सोमवार, अगस्त 16, 2010

राम लक्ष्मण सीता का अंतिम समय ।


राम के अश्वमेघ यज्ञ में नैमिषारण्य में बहुत सुन्दर व्यवस्था की गयी । सीता की सोने की प्रतिमा बनवाई गई । लक्ष्मण को सेना और शुभ लक्षणों से सम्पन्न अश्‍व के साथ विश्‍व भ्रमण के लिये भेजा गया । इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये महर्षि वाल्मीकि भी लव कुश के साथ आये । उन्होंने लव कुश से कहा । कि वे दोनों भाई नगर में घूमते हुये रामायण का गान करें । और कोई पूछे कि तुम किसके पुत्र हो । तो कहना हम ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं । लव कुश रामायण का गान करने के लिये चल पड़े । उनके द्वारा भावपूर्ण सीता चरित्र और रामकथा सुनकर अयोध्यावासियों ने यह समाचार राम को बताया । नगरवासियों द्वारा यह बात सुनकर राम ने वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया । यदि सीता का चरित्र शुद्ध है । तो वे आपकी अनुमति से यहाँ आकर सबके सामने अपनी शुद्धता प्रमाणित करें । और मेरा कलंक दूर करें । तो मुझे बेहद खुशी होगी । वाल्मीकि ने कहा । ऐसा ही होगा । सीता वही करेगीं । जो राम चाहेंगे क्योंकि स्त्री के लिये पति ही परमात्मा होता है । यह खबर मिलते ही राम ने सब ऋषि । मुनियों । नगरवासियों को उस समय उपस्थित रहने के लिये निमन्त्रित किया । दूसरे दिन सीता को देखने के लिये अनेकों ऋषि । मुनि । विद्वान । नागरिक उपस्थित हो गये । निश्‍चित समय पर वाल्मीकि सीता को लेकर आये । आगे वाल्मीकि और उनके पीछे दोनों हाथ जोड़े । आँसू बहाती हुयी सीता आ रही थीं । सीता की दीन दशा देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुखी हो गया और वे शोकाकुल होकर आँसू बहाने लगे । वाल्मीकि बोले । श्रीराम । मैं तुम्हें विश्‍वास दिलाता हूँ कि सीता पवित्र है । कुश और लव आपके ही पुत्र हैं । मैं कभी मिथ्या नहीं कहता । यदि मेरा कथन मिथ्या हो । तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय । लेकिन इसके बाद भी देवी सीता स्वयं आपको निर्दोषिता का प्रमाण देगी ।यह बात सुनकर सभा के बीच खड़ी सीता को देखकर राम बोले । हे ऋषिश्रेष्ठ । आपका कथन सत्य है । और मुझे आपकी बात पर पूरा विश्‍वास है । वास्तव में सीता ने अपनी सच्चरित्रता का विश्‍वास मुझे अग्नि के समक्ष ही दिला दिया था । परन्तु लोकापवाद के कारण ही मुझे सीता को त्यागना पड़ा । आप मुझे इस अपराध के लिये क्षमा करें । इसके बाद राम उपस्थित जनसमूह को देखते हुये बोले । हे मुनि एवं उपस्थित सज्जनों । मुझे महर्षि के कथन पर पूर्ण विश्‍वास है । परन्तु यदि सीता स्वयं सबके सामने अपनी शुद्धता का प्रमाण दें तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी । यह सुनकर सीता हाथ जोड़कर सिर झुकाये हुये ही बोलीं । मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथ के अतिरिक्‍त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें । सीता के इतना कहते ही पृथ्वी फटी । उसमें से एक सिंहासन निकला । उसी के साथ पृथ्वी देवी रूप में प्रकट हुईं । उन्होंने सीता को उठाकर प्रेम से सिंहासन पर बैठा लिया । देखते ही देखते सिंहासन पृथ्वी में समा गया । सब लोग भौंचक्के से यह द‍ृश्य देखते रह गये । वातावरण में सन्नाटा छा गया । इस घटना से राम को बहुत दुःख हुआ । उनकी आंखो से आंसू बहने लगे । वह बोले । मैं जानता हूँ । तुम ही सीता की सच्ची माता हो । राजा जनक ने हल जोतते हुये तुमसे ही सीता को पाया था । परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो । या मुझे भी अपनी गोद में समा लो । राम को इस प्रकार विलाप करते देख सबने उन्हें सान्त्वना देकर समझाया ।
