शुक्रवार, अप्रैल 06, 2012

क्या दुख का अंत हो सकता है ?

माना कि मैं किसी वस्तु या व्यक्ति से जुड़ गया हूँ । लेकिन क्या मैंने उस विषय । वस्तु । या व्यक्ति से जुड़ने से एकदम पूर्व के हालातों को देखा ? इस जुड़ने में क्या क्या शामिल था ? और यह जुड़ाव कैसे पैदा हुआ । क्यों हुआ ? क्या मैंने इस जुड़ने की घटना की सम्पूर्ण प्रकृति को देखा ?
क्या मैं किसी वस्तु या व्यक्ति से इसलिए जुड़ा । क्योंकि मैं अकेला था । मैं सुविधा चाहता था । मैं किसी पर निर्भर होना चाहता था । या क्योंकि मैं अपने आपके साथ ही नहीं रह पा रहा था ? मैं साहचर्य चाहता था । मैं चाहता था कि मुझसे कहे कि बहुत अच्छे । बरखुरदार ! तुमने बहुत अच्छा किया । मैं चाहता था कि कोई मेरा हाथ थाम कर चले । जब मैं विषाद या क्रोध में  होऊं । इसलिए मैं किसी पर निर्भर था । जिसके परिणाम स्वरूप यह जुड़ना या जुड़ाव हुआ । इस जुड़ाव से भय प्रकट हुआ । ईर्ष्या और फिर गुस्सा पैदा हुआ ।
वैसे ही जैसे आप कोई प्रेमिका पा लें । और फिर उससे अलगाव से भयभीत हों । उसके किसी से बात करने पर ईर्ष्या प्रकट करें । और उसका अन्य व्यक्ति से जुड़ाव होने पर आपको गुस्सा आये ।
तो क्या आप इस पूरी जुड़ाव की प्रक्रिया को । जब यह चल ही रही हो । हो ही रही हो । तुरंत देख सकते हैं ? आप इस पूरी प्रक्रिया को बिल्कुल देख सकते हैं । यदि आप होश से भरे हों । और आपको मन की हरकतों के बारे में जानने समझने में रूचि हो ।
किसी भी व्यक्ति की अपने बारे में एक संकल्पना । खुद का ही छवि चिह्न । या छवि होती है कि उसे क्या होना चाहिए ? क्या है ? या यह कि उसे क्या नहीं होना चाहिए ।
आईये जाने । कोई भी व्यक्ति । अपने बारे में छवि क्यों बनाता है ? क्योंकि वो इसका अध्ययन कभी नहीं करता कि - वह वास्तव में वो क्या है ? यथार्थतः क्या है ? हम सोचते हैं कि हमें यह होना चाहिए । या वह होना चाहिए । आदर्श । नायकों । या कल्पना । या इतिहास के उदाहरण पुरूषों की तरह ।
हम जब भी जागरूक होते हैं । हमारी अपने ही बारे में कल्पना । आदर्श । हम पर हमला करते हैं । हमारा अपने ही बारे में जो खयाल है । वह हम जो तथ्य रूप । वास्तव में हैं । उससे पलायन बन जाता है । लेकिन जब आप स्वयं को तथ्य रूप में देखतें हैं । जो कि आप वास्तव में हैं । तब कोई भी आपको दुख नहीं पहुँचा सकता । तब यदि कोई व्यक्ति झूठा है । और उसे कोई झूठा कहता है । तो इसका मतलब यह नहीं कि झूठा कहने वाला उसे दुख पहुंचा रहा है । क्योंकि यह तो तथ्य ही है । लेकिन यदि आपका अपने बारे में यह खयाल है कि आप झूठे व्यक्ति नहीं हैं । और कोई कहता है कि आप झूठें हैं । तो आप गुस्सा हो जाते हैं । हिंसक हो जाते हैं ।
हम लोग हमेशा एक आदर्श लोक में जीते हैं । कल्पना लोक में जीते हैं । मिथकों में जीते हैं । उस जगत में नहीं । जो यथार्थतः है । जो वास्तव में है । उसे देखने के लिए । उसका जांच पूछ । परख । यथार्थ से परिचय के लिये । हमें पूर्वाग्रह । पूर्व में ही निर्णय । मूल्यांकन । उसके बारे में भय आदि बिल्कुल नहीं होना चाहिए ।
अब देखिये । जब आप सुनते हैं । यदि आप सुन रहें हैं । जब आप क्या कहा जा रहा है । यह सुनते हैं । और उसमें हाजिर रहते हैं । न कि ये कि आप जो कहा जा रहा है । उसे समझने की कोशिश करते हैं । हाजिर होने में मात्र जागरूकता होती है । आप नहीं । वह क्षण जब आप जागरूक नहीं होते । आप एक केन्द्र होते हैं । आपका अहं या केन्द्र होता है । यह केन्द्र ही समस्याएं पैदा करता है । आपने जाना ? नहीं ? महानुभाव यह बहुत ही गंभीर बात है । अगर आप इसमें गहरे जाएं । अगर एक ऐसा मन चाहिए । जो समस्या रहित हो । और इसलिए अनुभव रहित भी । तो यह बहुत ही गंभीर बात है । वह क्षण जब आप कुछ अनुभव करते हैं । और आप अनुभव को संचित करना ।

सहेजना चाहते हैं । तब यह अनुभव । एक स्मृति । या याद बन जाता है । और आप इसे और अधिक मात्रा में चाहते हैं । तो वह मन जिसको कोई समस्या नहीं होगी । कोई अनुभव भी नहीं होगा । ओह ! आप नहीं जानते कि - इसमें कितनी सुन्दरता है ?
क्या मैं आपसे आदर पूर्वक कह सकता हूँ कि - आप कृपया किसी के भी अनुयायी न बनें ? अनुसरण न करें । लेकिन आप इसमें सहायता नहीं करते ।
महोदय ! इसका कारण जाने । हम अकेले नही रह सकते । हम सपोर्ट सम्बल चाहते हैं । हम दूसरों की ताकत चाहते हैं । हम चाहते हैं कि - हमें एक समूह के रूप में पहचाना जाए । एक संस्थान के साथ । यह संस्थान ( अब कृष्णमूर्ति फाउंडेशन ) उस तरह का संस्थान नहीं है । यह केवल पुस्तकें आदि प्रकाशित करने के लिए है । आप इसका अनुसरण नहीं कर सकते । क्योंकि आप किताबें नहीं छाप रहे । आप स्कूलों को नहीं चला रहे । पर संकल्पना है कि हम किसी चीज का हिस्सा बनें । ठीक ? और किसी से सम्बद्ध होना । या अनुसरण ताकत देता है । ठीक ? अगर मैं भारत में हूँ । और कहता हूँ कि मैं हिन्दू नहीं हूँ । तो लोग मुझे जिस दृष्टि से देखेंगे । वह खतरनाक होगी ।
एक प्रश्नकर्ता ने कहा है कि - जब वह एक चिह्न विशेष पर केन्द्रित होते हैं । तो ताकत का अहसास करते हैं । हम सभी चिह्नों से जुड़े हैं । ईसाई जगत चिह्नों से भरा पड़ा है । ठीक ? सारा ईसाई जगत धार्मिक चिह्न । छवियों । संकल्पनाओं । विश्वास । आदर्शों । रिवाजों से आच्छादित है । इसी तरह का माहौल भारत में भी है । बस नामकरण अलग है । जब कोई किसी विशाल समूह से सम्बद्ध रहता है । जो समूह एक ही चिह्न में श्रद्धा रखता है । वह एक अनन्य शक्ति प्राप्ति का अहसास करता है । यह प्राकृतिक है । या बहुत ही आप्राकृतिक ? यह आप में जोश बनाये रखता है । यह आप में यह अहसास बनाये रखता है कि आप कम से कम उसे चिह्न से कुछ ज्यादा ही जानते समझते हैं ।
पहले तो आप एक चिह्न की खोज करते हैं । आप देखिये कि - आपका मन कैसे काम करता है ? पहले तो हम एक चिह्न खोजते है । चर्च या मन्दिर में एक छवि । या यदि आप मस्जिद में हैं । तो कोई अक्षर हम सब खोजते गढ़ते हैं । और फिर उनकी पूजा शुरू कर देते हैं । हम उस सबकी पूजा करते हैं । जो हमने ही गढ़ा रचा या । बनाया खोजा है । यह मानकर कि वो हमारे अपने विचार से परे है । जो हमें ताकत देता है । शक्ति देता है ।
तो क्या होता है ? अब जबकि चिह्न । या संकेत । या छवि । जो कि वास्तविक नहीं है । पर चिह्न । या छवि । हमें संतुष्टि देते हैं । चिह्नों को देखने । सोचने । उनके साथ रहने से हमें जोश । जीवनी शक्ति मिलती है । निश्चित ही जो विचार से सृजित हैं । मनोवैज्ञानिक रूप से वह संभृम और कल्पनाएं ही होंगे । क्या नहीं ?
आप मुझे गढ़ सकते हैं । मैं आशा करता हूँ कि - आप ऐसा न करें । पर आप मुझे अपने गुरू के रूप में गढ़ लेते हैं । मैंने गुरू बनना सदा अस्वीकार किया है । यह एक बहुत ही बेहूदा चीज है । क्योंकि मैंने देखा है कि किस तरह अनुयायी या शिष्य गुरू को और गुरू शिष्यों अनुयायियों को बर्बाद करते हैं । आप यह सब समझ रहें हैं न । मैंने यह देखा है । मेरे लिये यह सारी बात एक वीभत्सता है । क्षमा करें । मैं रूक्ष भाषा का प्रयोग कर रहा हूँ । पर जैसे आप मेरी एक गुरू की छवि बनाते हैं । वक्ता की छवि बनाते हैं । तो सारा गुरू घंटालों का धंधा अभी यहीं शुरू हो जाता है ।
तो सर्वप्रथम यदि मैं कुछ इंगित करना चाहता हूँ । तो ये कि इन सब बातों में दिगभृमित करने वाले चर्च और मन्दिर हैं । मस्जिदें हैं । गुरुद्वारा हैं । जो कि सच नहीं हैं । वास्तविक नहीं हैं । यह सब मन्दिर । मस्जिद । चर्च । गुरुद्वारा । पुजारियों के द्वारा । विचारों के द्वारा । हमारे डर के द्वारा । हमारी चिंता । भविष्य के प्रति अनिश्चितता से

