायादार वृक्ष के नीचे सो गया । राजा के सोते ही वहां अनेक प्रेतों के साथ घूमते हुये प्रेतवाहन नाम का प्रेत आया । उसके शरीर में मात्र हड्डियां । चमढा और नसें ही नजर आती थी । वह भोजन की तलाश में घूम रहा था । तब अचानक राजा की नींद खुल गयी । उस अनोखे जीव को देखकर राजा ने धनुष उठा लिया । प्रेत अपने स्थान पर खडा रह गया । तब राजा ने पूछा । तुम कौन हो । कहां से आये हो । ये तुम्हारा विकृत शरीर कैसे हुआ है ।
प्रेत बोला । हे राजन । आपको देखकर मेरा प्रेतभाव स्वत समाप्त हो गया । राजा ने कहा । प्रेत ये वन अत्यन्त भयानक है । यहां पतंगे । मशक । मधुमक्खी । कबन्ध । शिरी । मत्स्य । कच्छप । गिरगिट । बिच्छू । भ्रमर । सर्प आदि अधोमुखी भयानक हवा चलती है । बिजली की आग दिखाई देती है । यहां बहुत से जीवों हाथी । शेर । टिड्डों । कीटों के शब्द तो सुनाई पड रहे हैं । पर दिखाई कोई नहीं देता । ये देखकर मुझे भय महसूस हो रहा है ।
तब प्रेत बोला । हे राजन । जिन मृतकों का अग्नि संस्कार । श्राद्ध । तर्पण । षटपिन्ड । दशगात्र । सपिन्डीकरण नहीं होता । जो लोग अकालमृत्यु । अपमृत्यु । और पापकर्मों से मरे हैं । वे सब अपने पापकर्मों से भटकते हुये प्रेतरूप मे यहां निवास करते हैं । इनको खाना पानी बडी मुश्किल से मिलता है । ये अत्यधिक कष्ट की अवस्था में पीडित रहते है । हे राजन । आप इनका और्ध्वदेहिक संस्कार करें । जिनका अपना कोई नहीं होता । उनका संस्कार राजा के द्वारा होता है । इससे राजा के बहुत से अशुभ नष्ट हो जाते हैं । हे राजन इस संसार में कौन किस का भाई है । कौन पुत्र है । कौन किसकी स्त्री है । सभी स्वार्थ के वशीभूत है । उसमें मनुष्य को विश्चास नहीं करना चाहिये । मनुष्य अपने कर्मों का भोग स्वयं करता है । धन । महल । परिवार । सब यहीं रह जाता है । भाई बन्धु भी शमशान तक ही साथ देते हैं । और शरीर को आग की भेंट कर दिया जाता है । जीव के सात सिर्फ़ उसका पाप पुण्य ही जाता है ।
प्रेत के मुंह से ऐसा सुनकर राजा को बेहद आश्चर्य हुआ । उसने कहा । हे प्रेत । मुझे तुम्हारे बारे में जानने की जिग्यासा हो रही है । सो तुम अपने बारे में कहो ।
तब प्रेत ने कहा । हे राजन । मृत्यु से पूर्व में विदिशा नामक नगर में रहता था । और वैश्य जाति में उत्पन्नहुआ था । उस जन्म में मेरा नाम सुदेव था । मैं खूब दान करता था । और देवताओं को हव्य और पितरों को कव्य नियम से देता था । जिससे वे संतुष्ट रहते थे । किन्तु मेरे कोई संतान न होने से मेरे सभी पुन्यकार्य निष्फ़ल हो गये । और मेरे मित्र । बन्धु बान्धव । द्वारा भी मेरा और्ध्वदेहिक संस्कार न होने पर मेरा प्रेतत्व स्थिर हो गया । हे राजन । एकादशा । त्रिपाक्षिक । षणमासिक । वार्षिक तथा मासिक जो श्राद्ध होते हैं । इनकी कुल संख्या सोलह है । जिस मृतक के लिये ये श्राद्ध नहीं किये जाते । उसका प्रेतत्व अन्य सैकडों श्राद्ध करने पर भी नहीं जाता । हे राजन । इस संसार में राजा को सभी वर्णों का बन्धु कहा गया है । इसलिये आप मेरा संस्कार करके मुझे इस प्रेतत्व से मुक्ति प्रदान करायें । इस हेतु मैं आपको ये मणि देता हूं । हे राजन । मेरे सपिण्डों और सगोत्रों ने मेरे लिये वृषोत्सर्ग नहीं किया । इसी से मैं प्रेतयोनि को प्राप्त होकर । भूख प्यास से बेहाल रहता हूं । इसलिये मेरा शरीर विकृत और मांसरहित हो गया है । हे राजन मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि प्रेतत्व के इस कष्ट से आप मेरा उद्धार करायें ।
राजा को जिग्यासा हुयी । उसने कहा । हे प्रेत । कोई मनुष्य किसी तरह जान सकता है । कि उसके कुल का
कोई प्रेत हो गया है । और वह इस प्रेतत्व से मुक्त कैसे हो सकता है ?
प्रेत बोला । हे राजन । लिंग और पीडा से प्रेत योनि का पता चलता है । इस प्रथ्वी पर प्रेत द्वारा उत्पन्न कुछ पीडाओं को मैं आपको बता रहा हूं । जब स्त्रियों का ऋतुकाल निष्फ़ल हो जाता है । वंश की वृद्धि नहीं होती । अल्पायु में किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है । तो उसे प्रेत पीडा मानना चाहिये । हे राजा । जब अचानक किसी की जीविका छिन जाती है । प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है । एकाएक घर में आग लग जाये । घर में नित्य कलह रहने लगे । मिथ्या आरोप लगे । राजयक्ष्मा ( t b ) जैसे रोग हों । पुराना जमा जमाया व्यापार नष्ट हो जाय । हर तरफ़ से हानि हो । अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि नष्ट हो जाय । अपनी स्त्री अनुकूल न रहे । ये सब प्रेत पीडा के लक्षण हैं । हे राजन । अच्छे भले में अजीब सी कोई बात महसूस हो । ये सबसे बडा प्रेत पीडा का लक्षण हैं । प्रेतत्व से मुक्ति हेतु मृतक का वृषोत्सर्ग कराना आवश्यक होता है । यह कार्य कार्तिक की पूर्णिमा या आश्विनमास के मध्यकाल में करते हैं । ये संस्कार रेवती नक्षत्र से युक्त पुण्य तिथि में भी कर सकते हैं । उत्तम ब्राह्मणों का निमन्त्रण करके । विधिवत अग्निस्थापना करके । वेदमन्त्रों से होम करके । बहुत से ब्राह्मणों को आप इस मणि से प्राप्त धन से भोजन कराना । इस तरह मुझे इस स्थायी प्रेतत्व से मुक्ति प्राप्त हो जायेगी ।
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राजा ने अपने नगर में पहुंचकर ऐसा ही किया । वृषोत्सर्ग संस्कार पूरा होते ही वह प्रेत तत्काल स्वर्ण के समान देह वाला हो गया । उसने राजा के सामने उपस्थित होकर उसे प्रणाम किया । और राजा की प्रशंसा करते हुये कृतग्यता व्यक्त की । इसके बाद वह अपने पुण्यकर्मों के फ़लस्वरूप तत्काल स्वर्ग चला गया ।