इस प्रकार सीता के धरती में समाने के बाद राम को राज्य करते हुये बहुत समय हो गया । तब एक दिन काल तपस्वी के वेश में राजद्वार पर आया । उसने कहा । मैं महर्षि अतिबल का दूत हूँ । और अति आवश्यक कार्य से राम से मिलना चाहता हूँ । राम ने उसे तुरन्त बुलाया और बैठने को आसन दिया । तब मुनि वेषधारी काल ने कहा । यह बात अत्यन्त गोपनीय है । यहाँ हम दोनों के अतिरिक्‍त कोई अन्य नहीं होना चाहिये । तब मैं आपको वह बात बता सकता हूँ कि यदि बातचीत के समय कोई व्यक्‍ति आ जाये तो आप उसका वध कर देंगे । यह सुनकर राम ने लक्ष्मण से कहा । तुम इस समय द्वारपाल को हटाकर स्वयं द्वार पर खड़े हो जाओ । ध्यान रहे । इनके जाने तक कोई यहाँ न आ पाये । इस बीच जो भी आयेगा । मेरे द्वारा मारा जायेगा । जब लक्ष्मण चले गये तो राम ने काल से सन्देश सुनाने के लिये कहा । काल बोला । मैं आपकी माया द्वारा उत्पन्न आपका पुत्र काल हूँ । ब्रह्मा जी ने कहलाया है । कि आपने जो प्रतिज्ञा की थी वह पूरी हो गई । अब आपके अपने लोक जाने का समय हो गया है । फ़िर भी आप यहाँ रहना चाहें तो ये आपकी इच्छा है । राम ने कहा । जब मेरा कार्य पूरा हो गया तो फिर मैं यहाँ क्या करूँगा ? मैं शीघ्र ही अपने लोक को लौटूँगा । जब काल इस प्रकार वार्तालाप कर रहा था । उसी समय महल के द्वार पर महर्षि दुर्वासा राम से मिलने आये । और लक्ष्मण से बोले । मुझे अभी राम से मिलना है । देर होने से मेरा काम बिगड़ जायेगा । इसलिये तुम उन्हें तुरन्त मेरे आने की सूचना दो । लक्ष्मण बोले । भैया इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं । आप मुझे आज्ञा दें । जो भी कार्य होगा । मैं पूरा करूँगा । यदि उन्हीं से मिलना हो तो थोडी प्रतीक्षा करनी होगी । यह सुनते ही दुर्वासा को क्रोध आ गया । और वह बोले । तुम अभी राम को मेरे आने की सूचना दो । नहीं तो मैं शाप देकर समस्त रघुकुल और अयोध्या को इसी क्षण भस्म कर दूँगा । दुर्वासा की बात सुनकर लक्ष्मण ने सोचा । चाहे मेरी मृत्यु हो जाये । रघुकुल का विनाश नहीं होना चाहिये । यह सोचकर उन्होंने राम के पास जाकर दुर्वासा के आने का समाचार सुनाया । राम काल को विदा कर महर्षि दुर्वासा के पास पहुँचे । उन्हें देखकर दुर्वासा ने कहा । राम । मैंने बहुत समय तक उपवास करके आज इसी समय अपना व्रत खोलने का निश्‍चय किया है । इसलिये तुम्हारे यहाँ जो भी भोजन तैयार हो तुरन्त मँगाओ । राम ने दुर्वासा को भोजन कराकर विदा कर दिया । फिर वे काल कि दिये अपने वचन को यादकर लक्ष्मण से वियोग की आशंका से अत्यन्त दुखी हुये । राम को दुखी देखकर लक्ष्मण बोले । प्रभु । यह तो काल की गति है । आप दुखी न हों । और निश्‍चिन्त होकर मेरा वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें । लक्ष्मण की बात सुनकर राम और भी व्याकुल हो गये । उन्होंने वसिष्ठ तथा मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें पूरा वृतान्त सुनाया । यह सुनकर वसिष्ठ बोले । राम । आप सबको शीघ्र ही यह संसार त्याग कर अपने अपने लोकों को जाना है । इसका प्रारम्भ सीता के प्रस्थान से हो चुका है । इसलिये आप लक्ष्मण का त्याग कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें । प्रतिज्ञा नष्ट होने से धर्म का लोप हो जाता है । साधु पुरुषों का त्याग करना । उनके वध करने के समान ही होता है। वसिष्ठ की बात मानकर राम ने दुखी मन से लक्ष्मण का त्याग कर दिया । लक्ष्मण सरयू के तट पर आये । जल का आचमन कर हाथ जोडे । प्राणवायु को रोका । और अपने प्राण विसर्जन कर दिये । तब शोकाकुल राम ने सबको बुलाकर कहा । अब मैं अयोध्या के सिंहासन पर भरत को बैठाकर स्वयं वन को जाना चाहता हूँ ।