गढ़े गये हैं । आप समझें । हम एक संकेत या छवि बनाते हैं । और उसी में फंस जाते हैं । जकड़ जाते हैं । तो सर्वप्रथम हमें यह वास्तविकता जाननी होगी कि - विचार वो चीज पैदा करता है । जो हमं मनोवैज्ञानिक रूप से संतुष्टि प्रदान करती है । खुशी देती है । ठीक ? वो हमें सुविधा देती है । ये संकेत । या छवियां । हमें अत्यंतिक सुविधा देती है । यह कुल मिलाकर संभृम है । पर यह मुझे सुविधा देता है । इसलिए मैं इससे परे कुछ देखता ही नहीं ।
हम दुख को एक द्विअर्थी शब्द की तरह देखें । एक विरोधाभासी शब्द की तरह । आप उसे नकार दें । प्रश्न करें । संदेह करें । कुछ भी करें । पर इसका सत्य खोजें । हमें इसका यथार्थ उत्तर खोजना है । सब लोगों द्वारा मिल जुल कर । इसलिए नहीं कि - कोई ऐसा कह रहा है । क्या दुख का अंत हो सकता है ? हमारा अस्तित्व ही शोकमय हो गया है । कई तरह से हम दुखी होते हैं । किसी अपमान में । किसी की हेय दृष्टि से । किसी की अकड़ से । अहंकार पूर्ण मुद्रा से । बचपन में मिले घावों से । हमारे चेतन में गहरे पैठे किसी दुख से । या अचेतन में किसी के दुख से । या किसी को खो देने के दुख से । तो यदि आप गहराई से जाँचें । एक तथ्य की तरह लेकर । तो यह है कि हम किसी न किसी तरह  कभी अभिभावकों से । कभी शिक्षकों से । कभी स्कूल के अन्य छात्रों से । हमेशा ही दुखी होते रहे हैं । ये जख्म गहरे हैं । ढंके हुए हैं । और हम इनके चारों तरफ एक दीवार खड़ी कर देते हैं कि - कोई हमें दुख न पहुँचा सके । और यही दीवार भय पैदा करती है ।
आप में से कोई यह पूछ सकता है कि - क्या हम यह चोटें या जख्म पूरी तरह अपने अस्तित्व से पोंछ सकते हैं ? बिना खरोंचों के निशान छोड़े ? आइये ये सब हम मिलकर देखें करें । मैं यह आश्वस्त होकर कह सकता हूँ कि आप हम सभी जरूर कभी न कभी चोट खा चुके हैं । सब अलग अलग तरह से । अलग अलग प्रकार से । यह दुख जमी बर्फ की तरह जमा हुआ है । इसे हम जीवन भर ढोते रहते हैं । इसका प्रभाव यह होता है कि हम अधिकाधिक अकेले होने लगते हैं । दुख के प्रति ही सचेत रहने लगते हैं । दुख को गंभीरता से लेने लगते हैं । हम नहीं चाहते कि हमें और दुख मिले । तो हम अपनी चारों और एक दीवार खड़ी करते हैं । जैसे जैसे यह दीवार ऊंची होती जाती है । हमारा अकेलापन बढ़ता जाता है । आप सभी यह सब जानते हैं । तो कोई भी यह कह सकता है कि - क्या ऐसा हो सकता है कि हम चोट न खाएँ ? भविष्य की चोटों से । दुख से ही नहीं । आज के दुखों से बच सकें । और इसी तरह अतीत के दुखों से । जो किसी को बचपन में मिले । उन्हें भी अपने व्यक्तित्व से पोंछ सकें । वो दुख । जिन्हें हम जिन्दगी भर ढोते आए हैं ।
अगर कोई वाकई गंभीर है । तो उसे स्वयं इसका कारण खोजना होगा । जानना होगा कि हम दुखी क्यों होते हैं ? इसका कारण क्या है ? यह दुख क्या है ? कौन दुखी हो रहा है । और किससे ?
कृपया इसे समझें । जानें । क्या यह संभव है कि - कोई अपमान करे । और हम उसे अपने व्यक्तित्व पर अस्तित्व पर अंकित ही न करें । कोई दुत्कारे । धौंस दिखाए । उसे हम लिख कर ही न रख लें । कोई क्रोध दिखाए । गाली बके । अधैर्य दिखाये । तो इन सबको हम पंजीकृत ही न करें । हमें इसकी गहराई तक जाना होगा । तो क्या आप इसके लिए तैयार हैं ?
हमारा मस्तिष्क एक यंत्र है । गतिविधियों को अंकित करने वाला । एक कम्प्यूटर की तरह । जिसमें डाटा रिकार्ड या अंकित कर जमा रखा जाता है । हमारा मस्तिष्क सारी गतिविधियों को अंकित कर लेता है । क्योंकि इससे