14 मनु और उनके मन्वन्तर

पूर्वकाल में सबसे पहले स्वायम्भुव मनु हुये । उनके आग्नीध आदि अनेक पुत्र हुये । मरीचि । अत्रि । अंगिरा । पुलत्स्य । पुलह । क्रतु । वसिष्ठ । ये इस मन्वन्तर के सप्त ऋषि हुये । इस मन्वन्तर में जय । अमित । शुक्र । याम देवताओं के बारह गण थे । जिनमें चार सोमपायी थे । इस में विश्वभुक और वामदेव इन्द्रपद से प्रसिद्ध हुये । इस समय वाष्कलि नाम का दैत्य हुआ । जो विष्णु द्वारा मारा गया ।
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दूसरे । स्वारोचिष । मनु थे । इनके चैत्रक । विनत । कर्णान्त । विधुत । रवि । बृहदगुण । और नभ नाम के पुत्र हुये । ऊर्ज । स्तम्ब । प्राण । ऋषभ । निश्चल । दत्तोलि । और अर्वरीवान ये सात उस समय के सप्त ऋषि थे । द्वादश । तृषित । पारावत । देवगण हुये । विपश्चित नाम का इन्द्र था । उस समय । पुरुकृत्सर । दैत्य हुआ । जिसे विष्णु ने हाथी का रूप धारण कर मारा ।
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तीसरे औत्तम मनु हुये । इन के अज । परशु । विनीत । सुकेत । सुमित्र । सुबल । शुचि । देव । देवावृध ।महोत्साह । अजित । नामक पुत्र हुये । इस समय के सप्त ऋषि । रथौजा । ऊर्ध्वबाहु । शरण । अनघ ।मुनि । सुतप । और शंकु थे । वशवर्ति । स्वधाम । शिव । सत्य । प्रतर्दन । ये पांच देवगण हुये । इस प्रत्येक गण में बारह देवता थे । स्वशान्ति नाम का इन्द्र हुआ । प्रलम्बासुर नाम का उस समय दैत्य हुआ । जिसेविष्णु ने । मत्स्यावतार लेकर मारा ।
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चौथे । तामस मनु । हुये । इनके जानुजंड्घ । निर्भय । नवख्याति । नय । विप्रभृत्य । विविक्षिप । दॄढेषुधि ।
प्रस्तलाक्ष । कृतबन्धु । कृत । ज्योतिर्धाम । पृथु । काव्य । चैत्र । चेताग्नि । हेमक । नाम के पुत्र हुये । इस समय । सुरागा । सुधी आदि सप्त ऋषि हुये । इस समय हरि आदि देवताओं के चार गण हुये । प्रत्येक गण मेंपच्चीस देवता थे । शिवि नाम का इन्द्र हुआ । भीमरथ नाम का दैत्य हुआ । कूर्मावतार द्वारा इसका वध हुआ ।
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पांचवें रैवत मनु थे । इनके महाप्राण साधक । वनबन्धु । निरमित्र । प्रत्यंग । परहा । शुचि । दृढवृत । केतुश्रंग ऋषि थे । वेदश्री । वेदबाहु । ऊर्ध्वबाहु । हिरण्यरोम । पर्जन्य । सत्यनेत्र । स्वधाम ये सात सप्तऋषिथे । इस समय अभूतरजस । अश्वमेधस । बैकुन्ठ । अमृत । ये चार देवगण हुये । जिनमें चौदह देव हुये । विभु नाम का इन्द्र था । शान्त नाम का दैत्य हुआ । विष्णु ने हंसरूप धारणकर उसका वध किया ।
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छठवें । चाक्षुष । मनु हुये । इनके उरू । पुरू । महाबल । शतधुम्न । तपस्वी । सत्यबाहु । कृति । अग्निष्णु ।
अतिरात्र । सुधुम्न । नर नाम के पुत्र हुये । हविष्मान । उत्तम । स्वधामा । विरज । अभिमान । सहिष्णु ।
मधुश्री । ये उस समय के सप्तऋषि थे । आर्य । प्रभूत । भाव्य । लेख । पृथुक ये पांच देवगण हुये । इनमें आठ आठ देवता थे । मनोजव नाम का इन्द्र हुआ । महाकाल दैत्य हुआ । जिसे विष्णु ने अश्वरूप धारणकर मारा ।
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सातवें वैवस्वत मनु हुये । इनके इक्ष्वाकु । नाभाग । धृष्ट । शर्याति । नरिष्यन्त । पांसु । नभ । नेदिष्ट । करूष । पृषध्न । सुधुम्न नाम के पुत्र हुये । इस समय । अत्रि । वसिष्ठ । जमदग्नि । कश्यप । गौतम । भरद्वाज । विश्वामित्र ये सप्तऋषि हुये । इनमें उनचास मरुदग्न । बारह आदित्य । ग्यारह रुद्र । आठ वसु । दो अश्विनी
कुमार । दस विश्वेदेव । दस आंगिरसदेव । नौ देवगण थे । तेजस्वी नाम का इन्द्र हुआ । हिरण्याक्ष नाम का
दैत्य हुआ । जिसे वराह अवतार ने मारा ।
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आठवें । सावर्णि मनु हुये । इनके विजय । आर्ववीर । निर्मोह । सत्यवाक । कृति । वरिष्ठ । गरिष्ठ । वाच ।
संगति नामक पुत्र थे । इस समय अश्वत्थामा । कृपाचार्य । व्यास । गालव । दीप्तिमान । ऋष्यश्रंग । परशुराम । ये सप्त ऋषि हुये । सुतपा । अमृताभ । मुख्य ये तीन देवगण हुये । विरोचन का पुत्र बलि इन्द् हुआ । विष्णु द्वारा तीन पग भूमि मांगने पर इन्द्र पद छोडकर सिद्धि प्राप्त हुआ ।
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नवें मनु । वरुण के पुत्र दक्षसावर्णि । धृतिकेतु । दीप्तिकेतु । पच्चहस्त । निरामय । पृथुश्रवा । बृहदधुम्न । ऋचीक । बृहदगुण इनके पुत्र थे । इस समय मेधातिथि । धुति । सवस । वसु । ज्योतिष्मान । हव्य । कव्य । विभु ये सप्तऋषि हुये । पर । मरीचिगर्भ । सुधर्मा । ये तीन देवता हुये । कालकाक्ष नामका राक्षस होगा ।
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दसवें मनु धर्म के पुत्र । धर्मसावर्णि होंगे । सुक्षेत्र । उत्तमौजा । भूरिश्रेण्य । शतानीक । निरमित्र । वृषसेन ।
जयद्रथ । भूरिधुम्न । सुवर्चा । शान्ति । इन्द्र इनके पुत्र होंगे । इस समय अयोमूर्ति । हविष्मान । सुकृति । अव्यय । नाभाग । अप्रतिमौजा । सौरभ ये सप्तऋषि हुये । प्राण नामक देवताओं के सौ गण विधमान होगे । इन्द्र शान्त नाम का होगा । दैत्य बलि होगा । जिसको विष्णु गदा से मारेंगे ।
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ग्यारहवें मनु रुद्र के पुत्र । रुद्रसावर्णि होंगे । इनके पुत्र सर्वत्रग । सुशर्मा । देवानीक । पुरु । गुरु । क्षेत्रवर्ण । दृढेषु । आर्द्रक । और पुत्र ( नाम ) होंगे । इस समय । हविष्मान । हविष्य । वरुण । विश्व । विस्तर । विष्णु । अग्नितेज ये सप्तऋषि हुये । विहंगम । कामगम । निर्माण । रुचि । ये चार देवगण होंगे । एक गण में तीस देवता होंगे । इन्द्र वृषभ नाम का होगा । दैत्य दशग्रीव होगा । लक्ष्मी के रूप मे विष्णु उसको मारेंगे ।
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बारहवें मनु । दक्ष के पुत्र । दक्षसावर्णि होंगे । इनके देववान । उपदेव । देवश्रेष्ठ । विदूरथ । मित्रवान । मित्रदेव । मित्रबिन्दु । वीर्यवान । मित्रवाह । प्रवाह नाम के पुत्र हुये । इस समय । तपस्वी । सुतपा । तपोमूर्ति । तपोरति । तपोधृति । धुति । तपोधन ये सप्तऋषि हुये । स्वधर्मा । सुतपस । हरित । रोहित । ये देवगण होंगे । प्रत्येक गण में दस देव होंगे । ऋतधामा नाम का इन्द्र होगा । दैत्य तारकासुर होगा । विष्णु नपुंसक रूप में उसका वध करेंगे ।
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तेरहवें मनु रौच्य होंगे । इनके चित्रसेन । विचित्र । तप । धर्मरत । धृति । सुनेत्र । क्षेत्रवृति । सुनय नाम के पुत्र हुये । इस मन्वन्तर में । धर्म । धृतिमान । अव्यय । निशारूप । निरुत्सक । निर्मोह । तत्वदर्शी ये सप्तऋषि हुये । सुरोम । सुधर्म । सुकर्म तीन देवगण होंगे । प्रत्येक में तैतीस देवता होंगे । दिवस्पति नाम के इन्द्र होंगे । त्वष्टिभ नाम का दैत्य होगा । विष्णु मयूर रूप में उसको मारेंगे ।
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चौदहवें मनु । श्री हरि के पुत्र ।भौत्य होंगे । इनके । उरू । गम्भीर । धृष्ट । तरस्वी । ग्राह । अभिमानी । प्रवीर । जिष्णु । संक्रन्दन । तेजस्वी । दुर्लभ नाम के पुत्र होंगे । इस समय । अग्नीध्र । अग्निबाहु । मागध । शुचि । अजित । मुक्त । शुक्र ये सप्तऋषि होंगे । चाक्षुषि । कर्मनिष्ठ । पवित्र । भ्राजिन । वचोवृद्ध । ये पांच देवगण होंगे । प्रत्येक गण में सात देवता होंगे । शुचि नाम के इन्द्र होंगे । महादैत्य नाम का दैत्य होगा । विष्णू उसका वध करेंगे

शुक्रवार, जुलाई 30, 2010

आईये मृत्यु को जानें ..?

