शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

वह प्रेम जो नदी की तरह है

जब तक कि अहं की कोई भी गतिविधि है । ध्यान संभव नहीं । यह शाब्दिक रूप से नहीं । बल्कि असलियत में जानना समझना बहुत ही जरूरी है । ध्यान मन को अहं की सारी गतिविधियों । स्व । मैं मेरे की सारी गतिविधियों से खाली करने की प्रक्रिया है । यदि आप अपने अहं की गतिविधियों । क्रिया । कार्य । कलापों को नहीं समझते । तो आपका ध्यान आपको आत्म वंचना ( खुद ही अपने को ही धोखा देना ) और विक्षिप्तता की ओर ले जायेगा । तो यह जानने के लिए कि - ध्यान क्या है ? आपको अपन अहं के क्रिया । कार्य । कलापों । गतिविधियों को समझना होगा ।
आपके अहं या स्व के पास हजारों सांसारिक संवेदनाएं । अहसास । बौद्धिक अनुभव हैं । पर यह इन सबसे बोर हो चुका है । क्योंकि इन सबका कोई अर्थ नहीं है । वृहत । अधिक विशाल । परा शक्तियों के अनुभवों से समृद्ध करने की इच्छा भी आपके ”अहं“ का ही एक हिस्सा है ।
विचार को खत्म करने के लिए । हमें सर्वप्रथम तो सोचने विचारने के मशीनी तरीके को समझना होगा । हमें अपने भीतर । गहरे तक विचार को ही पूरी तरह समझना होगा । हमें प्रत्येक विचार की जॉंच करनी होगी । किसी भी विचार को बिना समझे जाने दिये । कोई भी विचार ऐसा नहीं होना चाहिए । जो बिना हमारी जॉंच । हमारे ज्ञान । और समझ के बिना । हमारे मन में हो । इसके लिए हमारा मस्तिष्क । मन । और हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व । बहुत ही सावधान । सचेत होना चाहिए ।
जब हम विचार की जड़ तक जाते हैं । पूरी तरह उसके अंत तक जाते हैं । उस समय हम देखेंगे कि - विचार स्वयं के द्वारा ही समाप्त होता है । हमें इसके खात्मे के लिए कुछ अतिरिक्त नहीं करना होता । क्योंकि विचार एक स्मृति

या याद है । स्मृति अनुभव के छोड़े हुए निशान या चिन्ह हैं । और जबकि अनुभव को पूरी तरह सम्पूर्ण रूप से नहीं समझा गया होता । वह निशान छोड़ता है। यदि हम अनुभव को सम्पूर्णता में अनुभव करते हैं । जीते हैं । तब उस पल अनुभव अपने पीछे कोई निशानी नहीं छोड़ता । तो यदि हम प्रत्येक विचार की जड़ तक जायें । और देखें कि - निशान हैं । और यह निशान तथ्य रूप में हैं । तो हमें इस तथ्य को उघाड़ना होगा । उसे खोलना होगा । और उसकी विचार श्रंखला, विचार प्रक्रिया को समझकर उसके अंत तक जाना होगा । ताकि हमारे मन में प्रत्येक विचार । प्रत्येक अहसास । हमारे अपने द्वारा समझा बूझा हुआ हो ।
आपको इस नीरवता की अवस्था में आना ही चाहिए । अन्यथा आप वास्तव में धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं । इसी अमित मौन के पार वह है - जो पवित्र पावन है ।
धार्मिक मन वह मन है ? जो अज्ञात में प्रवेश कर चुका है । और आप अज्ञात में छलांग लगाकर नहीं आ सकते । आप सावधानी पूर्वक गणित बैठाकर अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकते ।
आप यह जानना ही चाहिये कि - सत्य क्या है ? क्योंकि यही वह चीज है । जो महत्वपूर्ण और अर्थवान है । यह नहीं कि - आप अमीर हैं । या गरीब । आप खुशहाली शादी शुदा जिन्दगी जी रहे हैं । या आपके बच्चे है । या नहीं । क्यों वह सब समाप्त हो जायेगा । वहां निश्चित ही मृत्यु है । तो किसी भी विश्वास या मान्यता के किसी भी रूप के बगैर आपको सच खोजना ही पड़ेगा ।
धर्म भलमनसाहत का अहसास है । वह प्रेम जो नदी की तरह है । जीवन्त । नित्य प्रवाहमान । इसी अवस्था में एक ऐसा क्षण आता है । जिसमें आप पाएंगे कि - अब कोई खोज शेष नहीं रही । और इस खोज की समाप्ति में ही उसकी शुरूआत है । जो सर्वथा अनूठा है ?
ईश्वर की खोज । सत्यकीखोज । सम्पूर्ण रूप से भले हो जाने के अहसास की खोज । धर्म है । ना कि अच्छाई । नमृता आदि गढ़ना । विकसित करना । धर्म है । मन की खोजों और चालाकियों से परे । किसी अनाम का अहसास । उसमें जीना । वही आपका अस्तित्व होना । यही सच्चा धर्म है । लेकिन आप यह तभी कर सकते हैं । जब आप उस गड्ढे से निकले । जो आपने अपने लिये खोदा है । और जीवन की नदी की तरफ बढ़ें । तब जीवन के पास आपको संभालने का अपना आश्चर्यजनक तरीका है । क्योंकि तब आप खुद की संभाल की जिम्मेदारी अपने 


