मंगलवार, जनवरी 31, 2012

भविष्य में चीजों के रेट बताने वाली साधना

मुक्तानन्द स्वामी जी ! प्रणाम ! कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिये । मैं शिवजी और हनुमान जी की पूजा करता हूँ । मैं एक बिजनेस शुरू करने  वाला हूँ । क्या कोई ऐसी साधना है । जिससे मैं भविष्य में किसी चीज के रेट में कमी या बङोतरी को जानकर उसका लाभ उठा सकूँ । आपकी अति कृपा होगी । मेरी आयु 26 वर्ष है । दीपक ।
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उत्तर इसी स्थान पर शीघ्र जुङेगा ।

जहां सुख आनन्द और खुशी का असीम भण्डार मौजूद है

76 प्रश्न - महाराज जी ! भजन के अभ्यास में बैठने पर अक्सर ऐसा होता है कि मन तरह तरह के विचारों में उलझ जाता है । और भजन नहीं हो पाता । बाहर से देखने वाले तो यह समझते हैं कि मैं भजन कर रहा हूं । पर असलियत यह है कि जैसे मैं कपास ही औंटता रह जाता हूं । इस उलझन से कैसे मुक्ति मिले । कृपा कर उपाय बतलाइये ।
उत्तर - बहुधा अभ्यासियों को यह कहते हुए सुना गया है कि भजन, सुमिरन और ध्यान में मन कम लगता है । क्योंकि मन में तरह तरह के विचार उठा करते हैं । जो रोके से नहीं रूकते हैं । जब मन किसी बात की गुनावन उठाने लगता है । तब उसी में घुसता चला जाता है । और बहुत देर के बाद यह होश आता है कि हम तो बैठे हैं । आन्तरिक अभ्यास करने । लेकिन सोच रहे हैं । दुनियां की बातें । यह तो बहुत सा समय नष्ट हो गया । सन्तों का कहना है कि ऐसा इसलिये होता है कि मन अभी जैसा चाहिये । वैसा साफ़ नहीं हुआ है । क्योंकि उसमें अनेकों सांसारिक भोगों की इच्छायें भरी पडी है । अभ्यास में बैठकर जब अपनी सुरत को ऊपर की ओर चढाते हैं । तो वे इच्छायें बाधक होती हैं । मन उन्हीं का अभ्यस्त है । सुरत की धार बजाय भजन, सुमिरन और ध्यान के करने के मन की तरंगों में उलझ जाती है । और उसका बहाव नीचे की ओर हो जाता है । इस प्रवाह में अभ्यासी ऐसा कहता है कि उसे खबर ही नहीं होती कि मैं क्या कर रहा हूं ।
 इस समस्या को सुलझाने का उपाय सन्तों ने यह बताया है कि सत्संग चेत कर करें । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के वचनों को ध्यान पूर्वक सुनें । उन्हें भली भांति सोचें । और समझें । अर्थात उन पर मनन करें । 


साधन मन में से भोग विलास की बेकार की इच्छाओं को घटाता और हटाता जाय । तथा सन्त सदगुरू के श्री चरण कमलों में प्रीति और प्रतीति दिन रात बढाता जाय । जैसे तैसे भजन, सुमिरन, ध्यान में चाव बढाता जायेगा । उसमें उन्नति की इच्छा तीव्र होती जायेगी । जैसे तैसे अन्दर में दर्शनों के प्राप्ति की इच्छा ( लालसा ) प्रबल होती जायेगी । और संसार के भोगों की तरफ़ से मन सिमटने लगेगा । वैसे वैसे मन और सुरत शुद्ध होने लगेंगे । जब अभ्यास के समय माया और काल अभ्यासी के मन और सुरत को भोगों का लालच देकर अपनी तरफ़ खींचेंगे । उस समय निर्मल मन और निर्मल सुरत सावधान होकर भोगों की तरंगों और विचारों को हटाकर लगातार अपनी रूचि को भजन, सुमिरन, ध्यान में लगाकर ऊर्ध्वगामी होते जायेंगे । गुरू के वचनों के अन्दर, उनकी दया के अन्दर सभी गुण भरे हुए हैं । सन्तों का कहना है कि शिष्य वास्तव में वही है । जो गुरू के बतलाये हुए मार्ग पर चलकर अपने आध्यात्मिक मार्ग को प्रशस्त करता रहता है । तथा माया मोह से मन को मोडकर श्री सदगुरू नाम के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में बराबर अपनी सुरत को लगाये रहता है । साथ ही उनकी दया व कृपा की याचना सदा सदा करता रहता है । सच्चा सेवक वही है । जो गुरू के वचनों को कभी नहीं भूलता । उन्हें हर पल स्मरण करता रहता है । गुरू अमर देव जी महाराज कहते हैं - गुरू वचनी सुखु उपजै भाई । सभि फ़ल सदगुरू पास ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज के वचनों पर आचरण करने से ही सभी सुखों की प्राप्ति होती है । श्री सदगुरू देव जी महाराज ही तो सर्व फ़ल दाता, सर्व सुख प्रदाता हैं ।
यधपि मन को शुद्ध करने के लिये यानी मन में से सांसारिक भोगों की इच्छाओं को हटाने अथवा कम करने के 


