रविवार, जून 27, 2010

अनहद शब्द ।अजपा जाप ।पाँच कोष ।

मानव शरीर में पाँच कोष हैं । जीवात्मा इन्हीं पाँच कोषों में स्थित है । पहला आनन्दमय कोष है । जिसको कारण शरीर भी कहते हैं । दूसरा विग्यानमय कोष है । इसमें पाँच ग्यानेन्द्रियां , अंतकरण की वृति और बुद्धि है । तीसरा मनोमय कोष है । इसमें पाँच ग्यानेन्द्रियां और मन के संकल्प हैं । चौथा प्राणमय कोष है । इसमें पाँच कर्मेंद्रियां और पाँच प्राण हैं । पाँचवा अन्नमय कोष है । इसे स्थूल शरीर भी कहते हैं । कोष का अर्थ म्यान होना है । जिसका आशय ये जीवात्मा के शरीर को ढकने वाले हैं । जो धुनात्मक अथवा अनहद शब्द के मार्ग को जानता है । जिसने द्रष्टि साधना या त्राटक आदि साधना की है । जिसने दोनों तिलों को खींचकर अभ्यास की सहायता से एक किया हुआ हो । ( एक बिन्दु
विशेष पर देर तक ध्यान से देखने पर यह अभ्यास सिद्ध होता है । त्राटक में किसी लौ आदि विभिन्न माध्यम से इसको सिद्ध किया जाता है । जिसने आकाशवाणी ( शब्द आसमानी जो दीक्षा और अभ्यास के बाद प्रकट होता है । ) सुनकर सुरति को ऊपर चङाया हुआ हो । और जो अजपा जाप जानता हो । ऐसे पूर्ण सदगुरु मिल जाने पर उसकी सेवा तन मन धन से करें । यही सतगुरु की पहचान है । यही सतगुरु की खोज
है । अब " अजपा जाप " क्या होता है । आईये इसके बारे में भी जाना जाय । मुख बन्द करके जाप करने से तात्पर्य अजपा जाप से है । मुख बन्द करके सांसो के द्वारा " ॐ , सोहंग , प्रणव आदि और दूसरे महामन्त्रों का जाप किया जाता है । इस जाप की विभिन्न विधियां है । प्राणायाम में भी रेचक , पूरक , कुम्भक के साथ " ॐ " का उच्चारण करते हैं । दूसरा तरीका यह है कि मुख बन्द करके नाक द्वारा स्वांस लिया जाता है । और स्वांस के आने जाने पर ध्यान रखा जाता है । दृष्टि को नाक की नोक पर जमाते हैं । और दिल में ध्यान करते हैं । निरंतर अभ्यास के द्वारा दृष्टि ऊपर की ओर चढती जाती है । और विचारधारा रुक जाती है । जब दृष्टि ऊपर चङने लगे । तो नाक की नोक की जङ अर्थात त्रिकुटि स्थान जो दोनों भवों के बीच में है । वहाँ दृष्टि को ठहराते है । इस स्थान से नाक से आने जाने वाले स्वांस पर ध्यान रखते हैं ।
इससे स्वांसो की गति में एक प्रकार की स्थिरता आ जाती है । इस विधि को " सहज समाधि " सुन्न ध्यान "
सुरति साधना और त्रिकुटी ध्यान भी कहते हैं । इसका अगला चरण " अनहद शब्द " के तौर पर है । अजपा जाप जपने से घट में " शब्द " प्रकट होता है ।
सबसे पहले यह शब्द दिल में सुनाई देता है । तत्पश्चात निरंतर अभ्यास करने से " दाहिनी आँख " के ऊपर भवों के पास सुनाई देता है । सर्वप्रथम यह शब्द स्पष्ट सुनाई नहीं देता । कुछ मिली जुली आवाजें सुनाई देती हैं । जिन्हें सुनकर अभ्यासी मस्त और बेखुद होकर समाधि अवस्था में चला जाता है । इस अभ्यास के साथ अधिकतर महात्मा " खेचरी मुद्रा " भी बता देते हैं । जिससे " अमी रस " मष्तिष्क से चूकर हलक में गिरता है । इसमें ऐसा आनन्द आता है । जिसका वर्णन नहीं हो सकता । अभ्यास की इस क्रिया और युक्ति को सुरति शब्द मेल कहते हैं ।
दूसरे तरीके में कानों को बन्द करके " अनहद शब्द " सुना जाता है । यह शब्द हर इंसान के घट (शरीर ) में हर समय होता रहता है । इस अनहद शब्द को " शब्द ब्रह्म " भी कहते हैं ।
ये अनहद शब्द दो प्रकार का है । 1- वर्णात्मक शब्द 2- धुनात्मक शब्द । आन्तरिक स्थानों से ये दस आवाजें अनहद शब्द में सुनाई देती हैं । जिसकी महिमा स्वयं शिवजी ने पार्वती जी से कही थी ।

