शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

यह आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर है

आप अपनी जिन्दगी को ही एक पर्यवेक्षक के दृष्टिकोण से देखते हैं । किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में । जो आपकी जिन्दगी से अलग है । इस प्रकार आप खुद को दो हिस्सों - पर्यवेक्षक यानि देखने वाले । और पर्यवेक्षण यानि देखे जाने वाले के बीच बांट लेते हैं । यूं अपने आपको दो हिस्सों में बांट लेना । आपके सभी द्वंद्वों । संघर्षों । दुखों । भयों । निराशाओं की जड़ बन जाता है ।
इसी प्रकार आपकी ये बांटने की प्रवृत्ति इंसान इंसान को । राष्ट्रों । धर्मों । सामाजिक बंटवारों का कारण बनती है । और जहां भी बंटवारा होगा । वहां संघर्ष भी होगा । यह नियम है । यह कारण है । तर्क है । एक तरफ पाकिस्तान । एक तरफ भारत । यूं तो ये संघर्ष कभी खत्म नहीं होगा । बाह्मण और अ ब्राह्मण । इस बंटवारे में नफरत पलती है । इस प्रकार समस्त संघर्षों के साथ बाहरी तौर पर बंटवारे उसी प्रकार के हैं । जिस प्रकार आप आन्तरिक रूप से अपने आपको पर्यवेक्षक ओर पर्यवेक्षण में बांट लेते हैं । क्या आप इस बात को समझ रहे हैं ? यदि आप इस बात को नहीं समझ रहे हैं । तो आप आगे नहीं जा सकते । एक ऐसा मन । जो सतत संघर्ष वैषम्य में हो । वो वैसे ही एक सताया हुआ मन होता है । संत्रास झेलता हुआ मन होता है । मुड़ा तुड़ा और विक्षिप्त मन होता है । वो वैसा ही होता है । जैसे कि वर्तमान में हम हैं ।
क्या हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई ऐसा तरीका हो सकता है । जिसमें हम हर तरह के मनोवैज्ञानिक नियन्त्रण को मात्र अपने होने भर पर ही समाप्त कर दें ? क्योंकि नियंत्रण का अर्थ है - कोशिश । प्रयास । जिसका मतलब है । हमारा स्वयं को ही ‘‘नियंत्रक’’ और ‘‘नियंत्रित’’ के बीच में बांट देना । मैं गुस्से में हूं । तो मुझे गुस्से पर काबू करना चाहिए । मैं सिगरेट पीता हूं । तो मुझे सिगरेट नहीं पीनी चाहिए । हम कुछ और ही कहते हैं । जो कि हमारे द्वारा ही गलत समझा जाता है । और हमारे ही द्वारा शायद अस्वीकार भी किया जाता है । और ये चीजें एक साथ चलती हैं । क्योंकि यह एक सामान्य सी उक्ति हो गया है कि सारी जिन्दगी एक निंयत्रण है । यदि आप नियंत्रण नहीं करते हैं । तो आप अपने आपको ही बहुत छूट दे रहे हैं । आप असंवेदनशील हैं । आपके होने का कोई मतलब नहीं है । इसलिए आपको अपने पर काबू करना चाहिए । धर्म । दर्शन । शिक्षक । आपका परिवार । माँ । बाप । ये सब आपको प्रेरित करते हैं कि आपको अपने पर निंयत्रण करना चाहिए । हम कभी भी ये प्रश्न नहीं करते कि - ये नियंत्रक कौन है ? आप खुद ही तो न ।
यह समझना कि - आप क्या सोचते हैं । अपनी महत्वाकांक्षाओं को समझना । अपने गुस्से को । अपने अकेलेपन । अपनी निराशा । अपने दुख की असामान्यता को समझना । इन सब बातों को बिना आलोचना किये । बिना न्याय संगत ठहराये । इन्हें बदलने की इच्छा किये बिना । समझना । बूझना । महसूस करना । जानना ही पहला कदम है । इन्हें हमें जैसा का तैसा जानना और समझना है । जब आप इन्हें जैसे हैं । वैसा का वैसा देखते समझते जान जाते हैं । तब एक अलग ही तरह का सहज कर्म आपसे स्वमेव ही होता है । और यह निर्णायक होता है । यानि जब आप किसी चीज को सही जानते हैं । तो वह सही और गलत जानते हैं । वह अन्तिम रूप से गलत होती है । यह समझ बूझ जानने से उठा कर्म ही तत्संबंधी अंतिम कर्म होता है । देखिये यदि मैं जान जाता हूं कि - किसी का अनुकरण करना गलत है । किसी के निर्देशों का अनुसरण करना गलत है । फिर चाहे वह कोई भी हो । कृष्ण । बुद्ध । या जीसस । कोई भी हो । यह मुद्दा नहीं कि वह कौन है ? तो मैंने यह सच देखा कि किसी का भी अनुकरण करना । नकल करना गलत है । क्योंकि मैंने अपने तर्क । चेतना आदि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से यह जाना कि यह गलत है । तो यह जानना इस संबंध में निर्णायक चरण है । मैं यह जानता हूं । और अनुकरण करना