जिस प्रकार जोंक तिनके से तिनके का सहारा लेकर आगे बडती है । उसी प्रकार जीवात्मा एक शरीर के बाद दूसरे शरीर का आश्रय लेती है । जीवात्मा को मृत्यु के बाद यम की यातनाओं को भोगना पडता है । उसके बाद उसे दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है ।
एक बार विनता पुत्र गरुण को ब्रह्माण्ड के सभी लोक देखने की इच्छा हुयी । उन्होनें पाताल । प्रथ्वी । तथा स्वर्गलोक को देखा । बैकुन्ठ में न रजोगुण की प्रवृति है । न तमोगुण । रजोगुण और तमोगुण से मिश्रित
सत्वगुण प्रवृति भी वहां नहीं है । केवल शुद्ध सत्वगुण ही वहां है । माया भी नहीं है । वहां किसी का विनाश नहीं होता । राग द्वेश आदि छह विकार भी नहीं हैं । गरुण ने त्रिलोकी का भ्रमण किया और उनमें स्थित जगत के सभी स्थावर और जंगम प्राणियों को देखा ।
सब लोकों की अपेक्षा भूलोक प्राणियों से अधिक परिपूर्ण है । सभी योनियों में मानव योनि में ही भोग और मोक्ष का आश्रय है ।
मनुष्य अनित्य है । और समय पूरा होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है । परन्तु मृत्यु के समय जीव कहां से बाहर निकलता है । प्राणी के शरीर में किस छेद से । प्रथ्वी । जल । वायु । अग्नि । आकाश । और मन निकलते हैं । इसी तरह पांच कर्मेंद्रियां । पांच ग्यानेन्द्रियां । पांच वायु । कहां से निकलते है ? अहंकार । लोभ । मोह । तृष्णा । काम ये शरीर के पांच चोर कहां से निकलते है ।
** गोबर आदि से विना लिपी हुयी भूमि पर लिटाये गये मरणासन्न व्यक्ति में यक्ष । पिशाच । राक्षस कोटि के क्रूर कर्मी प्रविष्ट हो जाते हैं । अतः जल मन्डल वाली भूमि पर लिटाना चाहिये । ये लिपी पुती पूजा वाली भूमि होती है । मण्डल विहीन भूमि पर प्राण त्याग करने पर जीवात्मा किसी भी उमर का हो । उसको अन्य योनि प्राप्त नहीं होती । ये जीवात्मा वायु के साथ भटकती रहती है । इसके लिये श्राद्ध या जल तर्पण का भी विधान नहीं है ।
*** यदि ब्राह्मण क्षत्रिय । वैश्य शूद्र । स्त्री । आतुर व्यक्ति के प्राण निकलने में कठिनाई हो रही हो । तो नमक का दान करना चाहिये ।
** जब सामान्य रूप में मृत्यु आती है । उसके कुछ समय पूर्व दैव योग से शरीर में कोई रोग उत्पन्न हो जाता
है । इन्द्रिया विकल हो जाती है । बल । ओज । गति । शिथिल हो जाते हैं । जीव को करोडो बिच्छुओं के एक साथ काटने का अनुभव होता है । यह मृत्यु के लक्षण हैं । इसके बाद चेतनता समाप्त होकर जडता आ जाती है । यमदूत आकर उसके पास खडे हो जाते हैं । और उसके प्राणों को जबरदस्ती अपनी और खींचते हैं । उस समय प्राण कन्ठ में आ जाते हैं । मरने वाले का रूप वीभत्स होने लगता है । मुंह लार से भर जाता है और मुंह से झाग सा निकलने लगता है । इसके बाद शरीर के भीतर रहने वाला अंगूठे के आकार का पुरुष हाहाकार करता हुआ । अपने घर आदि को देखता हुआ । यमदूतों द्वारा यमलोक ले जाया जाता है ।
मृत्यु के समय शरीर में बहने वाला वायु प्रकुपित होकर तीव्र गति हो जाता है । वायु के सहारे से अग्नि भी
प्रकुपित हो जाता है । ये बिना भोजन आदि के पैदा हुयी अतिरिक्त गर्मी जीव के मर्म स्थानों को भेदना शुरू कर देती है । इससे प्राणी को अत्यधिक कष्ट होता है । परन्तु भक्त और भोगों से विरक्त रहे जीव में अधोगति का निरोध करने वाला । उदान वायु ऊर्ध्व गति वाला होता है ।
सत्य बोलने वाले । प्रीति का भेदन न करने वाले । आस्तिक । श्रद्धावान ।इनकी सुखपूर्वक मृत्य होती है । ईर्ष्या । काम । द्वेश । की वजह से भी जो अपने धर्म का त्याग नहीं करते । वे सुख से मरते हैं । मोह । अग्यान का उपदेश करने वाले मृत्यु के समय महा अंधकार में फ़ंस जाते हैं । झूठी गवाही । झूठ बोलने वाले । विश्वासघाती । वेदों की निंदा करने वाले । मूर्छा रूपी मृत्य को प्राप्त करते हैं । ऐसे जीव को लेने लाठी । मुगदर लिये । दुर्गन्ध वाले । दुरात्मा यमदूत आते हैं । इन्हें देखकर जीव भय से कांपता है । उस समय रक्षा के लिये । माता । पिता । पुत्र आदि को पुकारता है । पर आवाज नहीं निकलती । सांस तेज हो जाती है । आंखे नाचने लगती हैं । मुंह सूखने लगता है । बेहद वेदना से शरीर का त्याग करता है । इसके वाद ही उसे देखकर घृणा होने लगती है ।
ब्राह्मण की हत्या करने वाले को हिरन । घोडा । सूअर । ऊंट की योनि प्राप्त होती है । सोने की चोरी करने वाला । कीडा ( कृमि ) कीट । पतंगा योनि में जाता है ।
गुरुपत्नी के साथ सहवास करने वाला । तृण । लता । और गुल्म योनि में जाता है । ब्रह्मघाती । टी.वी का रोगी । शरावी । विकृत दांत । सोने का चोर । कुनखी । गुरुपत्नी गामी । चर्मरोगी । इसके अतिरिक्त जैसे पापी की संगति करता है । वैसा ही रोग होता है । एक वर्ष पापी का साथ करने से । वार्तालाप । स्पर्श । निश्वांस । साथ आवागमन । साथ बैठना । साथ भोजन । अध्यापन तथा योनि सम्बन्ध से । बिना पाप किये ही पाप लग जाते हैं । पराई स्त्री के साथ सहवास और ब्राह्मण का धन चुराने से । अगले जन्म में वन अथवा निर्जन देश में रहने वाले ब्रह्मराक्षस की योनि प्राप्त होती है । रत्न की चोरी करने वाला नीचयोनि में । वृक्ष के पत्तों और गन्ध की चोरी वाला । छछूंदर वनता है । अनाज की चोरी करने वाला चूहा । यान चुराने वाला ऊंट । फ़ल चुराने वाला बन्दर । बिना मन्त्रोचार के भोजन करने वाला । कौआ । घर का सामान चुराने वाला गिद्ध । शहद की चोरी करने पर मधुमक्खी । फ़ल की चोरी गिद्ध ।
गाय की चोरी करने पर गोह । अग्नि की चोरी पर बगुला । स्त्रियों का वस्त्र चुराने पर सफ़ेद कुष्ठ रोग । और रस चुराने पर भोजन में अरुचि । कांसे की चोरी करने वाला हंस । दूसरे का धन हरण करने वाला अपस्मार का रोगी । गुरुहन्ता क्रूरकर्मी बौना । पत्नी का त्याग करने वाला शब्दवेधी । देवता । ब्राह्मण का धन चुराने वाला एवं दूसरे का मांस खाने वाला पान्डु रोगी होता है । भक्ष्य अभक्ष्य का विचार न करने वाला गण्डमाला नामक महारोग से पीडित होता है । दूसरे की धरोहर अपहरण करने वाला काना ।
स्त्री के बल पर जीने वाला लंगडा । पति परायण पत्नी का परित्याग करने वाला । दुर्भाग्यशाली । अकेले मिठाई खाने वाला वातगुल्म का रोगी । ब्राह्मण पत्नी के साथ सहवास करने वाला सियार । शय्या चुराने वाला दरिद्र । वस्त्र चुराने वाला पतंगा । ईर्ष्यालु जन्म से अन्धा । दीपक चुराने वाला कपाली । मित्र का हत्यारा उल्लू । पिता आदि श्रेष्ठ जनों का निदक टी . वी का मरीज । झूठ बोलने वाला हकला । झूठी गवाही देने वाला जलोदर का रोगी । विवाह में विघ्न पैदा करने वाला मच्छर ।
इसको पुनः मनुष्य योनि प्राप्त होने पर होठ कटा । चौराहे पर मल मूत्र त्याग करने वाला अपशूद्र । कन्या को दूषित करने वाला । मूत्रकृच्छ और नपुंसक । वेद बेचने वाला व्याघ्र । अयाज्य का यग्य कराने वाला सूअर । अभक्ष्य खाने वाला बिलौटा । वन जलाने वाला जुगनू । बासी भोजन करने वाला कीडा । ईर्ष्यालु भौंरा । घर आदि जलाने वाला कोढी । गाय की चोरी सर्प । अन्न की चोरी अजीर्ण रोग । जल की चोरी मछली । दूध की चोरी बलाकिका । ब्राह्मण को बासी भोजन दान करना कुबडा । फ़ल चुराने वाले की संतान मर जाती है । अकेले ही खानेवाला संतानहीन । सन्यास आश्रम का त्याग करने वाला पिशाच । जल की चोरी चातक । पुस्तक चोरी जन्म से अन्धा । देने की प्रतिग्या कर न देने वाला सियार । झूठी निंदा करने वाला कछुआ । फ़ल बेचने वाला भाग्यहीन । शूद्र कन्या से विवाह करने वाला ब्राह्मण भेडिया । अग्नि को पैर से स्पर्श करने वाला बिलौटा । जीवों का मांस खाने वाला रोगी । जल के स्रोत को नष्ट करने वाला मछली । हरि चर्चा । साधु वाणी न सुनने वाला । कर्णमूल रोगी । दूसरे का भोजन छीनने वाला मन्दबुद्धि । घमण्ड से धर्माचरण करने वाला । गज चर्म का रोगी । शिव के धन और निर्माल्य का सेवन करने वाला शिश्न रोग । ऐसा करने वाली स्त्रियां पाप की भागी और ऐसे जीवों की पत्नी बनती हैं । ऐसे कर्मों से प्राप्त हुआ नरक भोगने के बाद ये योनियां मिलती हैं ।

विभिन्न नरकों का वर्णन

लेखकीय - अक्सर इंसान कहता है कि नरक स्वर्ग जो कुछ है । यहीं है । आईये देखते हैं । नरक क्या है ?
*****रौरव नरक । अन्य नरकों की अपेक्षा प्रधान है । झूठी गवाही देने वाला । झूठ बोलने वाला रौरव नरक मेंजाता है । इसका विस्तार दो हजार योजन यानी चौबीस हजार किलोमीटर है । एक योजन में चार कोस होते हैं । एक कोस में दो मील होते हैं । एक मील में डेढ किलोमीटर होता है । इस तरह एक योजन में बारह किलोमीटर हुये । शास्त्रों में लोकों की दूरी का वर्णन योजन में किया गया है । तीन चार फ़ुट की गहराई में वहां दहकते हुये अंगारो से भरा गढ्ढा है । वहां की भूमि भी अत्यन्त तप्त है । उस जलती आग में पापी इधर उधर भागता है ।पैरों में छाले पड जाते हैं । इस प्रकार वह पैर उठा उठाकर चलता है । इस प्रकार हजार योजन यानी बारह हजार किलोमीटर पार करने के बाद पाप शुद्धि के लिये दूसरे नरक में ले जाते हैं ।
महारौरव नरक । पांच हजार योजन यानी साठ हजार किलोमीटर में फ़ैला हुआ है । भूमि की बिजली के समान तांबे जैसी दिखने वाली इसकी भूमि है । जिसके नीचे सदा आग जलती है । यह महा डरावनी दिखती है । इसमें पापी के हाथ पैर बांधकर लुढका दिया जाता है । इसमें लुढककर ही चलना पडता है । रास्ते में कौआ । बगुला । भेडिया । उल्लू मच्छर । बिच्छू । आक्रमण करते हैं । इससे पापी की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । और वह घबराकर बार बार चिल्लाता है । इसी स्थिति में हजारों वर्ष बीत जाने पर उसकी यहां से मुक्ति होती है ।
अतिशीत । नामका नरक अत्यन्त शीतल है । अत्यन्त अंधकार से युक्त इस नरक में पापिओं को यमदूतों द्वारा लाकर बांध दिया जाता है । वहां लाये गये पापी एक दूसरे का आलिंगन करके ठंड से बचने का प्रयास करते हैं । यहां भूख प्यास अधिक लगती है । वहां पर्वतों को उडा सके ऐसी वायु चलती है । जो शरीर की हड्डियों को तोड देती है । प्राणी भूख लगने पर मज्जा । रक्त । और गली हड्डियां खाता है । इस प्रकार के और भी अनेकों कष्ट हैं ।
निकृन्तन । इस नरक में कुम्हार के चाक के समान चक्र चलते रहते हैं । इनके ऊपर पापियो को खडा करके
यमदूतों द्वारा उंगली में स्थित कालसूत्र द्वारा सिर से पैर तक छेदा जाता है । उनके शरीर के सैकडों भाग हो जाते हैं ।फ़िर वापस जुड जाते हैं पर उनका प्राणान्त नहीं होता । इस प्रकार हजारों वर्ष तक चक्कर लगाने के बाद जब जीव के पापों का विनाश हो जाता है । तब उसे नरक से मुक्त करते हैं ।
अप्रतिष्ठ । इस नरक में चक्र और रहट लगा रहता है । वह हजारों वर्ष बाद ही रुकता है । पापी इस पर बांध दिये जाते हैं । वे घट की भांति घूमते रहते हैं । खून की उल्टी करते हुये उनकी आंते मुख की ओर से बाहर आ जाती हैं । और नेत्र आंतो में घुस जाते हैं ।
असिपत्रवन । ये नरक एक हजार योजन में फ़ैला हुआ है । इसकी भूमि अग्नि से व्याप्त होकर निरंतर जलती
है । इस भयंकर नरक में सात सूर्य निरंतर तीव्रता के सात तपते हैं । जिसके संताप से पापी जलते रहते हैं ।
इसी नरक के मध्य एक चौथाई भाग में " शीतस्निग्धपत्र " नाम का वन है । उसमें वृक्षों से टूटकर गिरे पत्ते और फ़ल पडे रहते हैं । इस वन में मांसाहारी बलबान कुत्ते विचरण करते रहते हैं । अत्यन्त शीत और छायायुक्त उस स्थान को देखकर भूख प्यास और ताप से पीडित प्राणी रोते हुये वहां जाते हैं । जलती हुयी प्रथ्वी से पापियों के दोनों पैर जल जाते हैं । अत्यन्त शीतल वायु बहने लगती है । जिसके कारण उन पापियों के ऊपर तलवार की धार के समान पत्ते गिरते हैं । इससे उनके शरीर छिन्न भिन्न हो जाते हैं । और फ़िर कुत्ते आक्रमण कर देते हैं । और उन का मांस नोच नोचकर खाने लगते हैं ।
तप्तकुम्भ । इस नरक में चारों ओर अत्यन्त गरम घडे हैं । जिनके चारों ओर अग्नि जलती रहती है । इसमें
उबलता हुआ तेल ओर लोहे का चूर्ण पडा होता है । पापी को ओंधा मुख करके डाल दिया जाता है । जिस से पापिओं की मज्जा गलती है । और अंग फ़ूटने लगते हैं । इस तरह पापियों का काडा सा बना दिया जाता है । यमदूत नुकीले हथियारों से उनकी खोपडी । आंख । तथा हड्डियों को छेदते हैं । गिद्ध झपट्टा मारकर पापियों को नोचते हैं और फ़िर उसी में छोड देते हैं । इसी स्थिति में यमदूत कष्ट देते रहते हैं ।
इस प्रकार ये सात मुख्य नरक हैं । अन्य नरकों के नाम इस प्रकार हैं ।
रोध । सूकर । ताल । महाज्वाल । शवल । विमोहन । कृमि । कृमिभक्ष । लालाभक्ष । विषज्जन । अधःशिर ।
पूयवह । रुधिरान्ध । विडभुज । वैतरणी । अग्निज्वाल । महाघोर ।संदंश । अभोजन ।तमस । कालसूत्र ।
लौहतापी । अभिद । अवीचि आदि ।