लिये कुछ समय तक चाव से निरन्तर भजन, सुमिरन, ध्यान का अभ्यास करने की आवश्यकता है । फ़िर भी मनुष्य की कोई न कोई इन्द्रिय प्रबल रहती है । या काम । क्रोध । लोभ । मोह व अहंकार में से कोई न कोई प्रबल रहता है । जिसका वेग बहुत देर से घटता है । अत: इसके लिये सन्तों ने यह उपाय बताया है कि जब तक ऐसी हालत रहे । यानी जब तक भजन । सुमिरन । ध्यान के समय काम । क्रोध । मोह व अहंकार की तरंगे उठती रहें । तब तक अभ्यासी ध्यान पर अधिक से अधिक जोर दे । अर्थात ध्यान अधिक देर तक करे । और भजन थोडी देर करे । इसको इस तरह समझना चाहिये कि जितना ध्यान थोडी बहुत सफ़ाई से बन पडे । उतना ही करे । और अपने अभ्यास का शेष समय सुमिरन और ध्यान के अभ्यास में निरन्तर लगाये रहें । और श्री सदगुरू देव जी महाराज से दया व कृपा की याचना सदा करता रहे कि - हे मालिक ! मेरे मन और सुरत को अपने भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में सदा लगाये रखें । तथा आन्तरिक ऊर्ध्वगति की प्रगति सदा सदा बनाये रहें ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया ही शिष्य को मन, माया और काल के चंगुल से निकाल कर मोक्ष के मार्ग पर पहुंचाती है । या मोक्ष दिला देती है । श्री सदगुरू का शिष्य चाहे । हजारों कोस की दूरी पर क्यों न रहता हो । यदि वह गुरू की आज्ञा का पालन करता है । तो श्री सदगुरू देव जी महाराज का वरदहस्त वहां पर भी उसकी सहायता एवं रक्षा सदा करता रहता है ।
यदि आन्तरिक अभ्यास में अभ्यासी अपने मन और सुरत को भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में

लगता है । जैसा कि श्री सदगुरू देव जी महाराज ने बताया है । तो उस अभ्यास से जो प्रकाश होता है । उसके द्वारा साधक ऊपर की ओर चढता है । श्री सदगुरू अपने दया से बराबर साधक या अपने शिष्य की सम्हाल किया करते हैं । साधक का ध्यान के अभ्यास में जितना चाव व प्रेम है । उसी के हिसाब से मन और सुरत की धार ह्रदय के स्थान से उठकर अपने प्रियतम श्री सदगुरू देव जी महाराज से मिलने तथा उनका दर्शन करने के लिये तथा उनके श्री चरण कमल को स्पर्श करने के लिये ऊपर के मण्डलों से चढती चली जाती है । और उस मुकाम पर पहुंचकर भजन, सुमिरन व श्री सदगुरू के स्वरूप का ध्यान जमाती हुई श्री सदगुरू की सेवा में पडी रहती है । अत: गुरू भक्ति योग का आश्रय लेकर अपने भक्ति रूपी दिव्यता को पुन: पुन: प्राप्त करो । सुख । दुख । जन्म । मृत्यु आदि सभी द्वन्द्वों से पार हो जाओ ।
उपर्युक्त का सार यह है कि यदि कोई प्रबल इच्छा अभ्यासी के मन से भरी हुई है । और वह सोई पडी है । तो उसको भजन, सुमिरन और ध्यान का अभ्यास जागृत अवस्था में ला देता है । तब भजन, सुमिरन, ध्यान के समय श्री सदगुरू के प्रति चाव की अवस्था । प्रेम । श्रद्धा की धार । जो अभ्यासी के ह्रदय से उठती है । वह अन्य इच्छाओं की तरंगों को नहीं उठने देती । उन्हें दबाये तथा तथा सुलाये रखती है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति जितना प्रेम व श्रद्धा होगी । उतनी ही मात्रा में अभ्यासी को सुगमता से भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान करने का अवसर मिलता है । अगर उसने यानी साधक ने अपने ह्रदय में मालिक का नाम बसा लिया है । और मालिक की भक्ति कर ली । तो इस संसार में आकर 