छोड़ देता हूं । उसे विस्मृत कर देता हूं । क्योंकि उसके बाद जाना जाने वाला सर्वथा नूतन है । और वह पुनः एक निर्णायक चरण है ।
यह आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर और रूचिकर है कि - जब आप में अर्न्‍तदृष्‍टि‍ होती है । तो विचार किस प्रकार अनुपस्थित हो जाते हैं । विचारों की कोई अर्न्‍तदृष्‍टि‍ नहीं होती । केवल तब ही जब आप विचार के ढांचे में । मन को यांत्रिक रूप से इस्तेमाल नहीं करते । तब ही अर्न्‍तदृष्‍टि‍ होती है । अर्न्‍तदृष्‍टि‍ के होने के उपरांत ही विचार उस अर्न्‍तदृष्‍टि‍ के आधार पर एक निर्णय या आशय की रूपरेखा बनाता है । और तब विचार कर्म करता है । जो यांत्रिक होता है । तो हमें यह पता लगाना है कि - क्या हममें कोई ऐसी अर्न्‍तदृष्‍टि‍ हो सकती है । जो दुनियां से सरोकार रखती हो । लेकिन जो निर्णय न देती हो । क्या ऐसा संभव है ? यदि हम एक निर्णय या निष्कर्ष निकाल लेते हैं । तो हम उसकी संकल्पना के आधार पर कर्म करने लगते हैं । हम एक छवि । एक चिन्ह के अनुरूप काम करने लगते हैं । जो कि विचार की संरचना है । तो चीजें जैसी हैं । उन्हें यथार्थतः वैसा का वैसा ही समझने से बचने के लिए हम निरंतर अपने आपको अर्न्‍तदृष्‍टि‍ सम्पन्न होने से बचाते रहते हैं ?
जब हम अन्दर से कंगाल होते हैं । तभी हम हर तरह के अमीरी । ताकत । और प्रभुत्व । जैसे बाहरी दिखावों में संलग्न होते हैं । जब हमारा मन भिखारी सा खाली होता है । तभी हम बाहरी चीजें इकट्ठी करते हैं । अगर खरीदने में सक्षम हैं । तो हम अपने आपको चारों और से ऐसी जी चीजों से घेर लेते हैं । जो हम सोचते हैं कि - वो सुन्दर हैं । और चूंकि हम ही इन चीजों से जुड़ते । इन्हें इतना महत्व देते हैं । इसलिए हम ही और भी ज्यादा दुर्गति और विध्वंस के जिम्मेदार भी होते हैं ।
कब्जे की भावना सुन्दरता के प्रति प्रेम नहीं है । यह सुरक्षा की आकांक्षा से ही उपजती है । और सुरक्षित होने में असंवेदनशीलता है । जड़ता है ।
कोई भी प्रवृत्ति या प्रतिभा जो अलगाव का कारण बनती है । अपनी पहचान बनाने का कोई भी तरीका । चाहे वह कितना भी उत्तेजक क्यों न हो । संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति को तोड़ता मरोड़ता है । और असंवेदनशीलता में ले जाता है ।
मैं पेंटिंग करता हूं । मैं लिखता हूं । मैंने खोज की है । वह संवेदन शीलता मरी सी होती है । जो वैयक्तिकता की भेंट चढ़ी हो । जहाँ मैं मेरे को अहमियत दी गई हो । जब हम लोगों । चीजों और प्रकृति से अपने संबंधों के दौरान अपने