सोमवार, जुलाई 26, 2010

बहुत से सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं देता..1

मार्च 2010 में जब मैंने अध्यात्म के गूढ रहस्यों के आदान प्रदान के उद्देश्य से ब्लागिंग शुरू की थी और अपने ऐसे ही विचार वाले इंटरनेटी मित्रों की तलाश में सर्फ़िंग कर रहा था । मुझे एक ब्लाग मिला । जिसका नाम " नास्तिकों का ब्लाग " था । जिसमें नास्तिक लोगों को आमन्त्रित किया गया था । और उस समय दस के लगभग उसमें (शायद ) सदस्य भी बन चुके थे । जिनमें मैं किसी से भी वाकिफ़ न था ।
उस समय तक ब्लाग में सिर्फ़ एक आमन्त्रण वाली पोस्ट ही प्रकाशित हुयी थी । खैर..पढकर बेहद हंसी आयी । ये लोग नास्तिकता का क्या अर्थ लगाते हैं और आगे क्या धमाका करने वाले हैं । इसकी कल्पना मेरे लिये बेहद दिलचस्प थी । मैंने इसी पहली पोस्ट में विपक्ष यानी आस्तिकता
के रूप में अपना पक्ष रखने हेतु comment किया । इसके बाद जीवन की आपाधापी और अपने दस ब्लाग्स पर काम करने के कारण मैं " नास्तिकों का ब्लाग " को लगभग भूल ही गया । लेकिन पिछली 20 july को सर्फ़िंग के समय ये ब्लाग अक्समात मेरे सामने आ गया । और मैंने april to july इसको पोस्ट और कमेंट के साथ पूरा पढा । ज्यादातार धर्म और अध्यात्म विषयक चर्चा के रूप में इस ब्लाग में मैंने क्या पाया और उस पर मेरा नजरिया क्या है । आईये आपके साथ बांटता हूं । कोई संजय ग्रोवर जी है । जिन्हें मैं इसी ब्लाग @ नास्तिकों का ब्लाग , के लेखों द्वारा ही जितना जान पाया । जानता हूं । लेकिन मेरी बात संजय जी को लेकर नहीं तथ्यों को लेकर हैं । और तथ्य ब्लाग में स्पष्ट हैं । अतः भ्रम की स्थिति का कोई प्रश्न ही नहीं है । मैंने इस ब्लाग से मुख्य प्रश्नों या तथ्यों को छांटा और अपनी मोटी बुद्धि से उनको समझने की कोशिश की । आईये आप भी देखें ... संजय जी को जब अपनी नास्तिकता का अहसास हुआ और...
प्रश्न - जब मैने ईश्वर और धर्म की सत्ता को मानने से इंकार किया तो कुछ लोगों ने कहा भ्रमित हो गया ।ईश्वर के अस्तित्व को साबित करने के लिए लोग तमाम तर्क - बितर्क करने लगे.फिर मेरे न मानने पर कहा - धार्मिक हउवे बिना आदमी अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ?
उत्तर - संजय जी आप एक नास्तिक के तौर पर । और आपको समझाने वाले आस्तिक के तौर पर । दोनों की ही स्थिति एक जैसी है । और दोनों को ही आस्तिक या नास्तिक होने का कोई लाभ नहीं है । हां थोडा सा तो है । पर वो ना के बराबर है । लेकिन एक आश्चर्य की भांति विपरीत स्थिति होते हुये भी फ़ल में समान ही है ? जरा सोचिये ?
आपने ईश्वर को देखा नहीं । उसकी कहीं किसी प्रकार की कोई भूमिका आपको नजर नहीं आती । उसका
मानवीय जीवन में आपको कोई सहयोग नजर नहीं आता । ऐसे ही कुछ और मिलते जुलते कारण है । जिनकी वजह से आप नास्तिक हैं । जरा सोचिये ? ठीक यही स्थिति क्या तमाम आस्तिकों की नहीं है । उन्होंने कौन सा ईश्वर को देखा है । वे किसी कार्य में ईश्वर की भूमिका के वारे में कोई ठोस दावा किस बिना पर कर सकते हैं । ईश्वर वास्तव में है । इस बात का प्रमाणिक सबूत वे क्या दे सकते हैं । यानी ईश्वर को लेकर जितना अंधेरे में आप ( नास्तिक ) हैं । उतने ही तमाम आस्तिक ? आप उसके न होने को साबित नहीं कर सकते । और आस्तिक उसके होने को साबित नहीं कर सकते । "धार्मिक हउवे बिना आदमी अच्छा इन्सान नहीं हो सकता ? " यह बात काफ़ी हद तक सत्य है । संजय जी मुझे नहीं मालूम आप सज्जन स्वभाव के हैं । या खलनायक ? जरा फ़िर से सोचिये ? एक सीधे साधे बच्चे को नियन्त्रण में रखने के लिये मां बाप को कोई कोशिश नहीं करनी पडती । कोई परेशानी नहीं होती । वहीं एक शरारती और उदंड बच्चे को काबू में रखने के लिये मां बाप को क्या क्या पापड बेलने पडते हैं ? ये धार्मिक हउवा । कर्मों का दन्ड । और समय समय पर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण । दुष्ट स्वभाव के लोगों को नियन्त्रण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । जरा सोचिये । भगवान की वो " अदृश्य लाठी " काम न कर रही होती । और आप जैसे विचार के लोग । जो मृत्यु के बाद जीवन नहीं मानते । पाप पुण्य नहीं मानते । खुद को ही सब कुछ मानते हैं ।
यानी ऐसे ही विचार और पक्की धारणा किसी दुष्ट स्वभाव के व्यक्ति की हो जाय । तो वो निर्भय होकर सीधे सरल और निर्बल लोगों का जीना मुश्किल कर देगा । क्योंकि भरपूर ऐशोआराम । कामक्रीडा हेतु अनेकों बालाएं । बेशुमार धन दौलत । मनमर्जी से जीना । बिना मेहनत के मजे लूटना । कौन नहीं चाहता ? अब जबकि उसे पहले से मालूम हो कि बाद में इसका अच्छा बुरा कोई फ़ल ही नहीं होगा और ये एक ही जिंदगी है । यानी जितने मजे लूट सको लूटो । तो सोचिये वो किस स्तर की मनमानी करेगा ? इसलिये आप व्यवहारिक तौर पर ये परीक्षण करके देखिये । कि इस " धार्मिक हउवा " की समाज को नियन्त्रण करने में कितनी महत्वपूर्ण और प्रभावशाली भूमिका है ।
प्रश्न - कुछ का कहना है ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म में कई बुराइयों का प्रवेश कराया है. तर्क था कि ईश्वर है बस उसेखोजो । धर्म को जानने की जरुरत है,कुछ लोगों ने इस गन्दा बनाया है ।
उत्तर - यह बात एकदम सत्य है । पर उस रूप में नहीं जिस रूप में सब जानते हैं । " वास्तविक ब्राह्मण क्या होता है ? " बुराई क्या है । इस विषय पर मैं अपने लेखों में काफ़ी लिखा है । फ़िर भी " वास्तविक ब्राह्मण क्या होता है ? " इस विषय पर मैं एक विस्त्रत लेख समय मिलने पर आने वाले समय में लिखूंगा ।
लेकिन फ़िलहाल...ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म में कई बुराइयों का प्रवेश ..पर बात करते हैं । बुराई किस क्षेत्र में नहीं है और कब नहीं थी । चलिये गिनते हैं । दूध वाला भेंस को " आक्सीटोक्सिन " लगाकर आपको बुरा दूध पिला रहा है । किसान मानव के लिये अत्यधिक जहरीले कीटनाशकों और हानिकारक खादों का प्रयोग करते हुये । अनाज । सब्जी आदि के माध्यम से बुराई की सप्लाई कर रहा है । वैश्यावृति को अपना चुकी " नगरवधुएं " समाज का निरंतर पतन कर रही हैं । तो ये सब तो आपके जीवन को वास्तविक रूप में हानि पहुंचा रहे है । धर्म आप खाते पीते तो नहीं है । नहीं पसन्द आ रहा । मत अपनाइये । कोई आपको वाध्य तो नहीं कर रहा । आप लोगों को बताते हैं कि मैं नास्तिक हूं । किसी पूजा करने वाले ने आपसे जाकर वोला कि वो आस्तिक है ? अगर वोला होगा तो वो व्यक्ति दुर्लभ ही कहलायेगा ? पुलिस । शासन । प्रशासन । केन्द्रीय शासन । समाज । घर । परिवार । वातावरण । मन्दिर । तीर्थ । गंगा । यमुना । हिन्दू । मुसलमान । सिख । ईसाई । अमेरिकन । रसियन । देवी । देवता । भूत । प्रेत । जितने आप जानते हैं । और जिन्हें नहीं जानते । कोई ऐसा क्षेत्र बता सकते हैं जो एकदम पाक साफ़ हो । या भूतकाल में कभी रहा हो । ग्यान - अग्यान । प्रकाश - अंधकार । दिन - रात । दुष्ट - सज्जन । ये एक दूसरे के पूरक हैं । एक के होने से दूसरे का अस्तित्व है । इसी तरह अच्छाई - बुराई का हमेशा का साथ है । अतः सब में सब तरह के लोग हैं । तो ये कहना कि " ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म में कई बुराइयों का प्रवेश कराया है । " सभी ब्राह्मणों के लिये नहीं कहा जा सकता । अच्छा बुरा आदमी तो हो सकता है । पर इसको ब्राह्मण । यादव । वैश्य । कायस्थ । इस तरह कहना मेरे हिसाब से तो उचित नहीं हैं । फ़िर आपकी मर्जी ?