जीना सार्थक हो गया । उसका मनुष्य जन्म मिलना सफ़ल हो गया । क्योंकि उसने भक्ति का सच्चा धन जमा कर लिया । जो लोक परलोक का संगी साथी । कहा गया है कि - नाम बिना जग जीवना । सो दादू किस काम ।
अगर मनुष्य जन्म पाकर भी साधक ने दिल में नाम की कमाई नहीं की । तथा मालिक की भक्ति नहीं की । तो फ़िर उसका जीना व्यर्थ है । जिसकी प्रीति प्रभु के श्री चरण कमलों में लग जाती है । उसकी सभी कुबुद्धि दूर हो जाती है । जिनके तन मन में अर्थात रोम रोम में श्री सदगुरू के नाम का मंत्र बस जाता है । श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि - ऐसे साधक के मन मन्दिर में सदा आनन्द ही आनन्द बरसता रहता है ।
दूसरे शब्दों में इसको यों समझ लेना चाहिये कि भजन । सुमिरन । ध्यान में तबियत का लगना इस बात पर आधारित है कि साधक के मन में कितना चाव या रूचि है । तथा कितना उसे प्रभु से प्रेम है । इसी प्रेम के सहारे वह विरोधी इच्छाओं का सामना कर सकता है । क्योंकि भजन, सुमिरन, ध्यान को चित्त में बसा ले । तो फ़िर साधक को किसी भी प्रकार का दुख व कष्ट कैसा ? दुख, कष्ट तो उसके पास भी नहीं फ़टक सकता । क्योंकि श्री सदगुरू सदा शिष्य के संग साथ रहते हैं ।
77 प्रश्न - महाराज जी ! उपदेश मिले काफ़ी दिन हो गये । दरबार में आना जाना भी बना रहता है । परन्तु अभी तक न तो विषयों से विराग हुआ । और न कोई आध्यात्मिक उन्नति ही समझ में आती है ।
उत्तर - जिस साधक के मन में श्री सदगुरू के प्रति अगाध प्रेम पैदा हो गया है । और उसे अन्दर में सदगुरू के दर्शन 