हर विचार । हर अहसास के हर गुजरते क्षण में साक्षी होते हैं । तब हमारा मन खुला होता है । मृदु होता है । आत्म सुरक्षा की मांग । और आशय से संकुचित नहीं होता । और तभी कुरूप और सुन्दर के प्रति संवेदन शीलता । हमारा चेतन निर्बाध रूप से स्वमेव ही प्रकट करता है ।
सुन्दरता और कुरूपता के प्रति संवेदन शीलता । उनके प्रति लगाव या अलगाव से नहीं आती । यह आती है प्रेम से । वहां जहां कोई भी आत्म केन्द्रित संघर्ष न हो ।
हमारा देखना । और सुनना । अवधान । ध्यान का ही एक प्रकार है । और ध्यान की कोई सीमा नहीं । कोई प्रतिरोध नहीं । इसलिए यह असीम है । ध्यान के लिए अथाह ऊर्जा लगती है । जो एक ही बिन्दु पर टिकी न हो । इस अवधान में पुनरावृत्ति करने वाले कोई भी क्षण नहीं । यह यांत्रिक नहीं । इसलिए इस प्रकार का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि - अवधान या ध्यान को कैसे संभाला । या जारी रखा जाये । और जब कोई देखने और सुनने के कला सीख लेता है । यह ध्यान या अवधान स्वतः ही अपने को किसी पेज पर किसी भी शब्द पर फोकस करने में समर्थ होता है । इसमें किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं होता । जो कि एकाग्रता की गतिविधि में होता है । अनवधान को परिष्कृत करके अवधान में नहीं बदला जा सकता । अनवधान के प्रति जागरूकता । यानि अनवधान का अंत न कि अनवधान । अवधान हो जायेगा । इस समाप्ति में ही निरंतरता नहीं रहती । अतीत अपने आपको भविष्य में बदल लेता है । कुछ हो जाने की निरंतरता में । और हम निरंतरता में ही सुरक्षितता ढूंढते हैं । समाप्ति में नहीं । तो ध्यान या अवधान में निरंतरता का गुण नहीं होता । जो भी निरंतर चलता रहता है । वह यांत्रिक है । यह होना यांत्रिक है । और इसमें समय लागू होता है । ध्यान में समय का गुण भी नहीं है । यह सब एक अत्यंत जटिल विषय है । कोई भी इसमें बड़े हौले हौले धीरे धीरे ही गहराई तक जा सकता है ।

बहुत से लोग शारीरिक रूप से असंवेदनशील हैं । क्योंकि जरूरत से ज्यादा भोजन करते हैं । धूमृपान करते हैं । और कई तरह के ऐन्द्रिक रसों में आकंठ डूबे हैं । लेकिन इस तरह तो मन कुंद ही होता है । जब मन कुंद होता है । तो देह भी जड़ होती है । यह वह पैटर्न है । ढांचा है । जिस पर हम जीते हैं । आप जानते हैं कि आपको अपनी खुराक बदलने में ही कितनी कठिनाई होती है । आप एक विशेष मात्रा और स्वाद वाली खुराक के अभ्यस्त हो चुके होते हैं । और हमेशा वैसा ही चाहते हैं । अगर आपको उसी प्रकार और मात्रा में भोजन नहीं मिलता । तो अपने आपको बीमार सा अनुभव करते हैं । एक भय और शंका आपको घेर लेती है । शारीरिक आदतें असंवेदनशीलता उपजाती हैं । वह चाहे किसी भी तरह की आदत हो । जैसे मादक दवाएं लेना ।  शराब या धूमृपान । ये सब शरीर को असंवदेनशील बनाती हैं । और मन को प्रभावित करती हैं । उस मन को जो आपकी संवेदना का संपूर्णत्व है । वह मन जिसे अत्यावश्यक रूप से स्पष्ट दृष्टा । भृम मुक्त । और द्वंद्व रहित होना चाहिए । द्वंद्व हमारी ऊर्जा का अप व्यय ही नहीं करते । यह हमारे मन को कुंद । जड़ । भारी । मूढ़ भी बनाते हैं । इस तरह आदतों में जकड़ा मन असंवेदन शील होता है । इस असंवेदन शीलता, इस कुंदपने और जड़ता के कारण वह किसी भी तरह का कुछ नया ग्रहण करन में समर्थ नहीं होता । क्योंकि जहां असंवेदन शीलता होती है । वहीं जड़ता । मूढ़ता और भय भी होता है । जे. कृष्णमूर्ति

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