बहुत से सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं देता..2

प्रश्न - धर्म को जानने की जरुरत है । कुछ लोगों ने इस गन्दा बनाया है ?
उत्तर - जिसने भी आपको ये उत्तर दिया है । ये एकदम सटीक उत्तर है । दरअसल धर्म को लेकर आपका नजरिया स्थूल और सतही ग्यान पर आधारित है । जैसा कि पूजा पाठ करने वाले आस्तिको का भी होता है । वास्तविक धर्म को जानना कोई हंसी खेल नहीं है ? पहले " धर्म " को जानिये । धर्म का अर्थ है । धारण करना । यदि आप शादीशुदा हैं तो ये ग्रहस्थ धर्म है । यदि आप लडाका की भूमिका में है । तो ये क्षत्रिय धर्म है । पत्नी धर्म । पति धर्म । विध्या धर्म । संतान धर्म । मित्र धर्म । शत्रु धर्म । ये सब धर्म ही है ।
जिस कर्म से आप संयुक्त होते हो । वही धर्म हो जाता है । ये सब " देहधर्म " के अन्तर्गत आते हैं । इनमें मत भिन्नता और विभिन्नता ही तकरार का कारण है । परन्तु आत्मा का धर्म या सनातन धर्म सबके लिये समान है । इसमें राग । द्वेश । ऊंच । नीच । जाति । पांति । भगवान । देवी । देवता । कर्मकांडी पूजा पद्धित आदि का कोई स्थान नहीं है । बल्कि इसमें खुद को जानना । मैं कौन हूं । इस चमत्कारिक सृष्टि के पीछे क्या रहस्य है । मृत्यु के बाद जीवन है या नहीं ? स्वर्ग नरक की सत्यता क्या है । जीवन का सच क्या है ? जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है ? जैसी चीजों को । जैसे प्रश्नों को " आत्मविग्यान " द्वारा प्रत्यक्ष किया जाता है । वैसे ही जैसे आप प्रकृति को देखते है । सांसारिक पदार्थों को देखते उपयोग करते हैं । आप
माया के " परदे के पीछे " का रहस्य जानने लगते हैं और वहां की चीजों का उपयोग करते हैं ।
कुछ लोगों ने इस गन्दा बनाया है ?..एक चमचमाता शीशा ( धर्म ) किसी की नादानी या अग्यानतावश धुंधला । मैला ( धर्म में मिलाबट ) हो जाय और आप उसमें अपना स्वरूप नहीं देख पा रहे । तो कुछ गलती आपकी भी है । उस पर ( ग्यान रूपी ) कपडा फ़िराइये । शीशा अपनी पूर्व अवस्था में चमकने लगेगा । और आप अपने को ठीक से देख पायेंगे । 2 - दूध ( धर्म ) में मक्खी ( धर्म में मिलाबट ) गिर गयी । आप दूध का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे । सीधी सी बात है । अक्ल का इस्तेमाल करें । मक्खी को निकालकर फ़ेंक दे । आप धर्म ( दूध ) का लाभ निश्चित उठा सकते हैं । फ़िर आपकी मर्जी ?
प्रश्न -जब ईश्वर निरंकारी है तो आकार वाली धरती और इंसान जानवर बनाने की जरुरत क्या थी ?
उत्तर - लगता है । यहां आप निरंकार शब्द का अर्थ निराकार समझ बैठे है । जो पूर्णतया गलत है ।निरंकार शब्द आकाश तक की सत्ता को बताता है । अर्थात निरंकार को जानने वाला । प्रथ्वी । जल । अग्नि । वायु । आकाश । इन पांचो तत्वों को तत्व से जानने वाला साधु निरंकारी कहलाता है । निरंकार । ररंकार । ये दो योग की उच्च स्थितियां है । जिनमें निरंकार आकाश का घोतक है । और ररंकार । रमता राम का । इन शब्दों को साधारण ग्यान रखने वाले प्रायः नहीं जानते । जैसे रसायन बिग्यान का विध्यार्थी घर में नमक मांगने के लिये सोडियम क्लोराइड या Nacl कहने लगे । तो भला कौन समझ पायेगा ?
आकार वाली धरती और इंसान जानवर बनाने की जरुरत ...? जरा सोचिये कि मिट्टी का आकार क्या है ? बिजली का आकार क्या है ? बिजली क्या बल्ब है ? टयूबलाइट है । फ़ैन है । ए सी है । टेलीविजन है ? इनमें से कुछ नहीं है । लेकिन जिसके साथ संयुक्त हो जाती है । उसी को गति देने लगती है । मिट्टी का आकार क्या है ? घर । घडा । खिलौने । सकोरे । खेत । क्यारी । गमला । और अन्य उपयोग । अर्थात जहां जैसी जरूरत होती है । वहां वैसा आकार हो जाता है । यही सिद्धांत हर चीज पर लागू होता है । आप इसी उदाहरण के आधार पर अन्य चीजों के वारे में विचार करें ।
प्रश्न -जब खुदा, ईश्वर या भगवान निरंकारी है तो अपने समारोहों में क्यों एक आदमी को सफ़ेद धोती कुरता पहना के और सफ़ेद चादर ओढा कर पूजा करते है ?
उत्तर - निरंकारी निराकार नहीं होता । ये बात मैंने ऊपर ही स्पष्ट कर दी है । रही किसी आदमी को कपडे पहना के बैठाने की बात । तो वो उस ग्यान का प्रतिनिधित्व करता है । जो परम्परा से चला आ रहा है । अगर कोई बताने वाला शिक्षक के रूप में मौजूद नहीं होगा । तो नये अथवा पुराने लोगों की शंका का समाधान कैसे होगा । नये जुडने वाले लोग ग्यान के बारे में कैसे जानेंगे ?
प्रश्न -क्या ईश्वर चापलूस है जो इंसान को केवल पूजा पाठ के लिए बनाया है ? जब निरंकारी की पूजा करते हैं तो साकार भगवान राम,कृष्ण और शंकर की स्तुति क्यों करते हैं ?
उत्तर - मैंने एक 10 + 2 में पढने वाले student से कहा । क्या तुम्हें मालूम है । कि सरकार तुम्हारी पढाई पर लगभग डेढ लाख रुपया खर्च कर चुकी है । उसने हैरत से मुझे देखा । और बोला । क्या बात कर रहे हो ? सरकार ने मुझे एक रुपया तक नहीं दिया । ऐसा ही कुछ अग्यान का मामला ईश्वर सत्ता को लेकर लोगों में होता है । अनंत ब्रह्माण्ड । अनन्त सृष्टि का शासन । प्रशासन कैसे चल रहा है । ये मजाक की बात नहीं है । ये चारों तरफ़ खाने पीने की वस्तुओं से लेकर । धूप । हवा । पानी आदि सारी व्यवस्था उसके आदेश से ही कार्य कर रही है ।फ़िर भी मैंने आज तक ऐसा नहीं सुना कि ईश्वर ने किसी से कहा हो कि तुम मेरी पूजा करो ? राम । कृष्ण । ये दोनों वास्तव में एक ही सत्ता के दो रूप हैं । जिसे ररंकार कहते हैं । इस त्रिलोकी सत्ता । जिसमें कि यह प्रथ्वीलोक है । का आधिपत्य राम का ही है । इसलिये वृन्दावन मे रहोगे । तो राधे राधे कहोगे । और फ़िर राम,कृष्ण और शंकर किसकी भेंस खोल ले गये । जो लोग इनसे नफ़रत करें । एक परम्परा के रूप में जो पूजा चली आ रही है । वही है । ये पूजा एक अदृश्य रहस्यमय संतुलन करती हैं । जिसे विशेष ग्यान के द्वारा जाना जा सकता है ।
प्रश्न - पता नहीं कितने करोड़ भगवानो को ढ़ोने वाली अपनी गधों वाली पीठ पे एक और भगवान को लादने की जरुरत क्या है ?
उत्तर - आप करोड छोडिये । सिर्फ़ दो सौ भगवान के नाम मुझे बता दीजिये । वैसे कितने नहीं " तैतीसकरोड " हैं । पर कैसे हैं ? ये मैं अपने लेख " क्या है तैतीस करोड देवताओं का रहस्य " में विस्तार से लिख चुका हूं । अतः उसको बार बार लिखने से कोई फ़ायदा नहीं ।

सोमवार, जुलाई 19, 2010

आपके फ़ोन

हाय । मैं नवीन अग्रवाल चन्दौसी । मुरादाबाद से हूं । मैंने आपका लेख " काली चिडिया का रहस्य " पडा । उसी में मुझे आपका फ़ोन न. मिला है । मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूं । क्या आप कुछ समय मेरे लिये निकालकर बात कर सकते हैं ? आपका जो भी जबाब हो प्लीज मेरे फ़ोन न. पर sms या मिस काल करें । ( sms )
*हलो । मैं पीलीभीत से बोल रहा हूं । मैंने सर्पों पर आपका लेख " क्या है बायगीरी का रहस्य " पडा । यदि किसी को सर्प काट ले तो उसका इलाज नहीं कराना चाहिये ? यदि कराना चाहिये तो क्या ? आपके ख्याल से भूत प्रेत होते हैं ? यह सब अफ़वाह है । साधु संत अफ़वाह फ़ैलाकर जनता को लूटते हैं । आपकी एजूकेशन क्या है । बी . ए . मैं कौन कौन से subject थे । हां मैंने आपके लेख ज्यादा तो नहीं पडे । मैं आपको एडवाइज देना चाहता हूं । कि ये भूत प्रेत कुछ नहीं होते । बताइये आपने कभी भूत देखे हैं । खैर आपसे परिचय हो गया । बात हो गयी । अब आगे आपसे बात कर लिया करूंगा । बी. ए . में चार ही subject थे ? आप को अपने subject भी याद नहीं हैं ?
** मैं दीप्ति लखनऊ से बोल रही हूं । मेरे पति को अक्सर दौरे से आते हैं । इलाज का लाभ नहीं हुआ । कभी कभी ऐसी स्थिति मेरी भी हो जाती है । क्या ये भूत प्रेत वाली कोई बात है । या अन्य कोई बात । क्या आप मेरी सहायता कर सकते हैं । क्या मुझे पति को लेकर आना होगा ?
*****
मेरी बात - कृपया sms न करें । मैंने disturb से बचने के लिये sms की ringtone आफ़ कर रखी है । इसलिये मुझे sms की सूचना नहीं हो पाती । आप सुबह 7.00 am to 10.00 am और दोपहर 3.00 pm to 6.00 pm पर मेरे फ़ोन न. पर बात कर सकते हैं । यदि कोई खास परेशानी है । तो 24 घंटे में कभी भी बात कर सकते हैं ।
अक्सर मेरे किसी भी एक या दो लेख को पडकर पाठक प्रायः उत्तेजना सी महसूस करते हैं और हडबडाहट में फ़ोन द्वारा । sms द्वारा । या email द्वारा अपनी प्रतिक्रिया देने लगते हैं । किसी भी प्रतिक्रिया को पाना सुखद तो लगता है । पर उनकी आधी जिग्यासाओं के उत्तर यकायक देना संभव नहीं हो पाता । मेरे दस ब्लाग्स में से आपने कोई लेख पडा । और अचानक सवाल करने लगे । जरा सोचिये ? इंसान एकदम से कैसे समझ सकता है कि आप किस विषय पर और किस दृष्टिकोण से क्या बात करना चाहते हैं ?
नवीन जी भूत प्रेतों को नहीं मानते और मानते भी हैं । उन्हें मेरा लेख काफ़ी अच्छा लगा । और अब वे एक नियमित पाठक के तौर पर मेरे सभी लेखों का अध्ययन करेंगे । पीलीभीत से जिन सज्जन का फ़ोन आया । जल्दी में मैं उनका नाम तो नहीं पूछ पाया । पर उनकी भी मिश्रित प्रतिक्रिया थी । वे मेरे " बायगीरी ..." वाले लेख की तारीफ़ करना चाह रहे थे । पर जल्दवाजी में शब्दों का चयन नहीं कर पा रहें थे । एक तरफ़ वे मेरे बायगीरी लेख के पूर्ण समर्थक थे । तो दूसरी तरफ़ भूतिया लेखों की आलोचना भी कर रहे थे । उनके अनुसार मुझे ऐसा अंधविश्वास नहीं फ़ैलाना चाहिये था ? उन्होंने मेरी एजूकेशन के बारे में इसलिये पूछा कि शायद में कम पडा लिखा होऊं । इसलिये मेरे विचार ऐसे हों । बी. ए . में चार subject जानकर उन्हें हैरानी हुयी । पर आज से बीस साल पहले चार ही होते थे ।
दीप्ति जी को मैं कोई तान्त्रिक लगा था । जिससे वो एक चमत्कार की तरह इलाज कराना चाहती थीं । मैं आप सब लोगों से कई बार कह चुका हूं और फ़िर वही बात कहता हूं । मेरे बारे में कोई भी राय एकदम बना लेने से पहले आप मेरी कुछ और रचनाओं का अध्ययन करेंगे तो आधे से ज्यादा बात आपको उसी समय पता चल जायेगी । आप फ़ोन पर चार सवाल लेकर आते हैं । ब्लाग्स में आपको चालीस प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे । इसलिये कृपया यदि आपके मन में कोई प्रश्न उठ रहा है । तो फ़ोन करने से पहले ब्लाग के लेखों पर एक निगाह डालें । अपने विषय से सम्बंधित और लेखों को पडें । फ़िर आश्वस्त होकर अच्छी या बुरी राय दें । मैं आपका हरसंभव सहयोग करूंगा ।