यह सुनते ही सब रोने लगे । भरत ने कहा । मैं भी अयोध्या में नहीं रहूँगा । मैं आपके साथ चलूँगा । आप मेरी बजाय कुश और लव का राज्याभिषेक कीजिये । प्रजा भी कहने लगी । हम सब भी आपके साथ ही चलेंगे । तब राम ने विचार करके उन्होंने दक्षिण कौशल का राज्य कुश को । और उत्तर कौशल का राज्य लव को सौंपकर उनका अभिषेक किया । कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती । और लव के लिये श्रावस्ती नगर का निर्माण कराया । फिर उन्हें अपनी अपनी राजधानी जाने का आदेश दिया । इसके बाद एक दूत भेजकर मधुपुरी से शत्रघ्न को बुलाया । दूत ने शत्रुघ्न को लक्ष्मण के त्याग । लव कुश के अभिषेक आदि की सभी बातें बताईं । इस घोर हाहाकारी वृतान्त को सुनकर शत्रुघ्न अवाक् रह गये । उन्होंने अपने दोनों पुत्रों सुबाहु और शत्रुघाती को अपना राज्य दे दिया । उन्होंने सबाहु को मथुरा का और शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंप तुरन्त अयोध्या के लिये प्रस्थान किया । अयोध्या पहुँचकर वे बड़े भाई से बोले । मैं भी आपके साथ जाने के लिये तैयार होकर आ गया हूँ । कृपया मुझे रोकना नहीं । इसी बीच सुग्रीव भी आ गये ।
उन्होंने कहा । मैं अंगद का राज्याभिषेक करके आपके साथ ही जाने के लिये आया हूँ । सुग्रीव की बात सुनकर राम मुस्कुराये । और बोले । बहुत अच्छा । फिर विभीषण से बोले । विभीषण । मैं चाहता हूँ । तुम इस संसार में रहकर लंका में राज्य करो । यह मेरी हार्दिक इच्छा है । आशा है । तुम इसे अस्वीकार नहीं करोगे । भारी मन से विभीषण ने राम का आदेश माना । राम ने हनुमान को भी सदैव पृथ्वी पर रहने की आज्ञा दी । जाम्बवन्त । मैन्द । और द्विविद को द्वापर । तथा कलियुग की सन्धि तक । जीवित रहने का आदेश दिया । अगले दिन सुबह राम ने वसिष्ठ की आज्ञा से महाप्रस्थान हेतु सब तैयारी की । और पीताम्बर धारणकर हाथ में कुशा लेकर राम ने वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ सरयू की ओर प्रस्थान किया । वह सूर्य के समान मालूम पड़ रहे थे । उस समय उनके दक्षिण भाग में । साक्षात् लक्ष्मी । वाम भाग में भूदेवी । और उनके समक्ष संहार शक्‍ति चल रही थी । उनके साथ बड़े बड़े ऋषि मुनि और समस्त ब्राह्मण मण्डली थी । वे सब स्वर्ग का द्वार खुला देख उनके साथ दौडे जाते थे । उनके साथ राजमहल के सभी वृद्ध स्त्री पुरुष भी चल रहे थे । भरत व शत्रुघ्न भी अपने अपने रनवासों के साथ श्रीराम के संग संग चल रहे थे । सब मन्त्री तथा सेवक अपने परिवार सहित उनके पीछे थे । उन सबके पीछे मानो सारी अयोध्या ही चल रही थी । रीछ ‌और वानर भी किलकारियाँ मारते । उछलते कूदते । दौड़ते हुये चले जा रहे थे । लेकिन कोई भी दुःखी अथवा उदास नहीं था । इस प्रकार चलते हुये वे सब सरयू के पास पहुँच गये । उसी समय ब्रह्मा सब देवताओं और ऋषियों के साथ वहाँ आ पहुँचे । श्रीराम को स्वर्ग ले जाने के लिये बहुत से सुसज्जित विमान आये थे । उस समय आकाश दिव्य तेज से चमकने लगा । शीतल मंद सुगन्धित वायु बहने लगी । आकाश में गन्धर्व दुन्दुभी बजाने लगे । अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । देवता फूल बरसाने लगे । राम ने सब भाइयों और जनसमुदाय के साथ सरयू में प्रवेश किया । तब आकाश से ब्रह्माजी बोले । हे राम । आपका मंगल हो । हे विष्णुरूप रघुनन्दन । आप अपने भाइयों के साथ अपने लोक में प्रवेश करें । चाहें आप विष्णु रूप धारण करें । और चाहें सनातन आकाशमय अव्यक्‍त ब्रह्मरूप रहें । ब्रह्मा की स्तुति सुनकर राम वैष्णवी तेज में प्रविष्ट होकर विष्णुमय हो गये । सब देवता । ऋषि । मुनि । इन्द्र आदि उनकी पूजा करने लगे । यक्ष । किन्नर । अप्सराएँ आदि उनकी स्तुति करने लगे । तभी विष्णुरूप राम ब्रह्मा से बोले । हे सुव्रत । ये जितने भी जीव मेरे साथ आये हैं । ये सब मेरे भक्‍त हैं । इन सबको स्वर्ग में रहने के लिये उत्तम स्थान दीजिये । तब ब्रह्मा ने सबको ब्रह्मलोक के समीप स्थित । संतानक । नामक लोक में भेज दिया । वानर और रीछ आदि जिन देवताओं के अंश से उत्पन्न हुये थे । वे सब उनमें लीन हो गये । सुग्रीव ने सूर्यमण्डल में प्रवेश किया । उस समय जिसने भी सरयू में डुबकी लगाई । वहीं शरीर त्यागकर परमधाम चला गया ।

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