उसे सुरक्षितता मिलती है । एक तरह की आत्म सुरक्षा । ठीक ? क्या आप सब यह चीजें समझ रहे हैं ? तब जब कोई कहता है - तुम मूर्ख हो । या अन्य कोई अपमान करता है । तो हमारे मस्तिष्क की त्वरित प्रतिक्रिया होती है । और वह इन सब बातों को अंकित करता जाता है । मौखिक रूप से इसका प्रभाव पड़ता है कि - यदि आप दुख ही लेना चाहते हैं । तो यह शब्द मस्तिष्क में अंकित हो जाएंगे । ठीक उसी तरह । जैसे कोई तारीफ करे । और आपका मस्तिष्क उसे एक आनन्ददाय याद की तरह अंकित कर ले । ठीक ? तो क्या यह अंकित करने की प्रक्रिया किसी अंत पर आ सकती है ?
मस्तिष्क का तो काम ही है । सभी तरह की बातों को रजिस्टर में अंकित करे चले जाना । एक तरह से यह जरूरी भी है । नहीं तो आप कैसे जानेंगे कि - आपका घर कौन सा है । आप कार कैसे ड्राइव कर पाएंगे । या कोई भाषा कैसे बोल पांऐगे । लेकिन मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएं । अहसास अंकित न हों । क्या ऐसा हो सकता है ? आप यह सब समझ रहे हैं न ?
अब कोई पूछ सकता है कैसे ? कैसे मैं एक अपमान । या एक तारीफ । एक प्रशंसा को अंकित होने से रोक सकता हूं ? प्रशंसा का अहसास तो बहुत ही सुखदायक होता है । और मैं उसे एक याद की तरह संजोना भी चाहता हूँ । पर दुख और अपमान इन सबको तो मैं खत्म कर देना चाहता हूँ । बचना चाहता हूँ ।
लेकिन दोनों घटक । अपमान हो । या प्रशंसा । दोनों ही अंकित किये जाते हैं । तो क्या यह संभव है कि मनोवैज्ञानिक रूप से अंकित न किए जाएं ? ठीक । अब हम इसे मिल जुल कर एक होकर समझें । आगे बढ़ें । वह क्या है ? जो चोटिल होता है । दुखी होता है । आप कह सकते हैं - मैं चोट खाता हूँ । दुखी होता हूँ । तो प्रश्न उठता है । यह कौन सी चीज । यह कौन सा अस्तित्व है । या पहचान है । जो दुख अनुभव करती है ? क्या यह कोई वास्तविक या यथार्थ चीज है ? इसका मतलब क्या है ? क्या यह कुछ ठोस चीज है ? संवेदनशील चीज है । कुछ ऐसी चीज है । जिसके बारे में हम आप बात कर सकें । या जिसे जान सकें ?
या यह कोई ऐसी चीज है । जिसे आपने खुद ही अपने लिये गढ़ लिया है । आप समझ रहे हैं न ?
ठीक है । मैंने अपने खुद के बारे में एक छवि गढ़ी है । हममें में बहुत से लोग ऐसा ही करते हैं । यह छवि बचपन से ही गढ़ना शुरू हो जाती है । जैसे कि लोग कहते हैं । आपको अपने भाई जैसा होना चाहिए । जो कि बहुत ही चतुर और चालाक है । आपको उससे बेहतर और अच्छा होना चाहिए । यह छवि नियमित रूप से बढ़ती है । हमारी शिक्षा में । हमारे संबंधों में । और इसी तरह हमारे सभी तरह के व्यवहार में । यह छवि ही मैं बन जाती है । यह छवि है । जो मैं को धारण किये हुए है । दुखी होती । या चोट खाती है । ठीक ।
तो जब तक कि हमारी कोई छवि है । तब तक हमेशा । ये सभी लोगों द्वारा कुचली जाती है । रौंदी जाती है । इस छवि का हमसे बेहतर बुद्धिमान लोग ही नहीं । साधारण आम लोगों द्वारा भी उसका यही हश्र होता है । तो क्या यह संभव है कि हम अपनी ही एक छदम छवि का सृजन न करें ? अपने ही छवि निर्माण से बचें ? आईये हम सब इस विषय में गहरे चलें । आईये साथ चलें । और समझें कि यह छवि गढ़ने वाली यांत्रिकता मशीनरी क्या है ? समझें कि ये कैसे होती है ?
यह मेरे देश की छवि । नेताओं की छवि । पूजारियों की छवि । भगवान की छवि । आप समझ रहें हैं न । यह सब छवियों के निर्माण का ही नतीजा हैं । यह छवियां कौन बनाता है ? यह छवियाँ क्यों बनाई जाती हैं ? आईये समझें कि - ये छवियां किसके द्वारा और क्यों बनती हैं ?
हम यह आसानी से देख समझ सकते हैं कि यह छवियां सुरक्षा । आत्म सुरक्षितता के कारणों से गढ़ी जाती हैं । क्योंकि यदि मैं एक ऐसे देश में जहाँ कि कम्युनिस्ट नहीं हैं । वहाँ खुद को कम्युनिस्ट कहलवाऊं । मुझे ज्यादा तकलीफों का सामना करना पड़ेगा । या एक ऐसे देश में जो कम्युनिस्टों का है । मैं अपने आपको कम्युनिस्टों से अलग कर लूँ । तो भी मुझे दैनिक जीवन में कठिनाईयां आएंगी ।
लेकिन यदि मैं अपने आपको किसी छवि से जोड़ लेता हूँ । या एक छवि के साथ जुड़ा पहचाना जाता हूँ । तो इससे मुझे एक अत्यंत सुरक्षित अहसास का बोध होता है । इसलिए बस इसलिए । इन्हीं कारणों से हम सब किसी न किसी रूप में छवियाँ गढ़ते या उनसे सम्बद्ध रहते हैं । किसी राजनीतिक दल से जुड़ना । या धार्मिक संगठन । या संप्रदाय से । किसी विचार धारा से जुड़ना । या किसी समूह विशेष से । इससे छवि निर्माण या सम्बद्धता सतत जारी रहते हैं ।
आप जानते हैं कि - यह छवियां कौन गढ़ता है ? इसकी मशीनरी क्या है ? इसकी प्रक्रिया क्या है ? आइये हम सब मिलजुल कर सोचे विचारें । बिना किसी अन्य की प्रतीक्षा किये ? स्वयं ही समझे बूझें ।
तो यहाँ पर कृपया ध्यान से पढ़ें सुनें । क्या यह मशीनरी यह सारी प्रक्रिया एक सम्पूर्ण जागरूकता या अवधान पूर्णता से खत्म हो सकती है ? यह सारी प्रक्रिया । या मशीनरी । तब ही सक्रिय होती है । या काम करती है । जब हम बेहोश से जीते हैं ?
यदि मैं सम्पूर्ण रूप से जागरूक होता हूँ । और आप मुझे बेवकूफ कहते हैं । आप मुझे मूर्ख कहते हैं । तो यह मौखिक पत्थर मुझ पर चोट का प्रभाव करता है । और एक प्रतिक्रिया पैदा होती है कि - तुम भी बेवकूफ या मूर्ख हो । मैं यह शब्द ग्रहण करता हूँ । इन शब्दों का अर्थ लेता हूँ । वह अपमान । जो आप मुझे इन शब्दों के द्वारा देना । या अहसास कराना चाहते है । यदि मैं तत्काल उसी समय इस सारी प्रक्रिया के प्रति जागरूक रहता हूँ । जब आप इन शब्दों का प्रयोग करते हैं ? अगर मैं उस समय सम्पूर्ण रूप से जागरूक रहता हूँ । और आप इन अपमान पैदा करने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं । तो यह जागरूकता एक ढाल की तरह नहीं । या उस यांत्रिक चीज की तरह नहीं । जो आप दुख से बचने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं ? इस जागरूकता में । सावधानता में । कोई स्वीकार करने वाला । ग्रहण करने वाला नहीं होता । लेकिन जब आप मुझे मूर्ख या बेवकूफ कहें । तो यदि मैं जागरूक नहीं रहता । तो मस्तिष्क इसे अपमान की तरह अंकित कर लेगा । आप इसे एक प्रयोग की तरह करके आजमा सकते हैं ।
इस तरह केवल अतीत के घाव ही नहीं । अतीत की चोटें ही नहीं । बल्कि इससे आपका मन मस्तिष्क और संवेदनशील होंगे । ग्रहणशील और खुले होंगे । संचलन में ज्यादा सक्षम होंगे । ज्यादा जीवंत होंगे । ज्यादा सक्रिय होंगे ।
उस दीवार की ऊंचाई कितनी होगी ? जो आपने अपने ईर्द गिर्द खड़ी कर रखी है ? क्या यह संभव है कि वह हटे । खुले । आप संवेदनशील हों । ज्यादा जिंदा हों । और तथ्यात्मक रूप से समझें कि - इस दीवार की । इसे बनाने की कतई आवश्यकता नहीं है । संपत्ति की सुरक्षा के लिए दीवारें खड़ी की जाती हैं । ध्यान से सुनें । धन संपत्ति के इर्द गिर्द दीवारें खड़ी की जातीं हैं । और आपने खुद से ही एक सम्पत्ति की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है ।
आप समझ रहें है कि यहाँ क्या कहा जा रहा है ? तो फिर से समझें । हम सब इस सब तरह की बातें क्यों करते हैं ? पहले हम अपने इर्द गिर्द दीवारें उठाते हैं । और फिर उन दीवारों को गिराने की कोशिशें करते हैं । और खुद को इन दीवारों को गिराने में असमर्थ पाते हैं । हम इससे बचते हैं । हम इससे दूर भागने की कोशिश करते हैं । या इसी दीवार के पीछे छिप जाते हैं । हम सब इस तरह की बातें क्यों करते हैं ? हम अपने ही लिये समस्याएं क्यों गढ़ते हैं ? हम क्यों निरे सहज । स्वस्थ । और सरल नहीं रह सकते ?
अब यह प्रश्न किया जा सकता है । एक समस्या क्या है ? कोई समस्या क्या है ? आपको क्या समस्या है ? किसी की भी क्या समस्या है ? वह जो कि कोई सुलझाने में समर्थ नहीं हो रहा हों । ठीक । आप उसको आकलन करते हैं । या एक मनोवैज्ञानिक के पास जाते हैं । या चर्च में जाकर स्वीकार कनफ़ेशन करते हैं । या स्वयं ही उसका आकलन संरचनात्मक अध्ययन करते हैं । और फिर भी समस्या ज्यों की त्यों बनी रहती है । उसके कारण बने रहते हैं । और आप प्रभावों की जाँच करते रहते हैं । प्रभावों का पर्यवेक्षण करते हैं । ठीक ? और कारण की विचित्रता देखिये । कारण ही प्रभाव हो जाता है । आप समझ रहे हैं ? और प्रभाव ही कारण बन जाता है । क्या यह सब अति बौद्धिक है ?
तो हम सबके लिए समस्या क्या है ? हमारी समस्या क्या है ? और हमें समस्याए क्यों हैं ? चलिये एक सामान्य सी समस्या लेते हैं - क्या ईश्वर है ? मैं इसे एक तुच्छ उदाहरण के रूप में ले रहा हूँ । क्योंकि हम कहते हैं - यदि ईश्वर है । तो उसने इस विशाल दैत्याकार विश्व का निर्माण कैसे किया ? ठीक । तो यह सब अधिक से अधिक । और अधिक समस्याएं उत्पन्न करता है । सर्वप्रथम तो हम मान लेते हैं कि - यह ईश्वर ने बनाया है । यह संसार । और उसके बाद हम उसमें शामिल हो जाते हैं । या मैं एक विशेष संकल्पना रखता हूँ । और उस संकल्पना या आदर्श के अनुसार जीना चाहता हूँ । इसलिए यह एक समस्या बन जाती है । मुझे बिलकुल नहीं दिखता । या बिल्कुल समझ नहीं आता कि - हम सबको क्यों एक आदर्श के अनुसार होना चाहिए ? सर्वप्रथम तो हम एक आदर्श बनाते हैं । फिर उस आदर्श के अनुसार जीने की कोशिश करते हैं । जो समस्याएं पैदा होने की जड़ बन जाता है । मैं अच्छा नहीं हूँ । मुझे अच्छा होना चाहिए । तो बताइये कि - मुझे क्या करना होगा ? यह सब प्राप्त करने के लिए आदि आदि । तो देखिये । हम कैसे समस्या बनाते हैं । सर्वप्रथम कुछ काल्पनिक छाया सा गढ़ते हैं । जैसे अहिंसा । एक काल्पनिक अप्रकट चीज है । तथ्य हिंसा है । हिंसा तथ्य है । और तब मेरी समस्या पैदा हो जाती है । कि कैसे मुझे अहिंसक बनना है ? आप समझ रहे हैं न । अगर मैं हिंसक हूँ । तो मुझे उससे निपटने देना चाहिए न कि अहिंसक बनने से ।
तो एक स्तर पर यह सब है । जो हम कर रहे हैं ? या यह कि मैं अपनी पत्नी के साथ नहीं निभा पा रहा । मैं इस सबके बारे में नर्वस रहता हूँ । मैं किसी या अन्य के साथ नहीं चल पाता । इन सबमें आप देखिये कि मैं क्या कहना चाह रहा हूँ ? हम सब कुछ में और सब जगह समस्याएं पैदा कर लेते । या गढ़ लेते हैं । तो प्रश्न है । समस्या न होने से ज्यादा महत्वपूर्ण । समस्या को सुलझाना हो गया है ? अगर कोई समस्या नहीं होगी । तो आपका मन मस्तिष्क । यह । वह । या अन्य । समस्याओं को सुलझाने के अनन्त संघर्षों से बच जाएंगे । सभी समस्याओं की जड़ । यह मूल समस्या क्या है ? तकनीकी । गणितीय समस्याओं की नहीं । मनुष्य की मानवीय । आंतरिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं में । इनकी जड़ क्या है ? महानुभावो कृपया आईये । और खोजिये । क्या इसका मूल कुछ ऐसा है कि - उखाड़ फेंका जा सके । या उसे सुखा कर नष्ट किया जा सके । जिससे दिल दिमाग में कोई समस्या न रहे ?
समस्या क्या है ? कुछ जो वर्तमान में सम्मिश्रित है । या भविष्य में है । ठीक ? एक समस्या केवल समय में रहती है । समय में निहित होती है ।
एक समस्या तब तक ही रहती है । जबकि हम समय की भाषा में सोचते हैं । न केवल भौतिक या वैज्ञानिक समय में । बल्कि मनोवैज्ञानिक । मानसिक समय में भी । जब तक हम मनौवैज्ञानिकता में समय की प्रकृति नहीं समझते । हम हमेशा समस्याओं में रहेंगे । हम सब एक साथ इन समस्याओं के पैदा होने । इनके अस्तित्व के बारे में । एक साथ बैठकर बात कर रहे हैं । खोजबीन कर रहे हैं ।
होता यह है कि हम दुनियादारी में सफल होना चाहते हैं । साथ ही साथ आध्यात्मिक मामलात में भी सफल होना चाहते हैं ।
ये दोनों बातें समान हैं । यह सफल होने की आकांक्षा समय में होने वाली गतिविधि है । तो हम कह रहे हैं । वह क्या जड़ या मूल है । जो समस्याएं पैदा करता है । निरंतर समस्याएं । समस्याएं । समस्याएं ।
क्या यह विचार है ? या यहाँ एक केन्द्र है । जो अपनी परिधि में ही गति करता है ? क्या समस्याएं तब तक ही नहीं रहती । जब मैं खुद के । स्वयं के बारे में ही चिंतित होता हँ ? जब तक मैं भला होने की कोशिश करता हूँ । यह और वह । और जाने क्या क्या चाहता हूँ ? मैं ही समस्याएं पैदा करूंगा । जिसका मतलब है । क्या मैं अपनी एक भी छवि बनाये बिना जिन्दगी जी सकता हूँ ?
जब तक मैं अपने सफल होने की छवि । या मुझे बुद्धत्व प्राप्त करना ही है । इसकी छवि । या मुझे ईश्वर का साक्षात्कार करना है । इसकी छवि । या मुझे भला बनना है । मुझे और प्रेमी की तरह का व्यक्ति बनना है । मुझे महत्वाकांक्षी नहीं बनना है । मुझे किसी को दुख नहीं पहुंचाना है । मुझे शांति पूर्वक जीना है । मुझे एक मौन मन होना है । मुझे अनिवार्य रूप से जानना है कि - ध्यान क्या है आदि आदि । अपनी ही छवियां बनाते हैं । क्या यह संभव है कि - हम मुक्त होकर जीते रह सकें ? जब तक किसी भी प्रकार का केन्द्र है । तब तक समस्याएं रहेंगी ही । अब यह समझें । क्या केन्द्र का होना । अजागरूक या बेहोश होने का नतीजा या निचोड़ है ? अगर जागरूकता होगी । तो निश्चित ही कोई केन्द्र नहीं होगा । जे. कृष्णामूर्ति ।