शनिवार, जुलाई 17, 2010

मृतक का अंतिम संस्कार..?

मृतक का अंतिम संस्कार क्या होना चाहिये ? आदिकाल से ही मृतक के संस्कार की अनेक रीति प्रचलन में है । जलाना । दफ़नाना । जल प्रवाह और उसे सङने से बचाने के लिये कोई लेप लगाकर यूँ ही सुखा लेना । किसी विशेष स्थान जिसको बहुत सी जगह मृतक चौरा कहते हैं । वहाँ ऐसी ही लाश रखकर छोङ आना । ममी आदि बना देना । ये कुछ प्रमुख तरीके हैं । जो हमारे समाज में प्रचलित हैं । उस दिन ऐसी
ही बात चल रही थी कि श्री महाराज जी ने मृतक का सबसे उचित अंतिम संस्कार बताकर हमें चौंका दिया । हाँलाकि इस बात से कुछ लोग ऐसे नाखुश हुये कि सतसंग छोङकर चले गये । महाराज जी ने जो तरीका बताया । वो भी कोई नया और स्पेशल नहीं था । कैलाश पर्वत के आसपास के लोग वही
तरीका अपनाते हैं ।अभी का तो मालूम नहीं लेकिन कुछ समय पहले जापान में तो मरने से पूर्व ही वृद्ध ( एक निश्चित उमर के बाद ) लोगों के लिये ये तरीका कानून की तरह लागू था । कैलाश पर्वत के निकट ही एक ऊँचा पर्वत है । जिस पर पत्थर आदि की सीङिया बनाकर पर्वत के ऊपर चौरस स्थान पर लाश को रख आते है । जिसे चील कौवा आदि माँसाहारी पक्षी व अन्य माँस भोजी उसे आहार बना लेते हैं ।
सुनने में यह बात कितनी अटपटी लगती है । मगर ये तरीका एकदम उचित है । आईये इससे जुङे सामाजिक सरोकार और भावनात्मक पहलू पर नजर डालते हैं । सबसे पहले तो ये बात विचार करें कि जो आपका सम्बन्धी था । वो तो चला गया । अब जो शेष रह गया है । वो सिर्फ़ मुर्दा ही है । मुर्दा यानी मिट्टी । और इस मिट्टी के लिये आप लाख जतन करो । ये मिट्टी मिट्टी में ही मिल जानी है । आप लाश को जलाते हो । तो भी पंचतत्व तत्वों में मिल जाते हैं । आप दफ़नाते हो तो भी जमीन के कीङे उसको खाते हैं और शेष मिट्टी हो जाती है । आप जलप्रवाह करते हो । तो भी जलीय जीव जन्तु उसे आहार बनाते हैं ।
अब जलाने । दफ़नाने । और जलप्रवाह और ममी आदि जैसे तरीकों पर विचार करें । सबसे पहले यह सोचें कि एक दिन में विश्व के अन्दर कितने लोग मरते होगें ? जलाने पर जीवन के लिये बहुमूल्य वन सम्पदा ( लकङी ) तथा अन्य पदार्थों का अपव्यय । दफ़नाने पर जमीन का गैर उपयोगी हो जाना । दफ़नाने की क्रिया भी कम खर्चीली नहीं होती । जल प्रवाह में नदी का पानी दूषित होना । क्योंकि लाश पानी में फ़ूलकर सङ जाती है । मृतक चौरा जैसे स्थानों पर छोङ देने पर लाश के सङने पर बीमारी फ़ैलने का खतरा होता है । इस सबके विपरीत माँसाहारी पक्षियों के लिये लाश छोङने पर पक्षी ऐसे स्थान पर तैयार रहते हैं । और कुछ ही घन्टो में लाश का कुदरती ढंग से सफ़ाया हो जाता है । इसका सबसे बङा आध्यात्मिक रहस्य जो महाराज जी ने बताया । वो ये कि मृतक पक्षी आदि अन्य जीवों द्वारा भोजन के रूप में उदरस्थ हो जाने पर मृतक के ऊपर से काफ़ी रिण उतर जाता है । जो कि जाने अनजाने में उसके ऊपर चढा हुआ था । भले ही मृतक ने जीवन भर किसी को पानी के लिये न पूछा हो । पर मरते मरते वह कई जीवों का पेट भर गया । इसका लाभ उसे बारह तेरह दिन की उस यात्रा में मिलता है । जो मरने के बाद " यमपुरी " पहुँचने में होती है । ( प्राण निकलने से लेकर यम दरबार में पेशी होने
तक बारह तेरह दिन का समय लग जाता है । इस बीच मृतक के कर्मों के अनुसार उसकी यात्रा होती है ।
मान लो उसने भूखों प्यासों को भोजन पानी दिया हो तो वो उसे रास्ते में प्राप्त हो जाता है । अन्यथा नहीं । अगर उसने दूसरे के रास्ते से काँटे हटाये हैं । तो उसका भी रास्ता साफ़ होता है । कहने का मतलब जैसा उसने यहाँ किया । ठीक वही उसे प्राप्त होता है । चाहे वो अच्छा हो अथवा बुरा । ) तो इस तरह मान लो अपने स्वभाववश या परिस्थितिवश आदमी कोई परोपकार जीवन में नहीं कर सका । तो मरते मरते ये परोपकार फ़ोकट में हो जाता है । और फ़िर लाश का किसी भी तरह संस्कार करो । उसका अंतिम परिणाम तो उस शरीर का नष्ट होना ही है । अब मान लो कोई व्यक्ति जीवन में माँसाहारी रहा हो । तो विधान के अनुसार आने वाला समय में वो शिकार बनेगा और जिनको उसने खाया था । वो किसी न किसी रूप में उससे बदला लेंगे । यानी खायेंगे । तो इस तरह भी कुछ पाप कम हो जाता है ।
मैंने अक्सर एक बङी विचित्र बात देखी है । कोई भी व्यक्ति जीवन में परोपकार या सदव्यवहार करने से बचता रहता है । और मरने पर अपनी अच्छी स्थिति के लिये बङे बङे उपाय करता है । ये उपाय उसके पुत्रादि द्वारा भी किया जाता है । एक कहावत यू. पी . में बेहद प्रचलित है । " जीयत न दये कौरा । मरे बुझाय चौरा । " इसको मैंने सत्य के रूप में चरितार्थ होते हुये देखा है । और इसका सम्बन्ध अमीरी या गरीबी से न होकर स्वभाव से अधिक है । अधिकांश घर के सम्मानित बुजुर्ग जिन्होंने अपना सारा जीवन उस घर के लिये कुरबान कर दिया । अंतिम समय में आकर उपेक्षित । बीमार और एक वक्त के अच्छे खाने के लिये तरसते रहे । घर में चार लोगों को खाना बिगङकर फ़िंक जाता था । पर उन्हें उनकी बहुओं को दो सूखी रोटी अचार के साथ भी देने पर एतराज था । लेकिन बाद में इनकी मृत्यु होने पर एक लाख से लेकर दो लाख का खर्च करते हुये लोग आराम से देखे गये । भरे हुये
को जबर्दस्ती बुलाकर खिला रहे हो । और वो बेचारा सालो रोटी के लिये । तुम्हारे प्रेम के दो बोल सुनने के लिये तरसता हुआ चला गया । कार्ड में लिख दिया । पिताजी स्वर्गवासी हो गये । और खुद ने ही स्वर्ग से पहले ही " नरक " कैसा होता है । यह अच्छी तरह दिखा दिया । दन्डवत प्रणाम और मृतक शरीर को भोजन के रूप में अर्पित कर देना । दो बेहद रहस्यमय पर अनोखे चमत्कारी फ़ल देने वाले कार्य हैं ।
मृतक के मामले में आप शायद इस आचरण का परिणाम प्रत्यक्ष न देख पायें ( वैसे कुछ लोगों को स्वप्न आदि या किसी अन्य तरीके से अनुभूति हो जाती है ) पर दन्डवत में तो हाथ कंगन को आरसी क्या । पढे लिखे को फ़ारसी क्या । जैसा सीधा मामला है ही ।दन्डवत प्रणाम उसे कहते हैं । जो अपने किसी भी आदरणीय को जमीन पर पेट के बल लेटकर किया जाता । इसमें हाथ जुङे हुये नमस्कार की मुद्रा में सिर के ऊपर एकदम सीधे होते हैं । इसका फ़ल क्या है ? प्रभु के विधान के अनुसार गुरु या अन्य आदरणीय जनों को इस भाँति प्रणाम करने से इस आदर भावना के फ़लस्वरूप तुम्हारे शरीर से पाप ताप प्रथ्वी ले लेती है । ये एक सीधा सरल उपाय मैंने कई लोगों को बताया । और वे अमल में लाये तो उन्होंने अपने जीवन में चमत्कारी अनुकूल परिवर्तन महसूस किये । आजकल के बालक युवक चरण स्पर्श करने के बजाय घुटने छू लेते हैं । माथे आदि से लगाना तो बहुत बङी बात है । वैसा ही हो रहा है । बङों के अनमोल आशीर्वाद से वंचित रहतें हैं । तो बात मृतक संस्कार की हो रही थी । ऊपर मैंने मुख्य मुख्य तथ्य लिख दिये हैं । आप हर पहलू से विचार करेंगे । तो आप कहेंगे । निश्चित ही श्री महाराज जी का बताया तरीका मानव हित और कई अन्य पहलूओं से श्रेष्ठ ही है ।

