बुधवार, अगस्त 11, 2010

इस संसार में मरे हुये प्राणी का कौन हितैषी होता है ।

आत्मा ( शरीर ) ही पुत्र के रूप मे प्रकट होता है । वह पुत्र यमलोक में पिता का रक्षक है । घोर नरक से पिता का वही उद्धार करता है अतः उसको पुत्र कहा जाता है । अतः पुत्र को पिता के लिये आजीवन श्राद्ध करना चाहिये । तब वह प्रेत रूप हुआ पिता पुत्र द्वारा दिये गये दान से सुख प्राप्त करता है । प्रेत के निमित्त
दी जलांजलि से वह प्रसन्न होकर यमलोक जाता है । चौराहे पर रस्सी की तिगोडिया में कच्चे घडे में लटकाया दूध वायु भूत हुआ वह प्रेत मृत्यु के दिन से तीन दिन तक । आकाश में स्थित उस दूध का पान करता है । अस्थि संचय चौथे दिन करके दिन का प्रथम पहर बीत जाने पर जलांजलि दें । पूर्वाह्न मध्याह्न तथा अपराह्न तथा इनके संधिकाल में जलांजलि नहीं दी जाती । जो मनुष्य जिस स्थान । मार्ग । या घर में मृत्यु को प्राप्त करता है । उसको वहां से शमशान भूमि के अतिरिक्त कही नहीं ले जाना चाहिये । मृत प्राणी वायु रूप धारण करके इधर उधर भटकता है । और वायु रूप होने से ही ऊपर की ओर जाता है । तब वह प्राप्त हुये शरीर के द्वारा ही अपने पुन्य और पाप के फ़लों का भोग करता है । दशाह कर्म करने से मृत मनुष्य के शरीर का निर्माण होता है । नवक और षोडश श्राद्ध करने से जीव उस शरीर में प्रवेश करता है । भूमि पर तिल कुश का निक्षेप करने से वह कुटी धातुमयी हो जाती है । मरणासन्न के मुख में पंच रत्न डालने से जीव ऊपर की ओर चल देता है । यदि ऐसा नहीं होता तो जीव को शरीर प्राप्त नहीं होता । जीव जहां
कहीं पशु या स्थावर योनि में जन्मता है । श्राद्ध में दी गयी वस्तु वहीं पहुंच जाती है । जब तक मृतक के सूक्ष्म शरीर का निर्माण नहीं होता । तब तक किये गये श्राद्ध से उसकी त्रप्ति नहीं होती । भूख प्यास से व्याकुल वह वायुमण्डल में इधर उधर चक्कर काटता हुआ दशाह के श्राद्ध से त्रप्त होता है । जिस मृतक का पिन्डदान नहीं होता । वह आकाश में ही भटकता रहता है । वह क्रम से लगातार तीन दिन जल तीन दिन अग्नि तीन दिन आकाश और एक दिन पूर्व मोह ममता के कारण अपने घर में निवास करता है । इसलिये अग्नि में भस्म हो जाने पर प्रेतात्मा को जल से ही त्रप्त करना चाहिये । मृत्यु के पहले तीसरे पांचवे सातवें नवें और ग्यारहवें दिन जो श्राद्ध होता है उसे नवक श्राद्ध कहते हैं । एकादशाह के दिन के श्राद्ध को सामान्यश्राद्ध कहते हैं ।
जिस प्रकार गर्भ में स्थित जीव का पूर्ण विकास दस मास में होता है । उसी प्रकार दस दिन तक दिये गयेपिन्डदान से जीव के उस शरीर की सरंचना होती है । जिस शरीर से उसे यमलोक की यात्रा करनी होती है । पहले दिन जो पिन्डदान दिया जाता है । उससे जीव की मूर्द्धा का निर्माण होता है ।
दूसरे दिन के पिन्डदान से आंख कान और नाक की रचना होती है । तीसरे दिन गण्डस्थल मुख तथा गला । चौथ पिन्ड से ह्रदय कुक्षि प्रदेश उदर भाग । पांचवे दिन कटि प्रदेश पीठ और गुदाभाग । छठे दिन दोनों उरु । सातवें दिन गुल्फ़ । आठवें दिन जंघा । नौवें दिन पैर । तथा दसवें दिन प्रबल क्षुधा की उत्पत्ति होती है ।
मानव शरीर में जो अस्थियो का समूह है । उनकी कुल सख्या तीन सौ साठ है । जल से भरे घडे का दान करने से उन अस्थियों की पुष्टि होती है । इसलिये जल युक्त घटदान से प्रेत को बहुत प्रसन्नता होती है । जिस प्रकार सूर्य की किरणें अपने तेज से सभी तारों को ढक देती हैं । उसी प्रकार प्रेतत्व पर इन क्रियाओ का आच्छादन होने से भविष्य में प्रेतत्व नहीं मिलता । अतः सपिन्डन के बाद कहीं प्रेत शब्द का प्रयोग नहीं होता । मृतक के हेतु शय्यादान की बेहद प्रसंशा की गयी है । यह जीवन अनित्य है । उसे मृत्यु के बाद कौन प्रदान करेगा । जब तक यह जीवन है । तभी तक बन्धु बान्धव अपने हैं । और अपने पिता हैं । ऐसा कहा जाता है । मृत्यु हो जाने पर । यह मर गया है । ऐसा जान करके क्षण भर मे ही वे अपने ह्रदय से स्नेह को दूर कर देते हैं । इसलिये अपना आत्मा ही अपना सच्चा हितैषी है । ऐसा बारम्बार विचार करते हुये जीते हुये ही अपने हित के कार्य कर लेने चाहिये । अन्यथा इस संसार में मरे हुये प्राणी का कौन हितैषी होता है । अर्थात कोई नहीं होता । क्या इसमें कोई संशय है ?

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