प्रेम के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं

अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को । किसी विशेष बिन्दु पर । फोकस करना एकाग्रता है । ध्यान में कोई बिन्दु विशेष नहीं होता । जिस पर फोकस किया जाये । हम एकाग्रता से भली भांति परिचित हैं । पर हमें ध्यान की खबर नहीं । जब हम अपनी देह पर ध्यान देते हैं । तब देह पूर्णतः शांत हो जाती है । जो कि उसका अपना अनुशासन है । तब देह विश्राम अवस्था में होती है । लेकिन निष्क्रिय नहीं । तब वहां पर समरसता की ऊर्जा होती है । जहाँ ध्यान होता है । वहाँ विरोधाभास नहीं होता । इसलिए कोई संघर्ष नहीं होता । जब आप कुछ पढ़ें । तो ध्यान दें कि - आप कैसे बैठे हैं ? किस तरह सुन रहे हैं ? कोई कुछ कह रहा है । तो आप उसे कैसे ग्रहण करते हैं ? कोई कुछ कहता है । तो आप किस तरह प्रतिक्रिया देते हैं ? और यह कि आप ध्यान क्यों नहीं दे पाते हैं ?
आपको यह सीखना नहीं है कि - ध्यान कैसे देना है ? क्योंकि यदि आप सीख रहे हैं । तो आप एक व्यवस्था बना रहे हैं । अपने दिमाग में एक कार्यक्रम भर रहे हैं । जिसके अनुसार चलना है । तो आपका यह ध्यान यांत्रिक । एक तरह का दोहराव । और स्वचालित हो जायेगा । जबकि वास्तव में ध्यान ऐसा कुछ भी नहीं है । ध्यान अपने सारे जीवन को देखने का तरीका है । बिना स्व रूचि के किसी केन्द्र के ।
अवलोकन में किसी तरह के संचित ज्ञान की जरूरत नहीं । हालांकि ज्ञान एक स्तर विशेष तक सहजतः आवश्यक है । जैसे चिकित्सीय ज्ञान । वैज्ञानिक ज्ञान । इतिहास का ज्ञान । और अन्य सारी चीजों का जो हैं । क्योंकि अंततः वो सब चीजें जो हो चुकी हैं । हैं । उनके बारे में सूचना । ज्ञान है । लेकिन भविष्य का कोई ज्ञान नहीं है । बस जो हो चुका है । उसके ज्ञान के आधार पर लिए अंदाजे ही हमें भविष्य के साथ जोड़ने वाली कड़ी हैं । एक ऐसा मन । जो ज्ञान के झीने परदे की ओट से देख रहा है । वह विचार की तीवृ धारा का अनुगमन करने में सक्षम नहीं हो सकता । यदि आप अपनी ही सम्पूर्ण वैचारिक संरचना को देखना चाहते हैं । तो आपको अपने ज्ञान के झीने परदे को हटाकर । अपनी सम्पूर्ण वैचारिक संरचना को सीधे देखना होगा ।
जब आप सामान्य सहज रूप से । बिना आलोचना । या स्वीकारने के । केवल अवलोकन मात्र करते हैं । तब आप देखेंगे कि - विचार का अन्त भी है । यूँ ही सामान्य तौर पर विचार । आपको कहीं नहीं ले जाते । लेकिन यदि आप विचार की प्रक्रिया का अवलोकन । अवलोकन कर्ता । और अवलोक्य के भेद के बिना कर पाते हैं । यदि आप

विचार की सम्पूर्ण गति देख पाते हैं ( बिना आलोचना या स्वीकार्य के ) तो आपका यह अवलोकन । विचार का तुरन्त ही अन्त पा जाता है । और इसलिए इस स्थिति में मन करूणा पूर्ण होता है । वह निरंतर उत्परिवर्तन ( सनातन ) अवस्था में होता है ।
हममें से बहुत से लोग । इस भृमित और क्रूर जगत में । अपनी ही । एक सर्वथा निजी । एक ऐसी जिन्दगी । गढ़ने की कोशिश करते हैं । जिसमें वो खुश और शांति पूर्वक बाकी दुनियाँ की अन्य चीजों के साथ चलते हुए जी सके । हमें ये लगता है । या हम सोचते हैं कि - रोजमर्रा के संघर्ष । द्वंद्व । पीड़ा । और दुख की जो जिन्दगी हम जीते हैं । वो दुर्भाग्यशाली और भृमित बाहरी दुनिया से अलग है । हम सोचते हैं कि हमारा अपनी निजी दुनियां का मैं  अत्याचार । युद्धों । और दंगों । असमानता । अन्याय भरी बाकी दुनियां से अलग है । जैसे ये सब । हमारी विशेष निजी जिन्दगी से सर्वथा अलग है । लेकिन आप जरा और करीब से जानें । केवल अपनी जिन्दगी को ही नहीं । बल्कि सारी दुनियां की जिन्दगी को देंखें । तो आप जानेंगे कि आपकी रोजमर्रा की जिन्दगी । आप जो सोचते हैं । जो अनुभव करते हैं । वही बाहरी दुनियां भी है । वही वह दुनियां है । जो आपके बारे में ही कहती है ।
लोग अक्सर पूछते हैं - मौत के बाद क्या होगा ? लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि - मौत के पहले क्या होगा ? कोई यह क्यों नहीं देखता कि - अभी उसकी जिन्दगी में क्या हो रहा है ? आपकी जिन्दगी क्या है ? काम । ऑफिस । पैसा । पीड़ा । प्रयास । सफलता से चिपके रहना । लेकिन क्या यही सब जिन्दगी है ? हाँ ! आपका जीवन तो यही कहता है । किन्तु मौत इन सब पर विराम लगा देती है ।
तो क्या जीते जी । मौत से पूर्व ही । यह संभव है कि - हम ये सब स्वयं ही खत्म कर दें ? जुड़ाव । या मोह । अपने विश्वास । अंधविश्वास खत्म कर दें । किसी चीज को स्वेच्छा से । बिना किसी उद्देश्य से । बिना किसी खुशी से करना । क्या आप ऐसा कर सकते हैं ? क्योंकि ऐसा करके ही । किसी चीज के स्वेच्छा से खत्म हो जाने की सुन्दरता देखी जा सकती है ।
और इस खात्मे । इस समाप्ति के बाद ही नई शुरूआत है । यदि आप स्वयं ही ये सब खत्म करते हैं । तो द्वार खुलते 


हैं । लेकिन आप अपना सांसारिक मायाजाल खत्म करने से पहले ही चाहते हैं कि - कोई दरवाजे आपके लिए खुल जायें । आप कभी भी उस कुचक्र को खत्म नहीं करते । जिसमें आप हैं ? आप अपने उद्देश्यों लक्ष्यों को कभी भी खत्म नहीं करते । ऐसा जीवन जिएं । जिसमें अंतर्मुखी समापन हो । यही मृत्यु की समझ लाता है ।
हम तनाव में क्यों आते हैं ? क्या तनाव तभी नहीं होता । जब प्रतिरोध होता है ? हमारे आसपास ही कई आवाजें शोर के रूप में रहती हैं । कुत्ते का भौंकना । बसों की आवाजाही । बच्चों का रोना । या मैकेनिकों की दुकानों की उठा पटक । ठोकने पीटने की आवाजें । जब आप प्रतिरोध करते हैं । तनाव खड़ा हो जाता है । यथार्थतः यही होता है । यदि आप किसी तरह का प्रतिरोध ना बनायें । शोर को वैसे ही होते रहने दें । शांत चित्त होकर सुनें । बिना किसी प्रतिरोध के । ये ना कहें कि - ये अच्छा है । या बुरा है । या कि ऐसा होना चाहिए । या नहीं होना चाहिए । बस केवल सुनें । जब तक कोई कोशिश या प्रतिरोध नहीं होगा । तनाव नहीं हो सकता । प्रतिरोध रहित । संवदेन शक्ति सम्पन्न व्यक्ति । कभी भी नर्वस टेंशन । और नर्वस ब्रेक डाउन का शिकार नहीं हो सकता ।
क्या खूबसरती रंग है ? आकार है ? चेहरे की हड्डियाँ है ? आँखों की स्पष्टता है ? त्वचा या केश है ? या खूबसूरती आदमी या औरत की अभिव्यक्ति में है ? या खूबसूरती का कुछ और ही गुण है ? जो इस खूबसूरती का अतिकृमण करता है । जो जिन्दगी में होने पर आकार । चेहरे और सब तरह की खूबसूरती अस्तित्व में आती है । अगर उस गुण को ही नहीं जाना समझा जाता । तभी सभी बाहरी अभिव्यक्तियां सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती हैं ।
आप जानते हैं । आप जब कभी नीले आकाश की पृष्ठभूमि में । किसी किसी शानदार पर्वत को देखते हैं । उसका जीवन्त होना । चमक । धवलता । अप्रदूषित बर्फ । उसकी महिमा । दिव्यपन । आपको क्षुद्र विचारों । सरोकारों । समस्याओं को कहीं और ही ढकेल देता है । क्या आपने कभी गौर किया है ? आप कहते हैं - ये कितना सुन्दर है । कुछ क्षणों के लिए । आप एकदम शांत निस्तब्ध हो जाते हैं । उस पर्वत की भव्यता कुछ क्षणों के लिए आपकी क्षुद्रताओं को आपसे अलग थलग कर देती है । वैसे ही जैसे एक बच्चा किसी जटिल खिलौने में घंटों के लिए डूब जाता है । वह खिलौना उसे पूरी तरह अवशोषित कर लेता है । अपने में समो लेता है । इसी तरह पर्वत क्षण भर में लिए आपको अपनी भव्यता में समो लेता है । आप पूर्णतः शांत स्तब्ध हो जाते हैं । जिसका मतलब है । आप अपने आपको पूरी तरह भूल जाते हैं । आपका अहं कुछ क्षणों के लिए खो जाता है ।
अब किसी के द्वारा अपने में समो लिये जाने के बगैर । चाहे वह कोई खिलौना हो । कोई भव्य पर्वत हो । या चेहरा हो । या कोई विचार । क्या आप स्वयं ही उस अहं शून्यता में नहीं रह सकते । यही सच्ची खूबसूरती है । खूबसूरती का सार है ।
ध्यान ऐसी चीज नहीं है कि - उसे करने के बारे में सोचा जाये । या नियत समय सारणी बनायी जाये । या मुहूर्त निकाला जाये । यह तंत्र मंत्र यंत्र जैसा नहीं कि जप तप के लिए फलां फलां जगह हो । कम्बल या किसी विशेष तरह का आसन हो । दिशा विशेष की ओर मुंह हो । ध्यान के सबंध में ये सारी बातें फालतू हैं । यह ऐसा ही है कि - तुरंत अभी शुरू करना चाहिए । आसपास के वृक्षों को देखें । आसमान देखें । गिलहरी । चिड़िया । मछली को देखें । पत्ते पर पड़ते प्रकाश को देखें । किसी के परिधान के रंगों को । किसी का चेहरा । इसके बाद ही बात गहराई की ओर चलती है । धीरे धीरे हम अन्दर की ओर खिसकते हैं । हम बाहरी चीजों को देखते हुए बिना पसंद नापसंद के जागरूक हो सकते हैं । यह बहुत ही सरल है । लेकिन जब हम अन्दर । अपने भीतर की ओर जाते हैं । तो बिना 