गुरुवार, जुलाई 15, 2010

गुरुपूर्णिमा उत्सव पर आप सभी सादर आमन्त्रित हैं ।


गुर्रुब्रह्मा गुर्रुविष्णु गुर्रुदेव महेश्वरा । गुरुः साक्षात पारब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ।श्री श्री 1008 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज " परमहँस "
अनन्तकोटि नायक पारब्रह्म परमात्मा की अनुपम अमृत कृपा से ग्राम - उवाली । पो - उरथान । बुझिया के पुल के पास । करहल । मैंनपुरी । में सदगुरुपूर्णिमा उत्सव बङी धूमधाम से सम्पन्न होने जा रहा है । गुरुपूर्णिमा उत्सव का मुख्य उद्देश्य इस असार संसार में व्याकुल पीङित एवं अविधा
से ग्रसित श्रद्धालु भक्तों को ग्यान अमृत का पान कराया जायेगा । यह जीवात्मा सनातन काल से जनम मरण की चक्की में पिसता हुआ धक्के खा रहा है व जघन्य यातनाओं से त्रस्त एवं बैचेन है ।
जिसे उद्धार करने एवं अमृत पिलाकर सदगुरुदेव यातनाओं से अपनी कृपा से मुक्ति करा देते हैं ।
अतः ऐसे सुअवसर को न भूलें एवं अपनी आत्मा का उद्धार करें । सदगुरुदेव का कहना है । कि मनुष्य यदि पूरी तरह से ग्यान भक्ति के प्रति समर्पण हो । तो आत्मा को परमात्मा को जानने में सदगुरु की कृपा से पन्द्रह मिनट का समय लगता है । इसलिये ऐसे पुनीत अवसर का लाभ उठाकर आत्मा की अमरता प्राप्त करें ।
नोट-- यह आयोजन 25-07-2010 को उवाली ( करहल ) में होगा । जिसमें दो दिन पूर्व से ही दूर दूर से पधारने वाले संत आत्म ग्यान पर सतसंग करेंगे ।
विनीत -
राजीव कुलश्रेष्ठ । आगरा । पंकज अग्रवाल । मैंनपुरी । पंकज कुलश्रेष्ठ । आगरा । अजब सिंह परमार । जगनेर ( आगरा ) । राधारमण गौतम । आगरा । फ़ौरन सिंह । आगरा । रामप्रकाश राठौर । कुसुमाखेङा । भूरे बाबा उर्फ़ पागलानन्द बाबा । करहल । चेतनदास । न . जंगी मैंनपुरी । विजयदास । मैंनपुरी । बालकृष्ण श्रीवास्तव । आगरा । संजय कुलश्रेष्ठ । आगरा । रामसेवक कुलश्रेष्ठ । आगरा । चरन सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । उदयवीर सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । मुकेश यादव । उवाली । मैंनपुरी । रामवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । सत्यवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । कायम सिंह । रमेश चन्द्र । नेत्रपाल सिंह । अशोक कुमार । सरवीर सिंह ।

रविवार, जुलाई 11, 2010

यहीं का यहीं ..है भाई ।

इस घटना का जिक्र स्वयं श्री महाराज जी ने एक प्रवचन के दौरान किया था । ये घटना उनके सामने ही हुयी थी । महाराज जी वैसे भी अक्सर यह बात कहते हैं । कि जिन घटनाओं या ऐतिहासिक प्रसंगो से वे स्व अनुभव के तौर पर सच्चाई से परिचित होते हैं । उन्हीं का उल्लेख करते हैं । महाराज जी का
कहना है । कि तमाम इतिहास और धार्मिक साहित्य अनजाने में ही झूठ का पुलंदा बन चुका है । ये घटना इटावा साइड के एक गाँव के दबंग परिवार की है । यह परिवार पहले ही काफ़ी समृद्ध था । पर कहते हैं ना । पैसे वाले को पैसे की भूख ज्यादा होती है । इसी गाँव से लगी हुयी एक बेनामी जमीन थी । जिस पर गाँव के लोग किसी तरह कब्जा करना चाहते थे । क्योंकि जमीन मौके की थी और कीमती भी थी । पर अङचन ये थी । कि ये जमीन पशुओं की विश्राम स्थली थी । और पालतू और गैर पालतू 60-70 गायें इस जमीन पर अक्सर डेरा डाले रहते थीं । गाँव के कुछ लोगों ने उस जमीन को बाङ लगाकर अहाता का रूप दे दिया था । जिससे सर्दी आदि से पशुओं की रक्षा होती थी । इसलिये जो भी इस
जमीन पर कब्जे की सोचता । पूरा गाँव एक होकर इसका विरोध करता । और बद नीयती करने वाले को शान्त रह जाना पङता । इसलिये वे मूक और सीधे सरल पशु उस जमीन को कब्जाने में एक बङा रोङा साबित हो रहे थे । तब गाँव के इस दबंग परिवार ने एक युक्ति सोची । और सभी पशुओं को बाङे में अच्छी तरह बन्द करके रात के समय आग लगा दी । जिससे सभी गाय जलकर मर गयी । और थोङे विरोध के बाद जमीन कब्जाकर आलीशान हवेली बनबा दी । सबने कहा । कि इसका दन्ड अब ईश्वर हीदेगा ।
लेकिन हैरत की बात । परिवार दिन दूना रात चौगुना । समृद्धि की राह पर बढ रहा था ? परिवार के ज्यादातर सदस्य सरकारी नौकरी करते थे और आमतौर पर एक साथ इकठ्ठा नहीं हो पाते थे ? लोग कहने लगे कि कलियुग में ईश्वर भी अन्यायी हो गया है । पर उसके न्याय करने का तरीका एकदम ही अलग है ?
आखिरकार वो घङी आ ही गयी । जिसका प्रकृति को या दन्ड देने वाली शक्तियों को बेसब्री से इंतजार था । होली दीवाली जैसे किसी बङे पर्व पर पूरा परिवार सजा धजा हवेली के हाल में खाने के लिये इकठ्ठा हो गया । एक दो साल के बच्चे से लेकर सबसे बङे बुर्जुग भी हाल में उस समय मौजूद थे कि उसी समय बेहद मजबूत दोमंजिला हवेली किसी चमत्कार की तरह भरभराकर ढह गयी । और पाँच मिनट के अन्दर ही पूरे परिवार का जङ से सफ़ाया हो गया । तब लोगों को ईश्वर के इस न्याय का तरीका पता चला ।
ये घटना भी मुझे स्वयं मुख्य किरदार की साठ वर्षीय पत्नी ने सुनाई । ये एक सक्सेना परिवार था । जो एटा का रहने वाला था । उसके पति सिंचाई विभाग में थे । और माँसाहार के बेहद शौकीन थे । यह हँसता खेलता मध्यम वर्गीय बङा परिवार था । तो सक्सेना साहब एक बार जब ड्यूटी पर थे । सोनापतारी ( बगुला जैसी एक चिङिया होती है । जिसमें काफ़ी मात्रा में माँस निकलता है । और इसको खाने वाले बताते हैं यह काफ़ी स्वादिष्ट होता है । यह चिङिया आसमान में क्वाक क्वाक की तेज आवाज निकालती हुयी झुन्ड की झुन्ड निकलती है ) चिङिया का एक झुन्ड उनके सामने फ़ील्ड में उतर गया ।
वाल्मीक रिषी जैसा किस्सा हो गया । एक सोना पतारी का युगल जोङा तालाब के पास एक दूसरे के सामने भाव पूर्ण मुद्रा में बैठा था । कि माँस के शौकीन सक्सेना साहब ने उनकी बेख्याली का पूरा फ़ायदा उठाते हुये एक बङा तेज चाकू नर पक्षी की " दांई टांग " पर मारा । पक्षी की टांग तुरन्त कट गयी । और वह वहीं गिरकर तङपने लगा । एक पल को तो सक्सेना बहुत हर्षित हो गये लेकिन दूसरे ही पल आश्चर्यचकित और भौंचक्के रह गये । मादा पक्षी इस यकायक आक्रमण से घबरा तो गयी । पर न उङी ।
और न ही वहाँ से हिली । यह सक्सेना साहब के लिये आश्चर्य की बात थी । उनके जीवन में आज दिन तक ऐसा नहीं हुआ था । उन्होंने देखा कि अविचल खङी मादा पक्षी की आँखों से आँसू बह रहे हैं । अब सक्सेना को धार्मिक स्तर पर अपराध बोध हुआ । पर अब क्या हो सकता था । घटना तो घट चुकी थी । कुछ ही देर में सक्सेना को दूसरा झटका लगा । जब नर पक्षी की हालत से दुखी मादा ने अचानक गिरकर प्राण त्याग दिये । नर अभी भी बुरी तरह से पीङा से तङप रहा था । और सक्सेना का दिल हाहाकार कर रहा था । सक्सेना दिल ही दिल में यह चाह रहे थे कि किसी तरह बीस मिनट का समय फ़िर से घूमकर वापस आ जाय । तो वो इस पक्षी की हत्या से बच जाँय । पर ऐसा कहीं होता है ? यह पाप उनकी जीवन किताब में पूरी मजबूती से लिख गया । आखिरकार कुछ देर तङपने के बाद नर ने भी प्राण त्याग दिये । जाहिर था कि सक्सेना इस घटना के बाद उसे कैसे खा सकते थे ? उन्होंने अति अपराध बोध के साथ रोते हुये दोनों पक्षियों को गढ्ढा खोदकर दबा दिया । और घर आकर यह घटना सबको बतायी ।
तीन साल बाद । after three year .
सक्सेना साहब को गले में केंसर हो गया । उनकी पत्नी को " दाँई टांग " में लकवा मार गया । इलाज में काफ़ी पैसा खर्च हो गया ।कुछ समय बाद । सक्सेना अस्पताल में भर्ती थे । और पता नहीं उन्हें क्या बोध हो रहा थे । कि वे रोने लगते थे । बोल तो पाते ही नही थे । लगभग दस बजे सुबह उनकी पत्नी अस्पताल से उन्हे देखकर घर खाना आदि के लिये जाने लगी ।( उनकी पत्नी लकङी और किसी के सहारे से एक पैर से चल लेती थीं ) उनकी पत्नी दरबाजे की ओर मुङी । सक्सेना की तरफ़ उनकी पीठ थी । सक्सेना ने हाथ उठाकर उन्हें बुलाना चाहा । इसी वक्त उनके प्राण निकल गये । नर्स ने आवाज देकर उन्हें रोका । और बताया । कि वे कुछ कहना चाहते हैं ( थे ) । सक्सेना की पत्नी ने उन्हें झकझकोरा । मगर सक्सेना का प्राण पंक्षी अब अंतिम यात्रा हेतु उङ चुका था ।
मुझे कुछ नहीं बताना पङा । सक्सेना की पत्नी खुद ही जाने किस प्रेरणा से बताती थी । मुँह के स्वाद के लिये हत्या की । थोङे ही दिन बाद केंसर की बजह से रोटी खाने से भी मोहताज हो गये । और अंतिम समय तक रोटी नहीं मिली । उस जोङे की एक टांग काटी । भगवान ने तेरे जोङे की एक टांग काट दी । जैसे अंत समय में वह जोङा वियोग पीङा में मरा । सक्सेना भी अपनी पत्नी से मन की बात नहीं कह सके ?