पाने की ललक लगी हुई है । तो भजन, सुमिरन, ध्यान करते समय जब जब मन में भोगों की चाह उठेगी । तब तब वही श्री सदगुरू का भजन और भक्ति की शक्ति उन मलीन चाहों को भक्त के रास्ते से हटा देगी ।
श्री सदगुरू के प्रति प्रेम तथा उनके दर्शनों का चाव सुरत की चढाई में अत्यन्त सहायक होता है । जब जब सदगुरू की भक्ति की धार साधक के ह्रदय में उठकर ऊपर के मण्डलों की ओर चलती है । तब तब साधक के मन और सुरत की धार को, जो प्रेम की धार के साथ चलती है । निर्मल और शुद्ध करती हुई ऊपर की ओर खिंचती है । श्री सदगुरू की कृपा उस प्रेम की धार को शक्ति प्रदान करती है । और अन्दर में भजन । सुमिरन । पूजा । दर्शन । ध्यान के चाव और बाहरी सेवा को बढाती है । जितनी जितनी श्री सदगुरू के भजन और भक्ति के चाव की धार ऊपर की ओर चढती जाती है । उसी अनुपात में ऊंचे मण्डलों का रस व आनन्द मिलता जाता है । शान्ति व शीतलता का अनुभव होने लगता है । जिसके फ़लस्वरूप मलिन इच्छायें बलहीन होने लगती हैं । इस प्रकार अभ्यास दिन रात बढता जाता है । अर्थात एक मण्डल से दूसरे मण्डल और दूसरे से तीसरे तथा अगले धामों तक उन्नति करते करते सतलोक तथा अनामी पद तक पहुंच जाता है । यह सब श्री सदगुरू की असीम दया का ही फ़ल है । अर्थात यह सब श्री सदगुरू के नाम के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान करने से ही होता है । जिसमें साधक की सुरत की धार को ऊर्ध्वगामी करके सदगुरू की दया आन्तरिक चक्रों के शिखर तक पहुंचा देती है । यह एकमात्र श्री सदगुरू की असीम दया की ही देन है ।
पूरण सदगुरू की किरपा से । नाम का दान यहां मिलता है । जिनके सुमिरन से जन्मों की । बिगडी किस्मत

बनती है । दामन द्वार पै फ़ैलाता जो । पाता यह दात रूहानी है ।
श्री स्वामी जी महाराज समझाते हुए कहते हैं कि - साधना करने वाले साधक के लिये आन्तरिक अभ्यास बहुत आसान है । जिसे पुरूष, स्त्री, बालक भी सुगमता पूर्वक कर सकते हैं । परन्तु सबके लिये यह आवश्यक है कि आन्तरिक अभ्यास और सुरत को ऊपर चढाने के लिये मन में श्रद्धा हो । तथा मन में लगन व चाव हो । और सन्त सदगुरू के श्री चरण कमलों में प्रेम हो । तो उसे आनन्द ही आनन्द की प्राप्ति होती है । ऐसा भाव हो । तो मन व सुरत ऊंचे मण्डलों पर चढकर रस व आनन्द की प्राप्ति करती है । इसलिये अभ्यासी को चाहिये कि अपने मन को संसार और उसके भोग पदार्थों से हटाकर या उपराम होकर श्री सदगुरू के प्रति अपने मन में सच्चा प्रेम उत्पन्न करने का प्रयास करे । और साथ ही साथ श्री सदगुरू के श्री चरण कमलों में अनुराग पैदा करे । तथा उसे दृढ करता जाय । दिनों दिन इस अभ्यास को बढाता जाय । ऐसा करने से ही आन्तरिक अभ्यास में उन्नति होगी । सन्तों का कहना है कि ये वैराग्य और अनुराग सन्तों की अमृतवाणी को सुनने से जल्दी आते हैं ।
श्री सदगुरू भगवान के साथ प्रेम करने से शान्ति की उपलब्धि होती है । और सभी प्रकार के आधिदैविक । आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक दुखों से छुटकारा मिल जाता है ।


अभ्यास के मामले में श्री स्वामी जी महाराज कहा करते थे कि जिस साधक का मालिक यानी श्री सदगुरू देव जी के प्रति जितना अच्छा श्रद्धा भाव होता है । वह उतनी ही अच्छी प्रगति करता है । इसलिये यदि नाम । भजन । सुमिरन । ध्यान के करने तथा नित्य सुख । शाश्वत आनन्द और सच्ची खुशी को प्राप्त करने की मन में अभिलाषा है । तो अपनी सुरत को बाह्य संसार से हटाकर उसे अन्दर की ओर मोडो । जहां सुख आनन्द और खुशी का असीम भण्डार मौजूद है । सुरत को अन्तर्मुखी करने की अर्थात अपने अन्दर की ओर मोडने की युक्ति । जिसे सुरत शब्द योग कहते हैं । समय के पूर्ण सदगुरू की दया से ही प्राप्त होती है ।
जीवों के दुख हरण को । लिया सन्त औतार ।  परमहंस के रूप में । प्रगटे स्वयं करतार । सतगुरू सम हितु को नहीं । देखा सब संसार । प्रणत पाल गुरूदेव जी । पल पल करें संभार ।
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ये शिष्य जिज्ञासा की सुन्दर प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा जी द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।
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