किसी आलोचना । बिना किसी निर्णय । बिना तुलना किये रहना । ज्यादा मुश्किल हो जाता है । लेकिन हमें बस यह करना है कि - हम अपने विश्वासों । डरों । झूठी मान्यताओं । भृमों । आशाओं । अवसादों । आकांक्षाओं । और इसी तरह की अन्य सारी बातों के प्रति जागरूक रहें । इसी तरह हम परत दर परत अपने मन की ऊपरी सतहों और फिर गहरे तलों की यात्रा की शुरूआत कर सकते हैं ।
सीखें । पर किसी मनोवैज्ञानिक । या विशेषज्ञ के कहे अनुसार नहीं । आप अपने आप को ही लें । अपने आप को ही देखें । बिना किसी आलोचना । या प्रशंसा । निर्णय लेने के उद्देश्य से । या तुच्छता से अलग थलग पटक देने जैसे नहीं । बस मात्र देखें । उदाहरण के लिए देखें कि - मैं घमण्ड करता हूँ । पर अब यह नहीं करना कि - घमण्ड बुरी चीज है । या अच्छी । या गंदी चीज है । नजरिया बनाकर नहीं देखना है । बस केवल देखें । जैसे जैसे हम निरपेक्ष । बिना किसी विक्षेप के । यथा वस्तु देखते हैं । हम सीखते हैं । देखना । मतलब सीखना कि अहं या घमंड में क्या क्या शामिल है ? यह जन्म कैसे लेता है ? कैसे यह हमारे मन में गहरे कोनों में पैठा रहता है ? या सामने ही सामने फूलता फलता है । और हमें ही इसकी फसल काटनी पड़ती है । जैसे हम अपने आपको ध्यान पूर्वक देखते हैं । तुरंत सीखते हैं । अब इसमें याद रखने और अनुभव करने जैसी कोई बात नहीं कि - बाद में उससे सबक लेंगें ।
तो यह बहुत कठिन है । पर यह केवल कुछ क्षणों 2-5 मिनट का काम है । ध्यान पूर्वक । जागरूक । या सावधान । अवधान पूर्ण रहना । बहुत कठिन है । हमारा मन बार बार असावधान होता है । तो उन क्षणों में जब आप असावधान हैं । यह देखें जाने कि - असावधानता क्या है ? हमें सावधान होने की कोशिश नहीं करनी । खुद से ही संघर्ष । या लड़ना नहीं है । पर यह देखना है कि - यह असावधानता क्या है ? ऐसा क्यों हो रहा है ? इस असावधानता के प्रति पूरी तरह होशवान । सावधान रहें । यहीं ठहरें । यह ना कहें कि - मैं अपना पूरा समय सावधान । होश पूर्ण रहने में ही लगाऊंगा । इससे ज्यादा गहराई में जाना जटिलता पैदा करेगा । यह हमारे मन का एक गुण है कि - वह हर समय जागता है । और देखता रहता है । और सीखना इसके अलावा कुछ है भी नहीं । जो मन असाधारण रूप से शांत है । स्पष्ट दृष्टा है । उसे सीखने को शेष है भी क्या ?
अनुभवों से कभी भी नहीं सीखा जा सकता । सीखने के लिए चाहिए । आजादी । उत्सुकता । जिज्ञासा । जब एक बच्चा कुछ सीखता है । तब वह उस बारे में उत्सुक होता है । वह जानना चाहता है । वह स्वतंत्र संवेग होता है । ना कि किसी चीज को पकड़ने । उस पर काबिज होने की प्रक्रिया । और उससे आगे बढ़ना ।
हमारे पास अनन्त अनुभव होते हैं । और मानव सभ्यता के 5000 सालों से हम युद्धों के अनुभव ही तो इकठ्ठे कर रहे हैं । हमने इनसे एक भी चीज नहीं सीखी । सिवा इसके कि हमने एक दूसरे को मारने की और भी अत्याधुनिक मशीनरी खोज ली है । यहाँ तक कि सीखा तभी जा सकता है । जब हम अनुभव से मुक्त हों ।
रिश्ते दर्पण की तरह हैं । जिनमें हम अपने आपको देख सकते हैं । जैसे कि अभी हम हैं । इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी जिन्दा चीज नहीं । जो किसी अन्य से सम्बंधित न हो । यहाँ तक की जंगल में अकेला बैठा सन्यासी भी । अपने अतीत और अपने आसपास के लोगों से जुड़ा होता है । सम्बंधों से पलायन संभव ही नहीं है । यही संबंध एक दर्पण की तरह होते हैं । जिनमें हम अपने आपको देख सकते हैं । हम यह खोज सकते हैं कि हम क्या हैं ? इसी दर्पण में हम अपनी प्रतिक्रियाएं । पूर्व धारणाएं । गुस्सा । क्रोध । अपने भय । तनाव । विषाद । क्षोभ । अकेलापन । शोक । दर्द । और दुख को देखते हैं । सम्बंधों के दर्पण में ही हम देख सकते हैं कि - हम प्यार करते हैं । या इस तरह की कोई चीज है ही नहीं । हमें रिश्तों संबंधी प्रश्नों की जाँच करनी चाहिए । क्योंकि यही प्रेम का आधार हैं ।
जब आपका दिल । दिमाग की चीजों चालाकियों से नहीं भरा होता । तब प्रेम से भरा होता है । एक मात्र और अकेला प्रेम ही है । जो निवर्तमान दुनियां के पागलपन । उसकी भृष्टता को खत्म कर सकता है । प्रेम के सिवा । कोई भी संकल्पना । सिद्धांत । वाद दुनियां को नहीं बदल सकते । आप तभी प्रेम कर सकते हैं । जब आप आधिपत्य करने की कोशिश नहीं करते । ईर्ष्यालु या लालची नहीं होते । जब आप में लोगों के प्रति आदर होता है । करूणा होती है । हार्दिक स्नेह उमड़ता है । तब आप प्रेम में होते हैं । जब आप अपनी पत्नी । प्रेमिका । अपने बच्चों । अपने पड़ोसी । अपने बदकिस्मत सेवकों के बारे में सदभाव पूर्ण ख्यालों में होते हैं । तब आप प्रेम में होते हैं । प्रेम ऐसी चीज नहीं । जिसके बारे में सोचा विचारा जाये । कृत्रिम रूप से उसे उगाया जाये । प्रेम ऐसी चीज नहीं । जिसका अभ्यास कर करके सीखा जाये । प्रेम । भाई चारा आदि सीखना दिमागी बाते हैं । प्रेम कतई नहीं । जब प्रेम । भाई चारा । विश्व बंधुत्व । दया । करूणा । और समर्पण सीखना पूर्णतः रूक जाता है । बनावटी पन ठहर जाता है । तब असली प्रेम प्रकट होता है । प्रेम की सुगंध ही उसका परिचय होता है ।
रेगिस्तान की तरह शुष्क आज के सभ्य विश्व में जहाँ भौतिक सुख और इच्छाएं ही प्रमुख हो गये हैं । प्रेम नहीं बचा है । लेकिन फिर भी प्रेम के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं । आपके पास प्यार होगा ही नहीं । जब तक सुन्दरता न हो । सुन्दरता वह नहीं । जो आप बाहर देखते हैं । कोई सुन्दर वृक्ष । एक सुन्दर तस्वीर । एक भव्य सुन्दर इमारत । या एक सुन्दर स्त्री । बल्कि सुन्दरता । आपका वह अन्तःकरण है । जो आपकी आंख बाहर को प्रक्षेपित करती है । जब आपके दिल दिमाग जानते हैं कि - प्रेम क्या है ? केवल तब ही सुन्दरता का अहसास हो सकता है । बिना प्रेम और सौन्दर्य बोध के किसी प्रकार की सच्ची नैतिकता का अस्तित्व ही नहीं हो सकता । आप और हम सभी ये अच्छी तरह जानते हैं कि - बिना प्रेम के आप कुछ भी करें । समाज सुधार करें । भूखों को खिलायें । आप और..और अधिक पाखण्ड । वैषम्य । और उलझनों में पड़ेंगे । प्रेम का अभाव ही हमारी कुरूपता । दिल और दिमाग की कंगाली का कारण है ।
जब प्रेम और सौन्दर्य आपके मन में होता है । तब आप जो भी करते हैं । लयबद्ध होता है । विधि सम्मत होता है । यदि आप जानते हैं कि - प्रेम कैसे करना है ? तब आप कुछ भी करें । यह अवश्य ही सभी समस्याओं का हल बन जाता है । जे. कृष्णमूर्ति ।

नियंत्रक आखिरकार है कौन ?

पारंपरिक शास्त्रीय । सामान्य ध्यान में किसी गुरू द्वारा उपजायी प्रक्रिया । और जिसमें नियंत्रक और नियंत्रित से सरोकार होता है । गुरू कहता है । आपको अपने विचारों पर नियंत्रण करने को कहता है कि जिससे आप विचार को खत्म कर सकें । या आखिरकार कोई एक विचार रह जाये । लेकिन हम इस बारे में पूछताछ गवेषणा कर रहे हैं कि - नियंत्रक आखिरकार है कौन ? आप कह सकते हैं कि यह उच्चतम स्व या आत्म है । यह प्रत्यक्षदर्शी है । या यह विचार से इतर कोई चीज है । लेकिन जाहिर है । नियंत्रक विचार का ही एक हिस्सा है । नियंत्रक ही नियंत्रित है । विचार ही खुद को नियंत्रक और नियंत्रित किये जाने वाले में बांट लेता है । लेकिन अंततः यह गतिविधि भी विचार की ही है ।
तो जब कोई यह समझ जाता है कि नियंत्रक का ही सम्पूर्ण कार्य व्यवहार निंयत्रित भी है । तब वहाँ पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं रह जाता । यह सब उन लोगों से कहना । जो कि इसे नहीं समझते । एक बहुत ही खतरनाक चीज है । हम नियंत्रण न करने की वकालत नहीं कर रहे हैं । हम यह कह रहे हैं कि - जहाँ भी यह दिख रहा हो कि नियंत्रक ही नियंत्रित भी है । सोचने वाला ही विचार भी है । और यदि आप इस सम्पूर्ण सत्य । इस वास्तविकता के साथ ही शेष रह सकते हैं । बिना अन्य किसी विचार के हस्तक्षेप के । तो आपके पास एक भिन्न प्रकार की ऊर्जा है ।
ध्यान । सचेतन ध्यान नहीं है । क्या आप इसे समझ रहे हैं ? यह किसी पद्धति का अनुसरण करता हुआ । किसी गुरू । सामूहिक ध्यान । एकल ध्यान । या जेन । या किसी अन्य पद्धति का अनुसरण करता हुआ । सचेतन ध्यान