रविवार, जुलाई 04, 2010

आपके पत्र..

लेखकीय-- ये उन फ़ोनकाल्स और ई मेल का विवरण है । जो लगभग प्रतिदिन मुझे प्राप्त होते हैं । * मैं रोहतक से बोल रहा हूँ । मेरा नाम सुरेश है । कृपया बताईये मोक्ष क्या है ? मैं मोक्ष के बारे में जानना चाहता हूँ । और आजकल मेरा मन ज्यादा अशान्त रहता है । क्या करूँ ? मेरे पास पैसे आदि की कोई कमी नहीं है । पर शान्ति नहीं है ?
* मेरा नाम अलका है । मैं लखीमपुर से बोल रही हूँ । घर में बेहद अशान्ति रहती है । पहले सब कुछ ठीक था । क्या ये ग्रह नक्षत्रों की कोई बात है । मेरा जन्म....हुआ था । मैं कानपुर में पैदा हुयी थी । पति से सम्बन्ध भी तनावपूर्ण हैं ? कृपया मार्ग सुझायें । बेहद परेशान हूँ । क्या मुझे जनम कुन्डली भेजनी होगी ? * मेरा नाम विजयदास है । मैं आत्महत्या करने की स्थिति में आ गया हूँ । मेरे ऊपर काफ़ी कर्जा हो गया है । और अभी एक एक पैसे का मोहताज हूँ । आपका नम्बर मुझे दिल्ली के मेरे परिचित सुशील राठोर ने दिया था । समझ में नहीं आता । क्या करूँ ? आप मेरी समस्या किस प्रकार हल कर सकते हैं ?
* मैं वैष्णवी बोल रही हूँ । मैं काफ़ी टेंशन में रहती हूँ । इनफ़ेक्ट..........? क्या आप मेरी सहायता कर सकते हैं ?
* मैंने आपका ब्लाग पढा । पढकर कुछ शान्ति सी मिली । बङी आशा से यह पत्र ( मेल ) लिख रही हूँ । ( लिख रहा हूँ ) आजकल मेरी स्थिति ठीक नहीं है । कभी कभी.....? अब तो बङी ऊब सी होती है । क्या यही जीवन है ? मुझे आशा है । आप कुछ समाधान करेंगे ?
* मैंने आज दिन तक बहुत सतसंग सुने । बहुत साधु संतो के सम्पर्क में आया । पर तसल्ली नहीं हुयी । आपके ब्लाग में मुझे कुछ सच्चाई सी नजर आयी । क्या आप अध्यात्म से जुङी मेरी कुछ शंकाओं का समाधान करेंगें ?
* हेय ..बाबाजी..क्या आप वाकई गाड से मिलने का तरीका जानते हैं ?
* राजीव जी ! गाड वगैरा कुछ नहीं है । जो कुछ है । यही जीवन है । इसलिये मेरी आपको सलाह है । मस्ती से जीवन काटो । देखो दुनियाँ में कितनी हरियाली ( इनका मतलब लेडी ) फ़ैली हुयी है । आप रेगिस्तान में क्यूँ भटक रहे हैं ?
* बाबाजी क्या संसार में एक तुम ही ग्यानी हो । या ग्यान का पूरा ठेका तुम्हारे ही पास है । आपकी बातें पङकर तो ऐसा लगता है । भगवान रोज तुम्हारे घर चाय पीने आतें हों ?
* राजीव जी मैं आपसे शादी करना चाहती हूँ । क्योंकि मुझे spirituality में बेहद रुचि है । मुझे भारत में भी बेहद रुचि है.... । ( विदेशों से प्रायः 3 पत्र प्रतिदिन ) ।
* my name is monika...wants to say..hi..चलो मौज करते हैं । i am easily going with...?
* I should confess that I’m a very romantic person whose heart is filled with a big desire to create a nice family with all the warmth and coziness in the world. I’m dreaming about such a nice family where everything will have only one reason – deep love….
** * मैंने एक बात अपने जीवन में देखी है । आप कुछ भी क्यों न हों । आप कुछ भी क्यों न कहें । लोग आपसे अपने ही अंदाज में बात करते हैं ? कबीर साहब ने कितना लोगों को समझाया । और एक बार तो उनको पढकर ऐसा लगता है । कि मानों वे समझा समझाकर हार गये हों । तब उन्होंने कहा था ।
" कहे हूँ कह जात हूँ । कहूँ बजाकर ढोल । स्वांसा खाली जात है । तीन लोक का मोल । "
" रात गंवायी सोय के । दिवस गंवाया खाय । हीरा जनम अमोल था । कौङी बदले जाय । "
कभी कभी मुझे लगता है । कि मेरा भी हाल internet पर कुछ ऐसा न हो जाय कि " आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास " कभी कभी ऐसा भी लगता है कि " काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय " तीन सालों के अन्दर आंशिक प्रलय होने वाली है । और संसार अपनी मस्ती में मस्त है । और प्रलय की बात थोङी देर को छोङ भी दें । तो ये मानव जीवन बङा अनमोल है । देवताओं को दुर्लभ है । इसमें हमें " वो " प्राप्ति हो सकती है । जिसके लिये हम करोंङो सालों से न जाने कौन कौन सी योनियों में भटके थे । " कौन जोनि जामें भरमे नाहीं । "
इस तरह के प्राप्त होने वाले प्रायः सभी संदेशो का संतुष्टिजनक उत्तर मैं देने की कोशिश करता हूँ । सिवाय शादी । चैटिंग । सेटिंग और डेटिंग को छोङकर । मेरा आप लोगों से यही कहना है । सतसंग करो । आध्यात्म चर्चा करो । प्रभु भक्ति करो । इससे आप भी सुखी होंगे । और आपके द्वारा दूसरों को भी सुख प्राप्त होगा । रहना नहीं देश विराना है । यह संसार कागद की पुङिया बूँद परे गल जाना है । जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "

रविवार, जून 27, 2010

अनहद शब्द ।अजपा जाप ।पाँच कोष ।

मानव शरीर में पाँच कोष हैं । जीवात्मा इन्हीं पाँच कोषों में स्थित है । पहला आनन्दमय कोष है । जिसको कारण शरीर भी कहते हैं । दूसरा विग्यानमय कोष है । इसमें पाँच ग्यानेन्द्रियां , अंतकरण की वृति और बुद्धि है । तीसरा मनोमय कोष है । इसमें पाँच ग्यानेन्द्रियां और मन के संकल्प हैं । चौथा प्राणमय कोष है । इसमें पाँच कर्मेंद्रियां और पाँच प्राण हैं । पाँचवा अन्नमय कोष है । इसे स्थूल शरीर भी कहते हैं । कोष का अर्थ म्यान होना है । जिसका आशय ये जीवात्मा के शरीर को ढकने वाले हैं । जो धुनात्मक अथवा अनहद शब्द के मार्ग को जानता है । जिसने द्रष्टि साधना या त्राटक आदि साधना की है । जिसने दोनों तिलों को खींचकर अभ्यास की सहायता से एक किया हुआ हो । ( एक बिन्दु
विशेष पर देर तक ध्यान से देखने पर यह अभ्यास सिद्ध होता है । त्राटक में किसी लौ आदि विभिन्न माध्यम से इसको सिद्ध किया जाता है । जिसने आकाशवाणी ( शब्द आसमानी जो दीक्षा और अभ्यास के बाद प्रकट होता है । ) सुनकर सुरति को ऊपर चङाया हुआ हो । और जो अजपा जाप जानता हो । ऐसे पूर्ण सदगुरु मिल जाने पर उसकी सेवा तन मन धन से करें । यही सतगुरु की पहचान है । यही सतगुरु की खोज
है । अब " अजपा जाप " क्या होता है । आईये इसके बारे में भी जाना जाय । मुख बन्द करके जाप करने से तात्पर्य अजपा जाप से है । मुख बन्द करके सांसो के द्वारा " ॐ , सोहंग , प्रणव आदि और दूसरे महामन्त्रों का जाप किया जाता है । इस जाप की विभिन्न विधियां है । प्राणायाम में भी रेचक , पूरक , कुम्भक के साथ " ॐ " का उच्चारण करते हैं । दूसरा तरीका यह है कि मुख बन्द करके नाक द्वारा स्वांस लिया जाता है । और स्वांस के आने जाने पर ध्यान रखा जाता है । दृष्टि को नाक की नोक पर जमाते हैं । और दिल में ध्यान करते हैं । निरंतर अभ्यास के द्वारा दृष्टि ऊपर की ओर चढती जाती है । और विचारधारा रुक जाती है । जब दृष्टि ऊपर चङने लगे । तो नाक की नोक की जङ अर्थात त्रिकुटि स्थान जो दोनों भवों के बीच में है । वहाँ दृष्टि को ठहराते है । इस स्थान से नाक से आने जाने वाले स्वांस पर ध्यान रखते हैं ।
इससे स्वांसो की गति में एक प्रकार की स्थिरता आ जाती है । इस विधि को " सहज समाधि " सुन्न ध्यान "
सुरति साधना और त्रिकुटी ध्यान भी कहते हैं । इसका अगला चरण " अनहद शब्द " के तौर पर है । अजपा जाप जपने से घट में " शब्द " प्रकट होता है ।
सबसे पहले यह शब्द दिल में सुनाई देता है । तत्पश्चात निरंतर अभ्यास करने से " दाहिनी आँख " के ऊपर भवों के पास सुनाई देता है । सर्वप्रथम यह शब्द स्पष्ट सुनाई नहीं देता । कुछ मिली जुली आवाजें सुनाई देती हैं । जिन्हें सुनकर अभ्यासी मस्त और बेखुद होकर समाधि अवस्था में चला जाता है । इस अभ्यास के साथ अधिकतर महात्मा " खेचरी मुद्रा " भी बता देते हैं । जिससे " अमी रस " मष्तिष्क से चूकर हलक में गिरता है । इसमें ऐसा आनन्द आता है । जिसका वर्णन नहीं हो सकता । अभ्यास की इस क्रिया और युक्ति को सुरति शब्द मेल कहते हैं ।
दूसरे तरीके में कानों को बन्द करके " अनहद शब्द " सुना जाता है । यह शब्द हर इंसान के घट (शरीर ) में हर समय होता रहता है । इस अनहद शब्द को " शब्द ब्रह्म " भी कहते हैं ।
ये अनहद शब्द दो प्रकार का है । 1- वर्णात्मक शब्द 2- धुनात्मक शब्द । आन्तरिक स्थानों से ये दस आवाजें अनहद शब्द में सुनाई देती हैं । जिसकी महिमा स्वयं शिवजी ने पार्वती जी से कही थी ।
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