पास नहीं रखते । जीवन अपनी इच्छा से आपको जहां चाहे वहां ले जाता है । क्योंकि आप उसी का हिस्सा हैं । तब आपको सुरक्षा की समस्या नहीं रहती । तब आपको यह समस्या नहीं रहती कि - कौन आपके बारे में क्या कहता है ? और क्या नहीं कहता ? और यही जीवन का सौन्दर्य है ।
प्रश्न - किसी बात की सम्पूर्णता देखने से क्या आशय है ? क्या यह कभी संभव है कि - हम किसी गतिमान चलायमान चीज की सम्पूर्णता को महसूस कर सकें ?
क्या आप इस प्रश्न को समझ रहे हैं ? यह एक अच्छा प्रश्न है ? तो क्या हम और आप मिलकर इस प्रश्न को बूझने की कोशिश करें ?
जैसा कि हमने पहले प्रश्न की खोजबीन में कहा कि - हमारी चेतना की सम्पूर्णता । जो चेतना ‘‘मैं’’ के रूप में केन्द्रीकृत है । स्व आत्म के रूप में । अहंवादी गतिविधि में । स्व केन्द्रित कार्य व्यवहार में चलाय मान है । जो हमारी चेतना की सम्पूर्णता है । ठीक ? अब क्या हमे इसे पूरी तरह से देख सकते है ? बिल्कुल हम देख सकते हैं । क्या यह कठिन है ? तो बात ये है कि - किसी की भी चेतना से ही उसके सभी पक्ष बनते हैं । ठीक ? तो यह स्पष्ट हुआ ?
तो मेरी ईर्ष्‍या । मेरी राष्ट्रीयता । मेरे विश्वास । मान्यताएं । मेरे अनुभव । और इत्यादि आदि । यही उसके पक्ष या तत्व हैं । जिसे चेतना कहते हैं ।
इसके मूल में मैं हूँ ।आत्म हूं । ठीक ? तो इस बात को अब पूरी तरह से देखते हैं । क्या आप ऐसा कर सकते हैं ? बिल्कुल । आप ऐसा कर सकते हैं । जिसका मतलब है कि - उसे पूरी अवधानता । या होश से देखना ।
पुनः हम कदाचित ही किसी बात पर पूरा ध्यान देते हैं । तो अब हम एक दूसरे से कह रहे हैं कि - इस पक्षों इन तत्वों पर पूर्ण ध्यान देते हुए देखें । इस आत्म पर । इस स्व । या मैं पर । जो कि इसका निचोड़ है । मूल है । इसे अवधान पूर्वक देखें । तो आप सम्पूर्णत्व देख पायेंगे ।
इसके साथ ही प्रश्न कर्ता ने यह भी कहा है कि - जो कि रूचिकर भी है कि क्या यह कभी संभव है कि किसी चलायमान चीज की सम्पूर्णता को जाना । समझा । महसूस किया जा सकता है ? तो क्या आपकी चेतना के तत्व चलायमान हैं ? यह अपनी ही सीमाओं में चल रहे हैं ।
देखिये । चेतना में क्या चलायमान है ? मोह । जुड़ाव । किसी से न जुड़ने का भय । वह भय कि मैं किसी से न जुड़ा । तो कया होगा ? जो क्या है ? अपनी ही परिधि में गतिविधि । अपने ही सीमित क्षेत्र में गतिमान रहना । जो आप देख ही रहे हैं । जिसका आप निरीक्षण कर रहे हैं । तो आप देख सकते हैं । जो सीमित ही है । अगर हम इसमें और जरा गहरे जायें । तो चौंकियेगा मत । तो क्या हमारी चेतना ही अपने तत्वों के साथ जी रही है ? क्या आप मेरे प्रश्न को समझे ? क्या मेरे विचार ख्याल ही जिन्दा हैं ? आपकी मान्यताएं ही जी रही हैं ? तो क्या जी रहा है ? क्या आप

इस सबको समझ बूझ रहे हैं ? किसी ने अनुभव किया । खुशी । दुख । भला । बुरा । तथाकथित बुद्धत्व । आपके पास सत्य का अनुभव । या बुद्धत्व का अनुभव नहीं है । ये अप्रासंगिक है । तो क्या वह अनुभव है । जो आप जी रहे हैं ? या उस अनुभव की याद है ? जो आप जी रहे हैं ? ठीक ? तो याद । न कि तथ्य । तथ्य । यथार्थ तो जा चुका है । लेकिन वो जो स्मृति की गतिविधि । यादों का चलना है । उसे हम जीना कह रहे हैं । तो अनुभव जो चले गये हैं । बीत चुके हैं । निश्चित ही वही याद किये जा रहे होते हैं । और इस याद करने को ही हम जिन्दगी जीना कह रहे हैं । यह आप देख सकते हैं । पर वो नहीं । जो बीत ही चुका है । मुझे आश्चर्य होगा । यदि आप यह देख पायें ?
तो हम जिसे जीना कह रहे हैं । वो वो चीज है । जो हो चुका है । जा चुका है । देखिये श्रीमान ! आप क्या कर रहे हैं ? जो कि जा चुका है । और मृत है । हमारा मन बहुत ही मरा हुआ है । और इस सबकी यादों को हम जीवन कह रहे हैं । यह हमारे जीवन की त्रासदी है । मुझे वो दोस्त याद है । जो मेरा हुआ करता था । जो चला गया है । भाई । बहन । पत्नी । स्‍वर्गवासी माँ । ये सब याद हैं । तो क्या यह यादें । जो उनके चित्रों को देखने से मैं याद कर रहा हूं । यही जीना है ? क्या आप समझे श्रीमान ? और यही है । जिसे हम जीना या जीवन कहते हैं । जे. कृष्णमूर्ति

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