नहीं है । यह पद्धति नहीं हो सकता । क्योंकि तब आप अभ्यास । अभ्यास । अभ्यास करेंगे । और आपका मस्तिष्क अधिकाधिक मंद होता जायेगा । अधिकाधिक मशीनी होता जायेगा । तो क्या कोई ऐसा ध्यान है । जिसकी कोई दिशा नहीं है । जो सचेतन नहीं है । ये ऐसा नहीं हो । जो सुचिन्तित । इच्छित । सोचा । समझा । भली भांति विचार किया गया हो ? तो इसे खोजिये ।
क्या आपने कभी गौर किया है ? यदि आपको कभी कोई समस्या हो । और आप दिन भर उसके बारे में सोचते रहे हों । जो रात भर भी जारी रहा हो । उसके बारे में चिंता करना । और फिर आप दूसरे दिन भी सोचते सोचते से थके हुए उठें । फिर दिन भर उसके बारे में चिंता करें । वैसे ही जैसे एक कुत्ता सारा दिन हड्डी को चबाता रहता है । और फिर तीसरे दिन भी । आप जब रात को बिस्तर पर जायें । तब भी वह समस्या लेकर जायें । ये सब तब तक चले । जब तक आपका दिमाग चुक नहीं जाता । और तब शायद इस चुक जाने । दिमाग का काम कर देना बंद कर देने पर । आप कुछ नया और तरो ताजा पाते हैं । तो हम जो कह रहे हैं । वह आत्यंतिक रूप से भिन्न है । जो ये है कि - जैसे ही समस्या सिर उठाती दिखे । उसे तुरन्त त्वरित रूप से खत्म कर दिया जाये । उसे सारा दिन घसीटा ना जाये । यहां तक उसे अगले मिनट पर भी न टाला जाये । और खत्म कर दिया जाये ।
कोई आपका अपमान कर देता है । आपके दिल को चोट पहुंचाता है । उस बात को वहीं देख सुन कर खत्म कर दें ना । कोई आपको धोखा दे । आपके बारे में भला बुरा कहे । उसे देखें सुने । पर घटना को अपने पर लाद ही ना ले । उसे बोझ की तरह न झेलें । जो भी समस्या है । तुरन्त नि‍पटा दें ना । उसे उसी वक्त खत्म कर दें । जब वह कहा सुना जा रहा हो । घटित हो रहा हो । न कि उसके बाद कभी ।
ध्यान जीवन से अलग नहीं है । ऐसा नहीं करना है कि कमरे के किसी कोने में जाकर बैठ जाना है । 10 मिनट ध्यान लगाना है । और उसके बाद वापस अपनी कसाई पने वाले ढर्रे पर लौट आना है । कसाई की ये उपमा नहीं हकीकत है । ध्यान सर्वाधिक गंभीर चीजों में से एक है । इसे आप सारा दिन । दफ्तर में । परिवार में । किसी से यह कहते हुए कि - मुझे तुमसे प्यार है । या फिर अपने बच्चों के बारे में सोचते हुए । इसे सारा दिन ध्यान में रखना है । क्या आपने ध्यान से देखा है कि - आप अपने बच्चों को किसी की हत्या । सैनिक बनने की शिक्षा देते हैं । आप उसमें राष्ट्रीयता की भावना कूट कूट कर भरते हैं । झण्डे का सम्मान करना सिखाते हैं । और आधुनिक युग की अंधी दौड़ में दौड़ना सिखाते हैं ।
इन सब बातों को देखना । इनमें अपनी भूमिका की वास्तविकता पहचानना । ये सब ध्यान का ही हिस्सा है । जब आप ध्यान पूर्ण होते हैं । तो आप इसकी अत्यंतिक सुन्दरता को पहचान पाते हैं । तब आप अपने आप ही सही काम करने लगते हैं । या गलती होती भी है । तो आप खेद या क्षमा में समय गंवाये बगैर इसे तुरन्त ही सुधार देते हैं । ध्यान जीवन का एक अंग है । जीवन से इतर कुछ नहीं ।
हम शांति के अजब सौन्दर्य तक पहुंचने के लिए । सब तरह की बातें करते हैं । लेकिन करना नहीं है । केवल अवलोकन करना है । देखिये श्रीमान ! इस सबमें किसी के विचारों को पढ़ना जैसी कई भेद पूर्ण शक्तियाँ हैं । इनमें

बहुत सी शक्तियाँ हैं । आप उन्हें सिद्धियाँ कहते हैं । क्या आप जानते हैं । ये सब चीजें दिये के प्रकाश की तरह हैं । जैसे सूर्य के सामने जलता हुआ नन्हा सा दिया । अगर सूर्य नहीं है । तो अंधकार होगा । जहाँ दिये की रोशनी की बहुत जरूरत होगी । लेकिन यदि सूर्य है । तो उसका प्रकाश । सौन्दर्य । स्पष्टता । तो उस समय इस तरह की शक्तियां दिये के प्रकाश के समान हैं । और इनका दो कौड़ी का मूल्य भी नहीं है । यदि आपके पास प्रकाश है । तो कई प्रकार के केन्द्रों के जागरण । चक्रों को जगाने । कुण्डलिनी आदि आप सब जानते हैं कि - ये सब तरह के धंधे हैं । आपको एक र्निदोष । तर्क पूर्ण । स्‍पष्‍टीकरण । समझने को उत्सुक मन चाहिए । न कि इस तरह की बेवकूफियों में रत मन । एक मन । जो कि मूढ़ है । सदियों तक बैठकर स्वांस पर । विभिन्न चक्रों आदि पर । ध्यान केन्द्रित कर सकता है । ये सब कुण्डलिनी से खेलने की तरह है । लेकिन इन सबसे उस कालातीत तक कभी भी नहीं पहुंचा जा सकता । जो कि यथार्थ सौन्दर्य है । सत्य है । और प्रेम है ।
ध्यान क्या है ? क्‍या यह दुनियाँ के शोर शराबे से पलायन है ? क्‍या एक चुप्‍पा मन । एक शांति पूर्ण मन । पाने की कोशिश है ? इन सब प्रश्‍नों के बजाय । आप पद्धतियो । विधियों का अभ्यास करते हैं । जागरूक होने के लिए । अपने विचारों को नियंत्रण में रखने के लिए । आप आलथी पालथी मार कर बैठ जाते हैं । और किसी मंत्र को जपते हैं । मंत्र शब्द का मूल अर्थ है कि - कुछ होने का विचार मात्र भी न करना । कुछ हो जाने के विचार मात्र से मुक्‍त 


रहना । यह एक अर्थ है । र्निदोष हो जाना । भी इसका अन्य अर्थ है । यानि सारी आत्म केन्द्रित गतिविधियों को एक तरफ रख देना । यह मंत्र शब्द के मूल और वास्तविक अर्थ हैं । लेकिन हम दोहराते हैं । दोहराते हैं । अपने अहंकार पूर्ण उद्देश्यों । अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए जपे जाते हैं । इसलिए मंत्र शब्द का अर्थ खो गया है ।
प्रार्थना शायद परिणाम देती हो । अन्यथा करोड़ों लोग प्रार्थना नहीं करते । और शायद प्रार्थना मन को शांत भी बनाती है । किन्हीं विशेष शब्दों को दोहराते रहने से मन शांत हो जाता है । और इस शांति में कुछ पूर्वाभास । कुछ नजर आना । कुछ जवाब मिलना । जैसा भी होता होगा । लेकिन ये सब मन की ही चालाकियाँ । और कारगुजारियाँ हैं । क्योंकि इस सबके बावजूद इस प्रकार की तंद्रावस्था को गढ़ने वाले आप ही हैं । जिसके द्वारा आपने मन को शांत किया गया है । इस शांत अवस्था में कुछ छिपी हुई प्रतिक्रियाऐं । आपके अचेतन और चेतना के बाहर से उठती हैं । लेकिन इस सबके बावजूद भी ये एक वैसी ही अवस्था है । जिसमें समझ बूझ नहीं होती ।
न ही ध्यान समर्पण है । किसी सिद्धांत के प्रति समर्पण । किसी छवि । किसी विचार के प्रति समर्पण । क्योंकि मन की बातें वही आदर्शवादी । मूर्ति चिह्न । विचार पूजक । दोहराव पूजक होती हैं ।
कोई मूर्ति की पूजा नहीं करता । ये सोचते हुए कि वो मूर्ति पूजा कर रहा है । और ये मूर्खता है । अंधविश्वास है । अपितु बहुत से लोगों की तरह हर व्यक्ति अपने मन में पैठी बातों । आदर्शों की पूजा करता है । वो भी आदर्श पूजन ही है न । यह एक छवि । एक विचार । एक सिद्धांत के प्रति समर्पण है । यह ध्यान नहीं है । जाहिर है कि ये अपने आप से ही पलायन का एक तरीका है । यह बहुत ही सुविधा जनक पलायन है । लेकिन अंततः पलायन ही है न । जे. कृष्णमूर्ति

यह आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर है

आप अपनी जिन्दगी को ही एक पर्यवेक्षक के दृष्टिकोण से देखते हैं । किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में । जो आपकी जिन्दगी से अलग है । इस प्रकार आप खुद को दो हिस्सों - पर्यवेक्षक यानि देखने वाले । और पर्यवेक्षण यानि देखे जाने वाले के बीच बांट लेते हैं । यूं अपने आपको दो हिस्सों में बांट लेना । आपके सभी द्वंद्वों । संघर्षों । दुखों । भयों । निराशाओं की जड़ बन जाता है ।
इसी प्रकार आपकी ये बांटने की प्रवृत्ति इंसान इंसान को । राष्ट्रों । धर्मों । सामाजिक बंटवारों का कारण बनती है । और जहां भी बंटवारा होगा । वहां संघर्ष भी होगा । यह नियम है । यह कारण है । तर्क है । एक तरफ पाकिस्तान । एक तरफ भारत । यूं तो ये संघर्ष कभी खत्म नहीं होगा । बाह्मण और अ ब्राह्मण । इस बंटवारे में नफरत पलती है । इस प्रकार समस्त संघर्षों के साथ बाहरी तौर पर बंटवारे उसी प्रकार के हैं । जिस प्रकार आप आन्तरिक रूप से अपने आपको पर्यवेक्षक ओर पर्यवेक्षण में बांट लेते हैं । क्या आप इस बात को समझ रहे हैं ? यदि आप इस बात को नहीं समझ रहे हैं । तो आप आगे नहीं जा सकते । एक ऐसा मन । जो सतत संघर्ष वैषम्य में हो । वो वैसे ही एक सताया हुआ मन होता है । संत्रास झेलता हुआ मन होता है । मुड़ा तुड़ा और विक्षिप्त मन होता है । वो वैसा ही होता है । जैसे कि वर्तमान में हम हैं ।
क्या हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई ऐसा तरीका हो सकता है । जिसमें हम हर तरह के मनोवैज्ञानिक नियन्त्रण को मात्र अपने होने भर पर ही समाप्त कर दें ? क्योंकि नियंत्रण का अर्थ है - कोशिश । प्रयास । जिसका मतलब है । हमारा स्वयं को ही ‘‘नियंत्रक’’ और ‘‘नियंत्रित’’ के बीच में बांट देना । मैं गुस्से में हूं । तो मुझे गुस्से पर काबू करना चाहिए । मैं सिगरेट पीता हूं । तो मुझे सिगरेट नहीं पीनी चाहिए । हम कुछ और ही कहते हैं । जो कि हमारे द्वारा ही गलत समझा जाता है । और हमारे ही द्वारा शायद अस्वीकार भी किया जाता है । और ये चीजें एक साथ चलती हैं । क्योंकि यह एक सामान्य सी उक्ति हो गया है कि सारी जिन्दगी एक निंयत्रण है । यदि आप नियंत्रण नहीं करते हैं । तो आप अपने आपको ही बहुत छूट दे रहे हैं । आप असंवेदनशील हैं । आपके होने का कोई मतलब नहीं है । इसलिए आपको अपने पर काबू करना चाहिए । धर्म । दर्शन । शिक्षक । आपका परिवार । माँ । बाप । ये सब आपको प्रेरित करते हैं कि आपको अपने पर निंयत्रण करना चाहिए । हम कभी भी ये प्रश्न नहीं करते कि - ये नियंत्रक कौन है ? आप खुद ही तो न ।
यह समझना कि - आप क्या सोचते हैं । अपनी महत्वाकांक्षाओं को समझना । अपने गुस्से को । अपने अकेलेपन । अपनी निराशा । अपने दुख की असामान्यता को समझना । इन सब बातों को बिना आलोचना किये । बिना न्याय संगत ठहराये । इन्हें बदलने की इच्छा किये बिना । समझना । बूझना । महसूस करना । जानना ही पहला कदम है । इन्हें हमें जैसा का तैसा जानना और समझना है । जब आप इन्हें जैसे हैं । वैसा का वैसा देखते समझते जान जाते हैं । तब एक अलग ही तरह का सहज कर्म आपसे स्वमेव ही होता है । और यह निर्णायक होता है । यानि जब आप किसी चीज को सही जानते हैं । तो वह सही और गलत जानते हैं । वह अन्तिम रूप से गलत होती है । यह समझ बूझ जानने से उठा कर्म ही तत्संबंधी अंतिम कर्म होता है । देखिये यदि मैं जान जाता हूं कि - किसी का अनुकरण करना गलत है । किसी के निर्देशों का अनुसरण करना गलत है । फिर चाहे वह कोई भी हो । कृष्ण । बुद्ध । या जीसस । कोई भी हो । यह मुद्दा नहीं कि वह कौन है ? तो मैंने यह सच देखा कि किसी का भी अनुकरण करना । नकल करना गलत है । क्योंकि मैंने अपने तर्क । चेतना आदि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से यह जाना कि यह गलत है । तो यह जानना इस संबंध में निर्णायक चरण है । मैं यह जानता हूं । और अनुकरण करना

छोड़ देता हूं । उसे विस्मृत कर देता हूं । क्योंकि उसके बाद जाना जाने वाला सर्वथा नूतन है । और वह पुनः एक निर्णायक चरण है ।
यह आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर और रूचिकर है कि - जब आप में अर्न्‍तदृष्‍टि‍ होती है । तो विचार किस प्रकार अनुपस्थित हो जाते हैं । विचारों की कोई अर्न्‍तदृष्‍टि‍ नहीं होती । केवल तब ही जब आप विचार के ढांचे में । मन को यांत्रिक रूप से इस्तेमाल नहीं करते । तब ही अर्न्‍तदृष्‍टि‍ होती है । अर्न्‍तदृष्‍टि‍ के होने के उपरांत ही विचार उस अर्न्‍तदृष्‍टि‍ के आधार पर एक निर्णय या आशय की रूपरेखा बनाता है । और तब विचार कर्म करता है । जो यांत्रिक होता है । तो हमें यह पता लगाना है कि - क्या हममें कोई ऐसी अर्न्‍तदृष्‍टि‍ हो सकती है । जो दुनियां से सरोकार रखती हो । लेकिन जो निर्णय न देती हो । क्या ऐसा संभव है ? यदि हम एक निर्णय या निष्कर्ष निकाल लेते हैं । तो हम उसकी संकल्पना के आधार पर कर्म करने लगते हैं । हम एक छवि । एक चिन्ह के अनुरूप काम करने लगते हैं । जो कि विचार की संरचना है । तो चीजें जैसी हैं । उन्हें यथार्थतः वैसा का वैसा ही समझने से बचने के लिए हम निरंतर अपने आपको अर्न्‍तदृष्‍टि‍ सम्पन्न होने से बचाते रहते हैं ?
जब हम अन्दर से कंगाल होते हैं । तभी हम हर तरह के अमीरी । ताकत । और प्रभुत्व । जैसे बाहरी दिखावों में संलग्न होते हैं । जब हमारा मन भिखारी सा खाली होता है । तभी हम बाहरी चीजें इकट्ठी करते हैं । अगर खरीदने में सक्षम हैं । तो हम अपने आपको चारों और से ऐसी जी चीजों से घेर लेते हैं । जो हम सोचते हैं कि - वो सुन्दर हैं । और चूंकि हम ही इन चीजों से जुड़ते । इन्हें इतना महत्व देते हैं । इसलिए हम ही और भी ज्यादा दुर्गति और विध्वंस के जिम्मेदार भी होते हैं ।
कब्जे की भावना सुन्दरता के प्रति प्रेम नहीं है । यह सुरक्षा की आकांक्षा से ही उपजती है । और सुरक्षित होने में असंवेदनशीलता है । जड़ता है ।
कोई भी प्रवृत्ति या प्रतिभा जो अलगाव का कारण बनती है । अपनी पहचान बनाने का कोई भी तरीका । चाहे वह कितना भी उत्तेजक क्यों न हो । संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति को तोड़ता मरोड़ता है । और असंवेदनशीलता में ले जाता है ।
मैं पेंटिंग करता हूं । मैं लिखता हूं । मैंने खोज की है । वह संवेदन शीलता मरी सी होती है । जो वैयक्तिकता की भेंट चढ़ी हो । जहाँ मैं मेरे को अहमियत दी गई हो । जब हम लोगों । चीजों और प्रकृति से अपने संबंधों के दौरान अपने

हर विचार । हर अहसास के हर गुजरते क्षण में साक्षी होते हैं । तब हमारा मन खुला होता है । मृदु होता है । आत्म सुरक्षा की मांग । और आशय से संकुचित नहीं होता । और तभी कुरूप और सुन्दर के प्रति संवेदन शीलता । हमारा चेतन निर्बाध रूप से स्वमेव ही प्रकट करता है ।
सुन्दरता और कुरूपता के प्रति संवेदन शीलता । उनके प्रति लगाव या अलगाव से नहीं आती । यह आती है प्रेम से । वहां जहां कोई भी आत्म केन्द्रित संघर्ष न हो ।
हमारा देखना । और सुनना । अवधान । ध्यान का ही एक प्रकार है । और ध्यान की कोई सीमा नहीं । कोई प्रतिरोध नहीं । इसलिए यह असीम है । ध्यान के लिए अथाह ऊर्जा लगती है । जो एक ही बिन्दु पर टिकी न हो । इस अवधान में पुनरावृत्ति करने वाले कोई भी क्षण नहीं । यह यांत्रिक नहीं । इसलिए इस प्रकार का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि - अवधान या ध्यान को कैसे संभाला । या जारी रखा जाये । और जब कोई देखने और सुनने के कला सीख लेता है । यह ध्यान या अवधान स्वतः ही अपने को किसी पेज पर किसी भी शब्द पर फोकस करने में समर्थ होता है । इसमें किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं होता । जो कि एकाग्रता की गतिविधि में होता है । अनवधान को परिष्कृत करके अवधान में नहीं बदला जा सकता । अनवधान के प्रति जागरूकता । यानि अनवधान का अंत न कि अनवधान । अवधान हो जायेगा । इस समाप्ति में ही निरंतरता नहीं रहती । अतीत अपने आपको भविष्य में बदल लेता है । कुछ हो जाने की निरंतरता में । और हम निरंतरता में ही सुरक्षितता ढूंढते हैं । समाप्ति में नहीं । तो ध्यान या अवधान में निरंतरता का गुण नहीं होता । जो भी निरंतर चलता रहता है । वह यांत्रिक है । यह होना यांत्रिक है । और इसमें समय लागू होता है । ध्यान में समय का गुण भी नहीं है । यह सब एक अत्यंत जटिल विषय है । कोई भी इसमें बड़े हौले हौले धीरे धीरे ही गहराई तक जा सकता है ।

बहुत से लोग शारीरिक रूप से असंवेदनशील हैं । क्योंकि जरूरत से ज्यादा भोजन करते हैं । धूमृपान करते हैं । और कई तरह के ऐन्द्रिक रसों में आकंठ डूबे हैं । लेकिन इस तरह तो मन कुंद ही होता है । जब मन कुंद होता है । तो देह भी जड़ होती है । यह वह पैटर्न है । ढांचा है । जिस पर हम जीते हैं । आप जानते हैं कि आपको अपनी खुराक बदलने में ही कितनी कठिनाई होती है । आप एक विशेष मात्रा और स्वाद वाली खुराक के अभ्यस्त हो चुके होते हैं । और हमेशा वैसा ही चाहते हैं । अगर आपको उसी प्रकार और मात्रा में भोजन नहीं मिलता । तो अपने आपको बीमार सा अनुभव करते हैं । एक भय और शंका आपको घेर लेती है । शारीरिक आदतें असंवेदनशीलता उपजाती हैं । वह चाहे किसी भी तरह की आदत हो । जैसे मादक दवाएं लेना ।  शराब या धूमृपान । ये सब शरीर को असंवदेनशील बनाती हैं । और मन को प्रभावित करती हैं । उस मन को जो आपकी संवेदना का संपूर्णत्व है । वह मन जिसे अत्यावश्यक रूप से स्पष्ट दृष्टा । भृम मुक्त । और द्वंद्व रहित होना चाहिए । द्वंद्व हमारी ऊर्जा का अप व्यय ही नहीं करते । यह हमारे मन को कुंद । जड़ । भारी । मूढ़ भी बनाते हैं । इस तरह आदतों में जकड़ा मन असंवेदन शील होता है । इस असंवेदन शीलता, इस कुंदपने और जड़ता के कारण वह किसी भी तरह का कुछ नया ग्रहण करन में समर्थ नहीं होता । क्योंकि जहां असंवेदन शीलता होती है । वहीं जड़ता । मूढ़ता और भय भी होता है । जे. कृष्णमूर्ति

वह प्रेम जो नदी की तरह है

जब तक कि अहं की कोई भी गतिविधि है । ध्यान संभव नहीं । यह शाब्दिक रूप से नहीं । बल्कि असलियत में जानना समझना बहुत ही जरूरी है । ध्यान मन को अहं की सारी गतिविधियों । स्व । मैं मेरे की सारी गतिविधियों से खाली करने की प्रक्रिया है । यदि आप अपने अहं की गतिविधियों । क्रिया । कार्य । कलापों को नहीं समझते । तो आपका ध्यान आपको आत्म वंचना ( खुद ही अपने को ही धोखा देना ) और विक्षिप्तता की ओर ले जायेगा । तो यह जानने के लिए कि - ध्यान क्या है ? आपको अपन अहं के क्रिया । कार्य । कलापों । गतिविधियों को समझना होगा ।
आपके अहं या स्व के पास हजारों सांसारिक संवेदनाएं । अहसास । बौद्धिक अनुभव हैं । पर यह इन सबसे बोर हो चुका है । क्योंकि इन सबका कोई अर्थ नहीं है । वृहत । अधिक विशाल । परा शक्तियों के अनुभवों से समृद्ध करने की इच्छा भी आपके ”अहं“ का ही एक हिस्सा है ।
विचार को खत्म करने के लिए । हमें सर्वप्रथम तो सोचने विचारने के मशीनी तरीके को समझना होगा । हमें अपने भीतर । गहरे तक विचार को ही पूरी तरह समझना होगा । हमें प्रत्येक विचार की जॉंच करनी होगी । किसी भी विचार को बिना समझे जाने दिये । कोई भी विचार ऐसा नहीं होना चाहिए । जो बिना हमारी जॉंच । हमारे ज्ञान । और समझ के बिना । हमारे मन में हो । इसके लिए हमारा मस्तिष्क । मन । और हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व । बहुत ही सावधान । सचेत होना चाहिए ।
जब हम विचार की जड़ तक जाते हैं । पूरी तरह उसके अंत तक जाते हैं । उस समय हम देखेंगे कि - विचार स्वयं के द्वारा ही समाप्त होता है । हमें इसके खात्मे के लिए कुछ अतिरिक्त नहीं करना होता । क्योंकि विचार एक स्मृति

या याद है । स्मृति अनुभव के छोड़े हुए निशान या चिन्ह हैं । और जबकि अनुभव को पूरी तरह सम्पूर्ण रूप से नहीं समझा गया होता । वह निशान छोड़ता है। यदि हम अनुभव को सम्पूर्णता में अनुभव करते हैं । जीते हैं । तब उस पल अनुभव अपने पीछे कोई निशानी नहीं छोड़ता । तो यदि हम प्रत्येक विचार की जड़ तक जायें । और देखें कि - निशान हैं । और यह निशान तथ्य रूप में हैं । तो हमें इस तथ्य को उघाड़ना होगा । उसे खोलना होगा । और उसकी विचार श्रंखला, विचार प्रक्रिया को समझकर उसके अंत तक जाना होगा । ताकि हमारे मन में प्रत्येक विचार । प्रत्येक अहसास । हमारे अपने द्वारा समझा बूझा हुआ हो ।
आपको इस नीरवता की अवस्था में आना ही चाहिए । अन्यथा आप वास्तव में धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं । इसी अमित मौन के पार वह है - जो पवित्र पावन है ।
धार्मिक मन वह मन है ? जो अज्ञात में प्रवेश कर चुका है । और आप अज्ञात में छलांग लगाकर नहीं आ सकते । आप सावधानी पूर्वक गणित बैठाकर अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकते ।
आप यह जानना ही चाहिये कि - सत्य क्या है ? क्योंकि यही वह चीज है । जो महत्वपूर्ण और अर्थवान है । यह नहीं कि - आप अमीर हैं । या गरीब । आप खुशहाली शादी शुदा जिन्दगी जी रहे हैं । या आपके बच्चे है । या नहीं । क्यों वह सब समाप्त हो जायेगा । वहां निश्चित ही मृत्यु है । तो किसी भी विश्वास या मान्यता के किसी भी रूप के बगैर आपको सच खोजना ही पड़ेगा ।
धर्म भलमनसाहत का अहसास है । वह प्रेम जो नदी की तरह है । जीवन्त । नित्य प्रवाहमान । इसी अवस्था में एक ऐसा क्षण आता है । जिसमें आप पाएंगे कि - अब कोई खोज शेष नहीं रही । और इस खोज की समाप्ति में ही उसकी शुरूआत है । जो सर्वथा अनूठा है ?
ईश्वर की खोज । सत्यकीखोज । सम्पूर्ण रूप से भले हो जाने के अहसास की खोज । धर्म है । ना कि अच्छाई । नमृता आदि गढ़ना । विकसित करना । धर्म है । मन की खोजों और चालाकियों से परे । किसी अनाम का अहसास । उसमें जीना । वही आपका अस्तित्व होना । यही सच्चा धर्म है । लेकिन आप यह तभी कर सकते हैं । जब आप उस गड्ढे से निकले । जो आपने अपने लिये खोदा है । और जीवन की नदी की तरफ बढ़ें । तब जीवन के पास आपको संभालने का अपना आश्चर्यजनक तरीका है । क्योंकि तब आप खुद की संभाल की जिम्मेदारी अपने 


पास नहीं रखते । जीवन अपनी इच्छा से आपको जहां चाहे वहां ले जाता है । क्योंकि आप उसी का हिस्सा हैं । तब आपको सुरक्षा की समस्या नहीं रहती । तब आपको यह समस्या नहीं रहती कि - कौन आपके बारे में क्या कहता है ? और क्या नहीं कहता ? और यही जीवन का सौन्दर्य है ।
प्रश्न - किसी बात की सम्पूर्णता देखने से क्या आशय है ? क्या यह कभी संभव है कि - हम किसी गतिमान चलायमान चीज की सम्पूर्णता को महसूस कर सकें ?
क्या आप इस प्रश्न को समझ रहे हैं ? यह एक अच्छा प्रश्न है ? तो क्या हम और आप मिलकर इस प्रश्न को बूझने की कोशिश करें ?
जैसा कि हमने पहले प्रश्न की खोजबीन में कहा कि - हमारी चेतना की सम्पूर्णता । जो चेतना ‘‘मैं’’ के रूप में केन्द्रीकृत है । स्व आत्म के रूप में । अहंवादी गतिविधि में । स्व केन्द्रित कार्य व्यवहार में चलाय मान है । जो हमारी चेतना की सम्पूर्णता है । ठीक ? अब क्या हमे इसे पूरी तरह से देख सकते है ? बिल्कुल हम देख सकते हैं । क्या यह कठिन है ? तो बात ये है कि - किसी की भी चेतना से ही उसके सभी पक्ष बनते हैं । ठीक ? तो यह स्पष्ट हुआ ?
तो मेरी ईर्ष्‍या । मेरी राष्ट्रीयता । मेरे विश्वास । मान्यताएं । मेरे अनुभव । और इत्यादि आदि । यही उसके पक्ष या तत्व हैं । जिसे चेतना कहते हैं ।
इसके मूल में मैं हूँ ।आत्म हूं । ठीक ? तो इस बात को अब पूरी तरह से देखते हैं । क्या आप ऐसा कर सकते हैं ? बिल्कुल । आप ऐसा कर सकते हैं । जिसका मतलब है कि - उसे पूरी अवधानता । या होश से देखना ।
पुनः हम कदाचित ही किसी बात पर पूरा ध्यान देते हैं । तो अब हम एक दूसरे से कह रहे हैं कि - इस पक्षों इन तत्वों पर पूर्ण ध्यान देते हुए देखें । इस आत्म पर । इस स्व । या मैं पर । जो कि इसका निचोड़ है । मूल है । इसे अवधान पूर्वक देखें । तो आप सम्पूर्णत्व देख पायेंगे ।
इसके साथ ही प्रश्न कर्ता ने यह भी कहा है कि - जो कि रूचिकर भी है कि क्या यह कभी संभव है कि किसी चलायमान चीज की सम्पूर्णता को जाना । समझा । महसूस किया जा सकता है ? तो क्या आपकी चेतना के तत्व चलायमान हैं ? यह अपनी ही सीमाओं में चल रहे हैं ।
देखिये । चेतना में क्या चलायमान है ? मोह । जुड़ाव । किसी से न जुड़ने का भय । वह भय कि मैं किसी से न जुड़ा । तो कया होगा ? जो क्या है ? अपनी ही परिधि में गतिविधि । अपने ही सीमित क्षेत्र में गतिमान रहना । जो आप देख ही रहे हैं । जिसका आप निरीक्षण कर रहे हैं । तो आप देख सकते हैं । जो सीमित ही है । अगर हम इसमें और जरा गहरे जायें । तो चौंकियेगा मत । तो क्या हमारी चेतना ही अपने तत्वों के साथ जी रही है ? क्या आप मेरे प्रश्न को समझे ? क्या मेरे विचार ख्याल ही जिन्दा हैं ? आपकी मान्यताएं ही जी रही हैं ? तो क्या जी रहा है ? क्या आप

इस सबको समझ बूझ रहे हैं ? किसी ने अनुभव किया । खुशी । दुख । भला । बुरा । तथाकथित बुद्धत्व । आपके पास सत्य का अनुभव । या बुद्धत्व का अनुभव नहीं है । ये अप्रासंगिक है । तो क्या वह अनुभव है । जो आप जी रहे हैं ? या उस अनुभव की याद है ? जो आप जी रहे हैं ? ठीक ? तो याद । न कि तथ्य । तथ्य । यथार्थ तो जा चुका है । लेकिन वो जो स्मृति की गतिविधि । यादों का चलना है । उसे हम जीना कह रहे हैं । तो अनुभव जो चले गये हैं । बीत चुके हैं । निश्चित ही वही याद किये जा रहे होते हैं । और इस याद करने को ही हम जिन्दगी जीना कह रहे हैं । यह आप देख सकते हैं । पर वो नहीं । जो बीत ही चुका है । मुझे आश्चर्य होगा । यदि आप यह देख पायें ?
तो हम जिसे जीना कह रहे हैं । वो वो चीज है । जो हो चुका है । जा चुका है । देखिये श्रीमान ! आप क्या कर रहे हैं ? जो कि जा चुका है । और मृत है । हमारा मन बहुत ही मरा हुआ है । और इस सबकी यादों को हम जीवन कह रहे हैं । यह हमारे जीवन की त्रासदी है । मुझे वो दोस्त याद है । जो मेरा हुआ करता था । जो चला गया है । भाई । बहन । पत्नी । स्‍वर्गवासी माँ । ये सब याद हैं । तो क्या यह यादें । जो उनके चित्रों को देखने से मैं याद कर रहा हूं । यही जीना है ? क्या आप समझे श्रीमान ? और यही है । जिसे हम जीना या जीवन कहते हैं । जे. कृष्णमूर्ति
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