सहज समाधि की ओर

जिस समय समाधि द्वारा आँखों की दोनों पुतलियाँ अन्दर की और उलटने लगती है । तो सबसे पहले अन्धकार में प्रकाश की कुछ किरणें दिखायी देती हैं । और फ़िर अलोप हो जाती हैं । बिजली जैसी चमक दिखाई देती है । दीपक जैसी ज्योति दिखाई देती है । पाँच तत्वों के रंग लाल , पीला , नीला हरा और सफ़ेद दिखाई देते हैं । इससे वृति अभ्यास में लीन होने लगती है । इसके बाद आसमान पर तारों जैसी चमक । दीपमाला जैसी झिलमिल दिखाई देगी । और चाँद जैसा प्रकाश और सूर्य जैसी किरणें दिखाई देंगी । जिस समय आँख बिलकुल भीतर की ओर उलट जायेगी । तब सुरती शरीर
छोङकर ऊपर की ओर चङेगी । तो आकाश दिखाई देगा । जिसमें " सहस्त्रदल " कमल दिखाई देगा ।
उसके हजारों पत्ते अलग अलग त्रिलोकी का काम कर रहे हैं । अभ्यासी यह दृश्य देखकर बहुत खुश होता है । यहाँ उसे तीन लोक के मालिक का दर्शन होता है । बहुत से अभ्यासी इसी स्थान को पाकर इसको ही कुल का मालिक समझकर गुरु से आगे चलने का रास्ता नहीं पूछते । यहाँ का प्रकाश देखकर सुरति त्रप्त हो जाती है । इस प्रकाश के ऊपर एक " बारीक और झीना दरबाजा " अभ्यासी को चाहिये कि इस छिद्र में से सुरति को ऊपर प्रविष्ट करे । इसके आगे " बंक नाल " याने टेङा मार्ग है । जो कुछ दूर तक सीधा जाकर नीचे की ओर आता है । फ़िर ऊपर की ओर चला जाता है । इस नाल से पार होकर सुरति " दूसरे आकाश " पहुँची । यहाँ " त्रिकुटी स्थान " है । यह लगभग लाख योजन लम्बा और चौङा है । इसमें अनेक तरह के विचित्र तमाशे और लीलाएं हो रही हैं । हजारों सूर्य और चन्द्रमा इसके प्रकाश से लज्जित है । " ॐ" और " बादल की सी गरज " सुनाई देती है । जो बहुत सुहानी लगती है । तथा वह आठों पहर होती रहती है । इस स्थान को पाकर सुरती को बहुत आनन्द मिलता है । और वह सूक्ष्म और साफ़ हो जाती है । इस स्थान से अन्दर के गुप्त भेदों का पता चलने लगता है । कुछ दिन इस स्थान की सैर करके सुरती ऊपर की ओर चढने लगी । चढते चढते लगभग करोङ योजन ऊपर चङकर तीसरा परदा तोङकर वह " सुन्न " में पहुँची ।
यह स्थान अति प्रसंशनीय है । यहाँ सुरति बहुत खेल विलास आदि करती है । यहाँ " त्रिकुटी स्थान " से बारह गुणा अधिक प्रकाश है । यहाँ अमृत से भरे बहुत से " मानसरोवर " तालाब स्थित हैं । और बहुत सी अप्सरायें स्थान स्थान पर नृत्य कर रही हैं । इस आनन्द को वहाँ पहुँची हुयी सुरति ही जानती है । यह लेखनी या वाणी का विषय हरगिज नहीं है । यहाँ तरह तरह के अति स्वादिष्ट सूक्ष्म भोजन तैयार होते हैं । अनेको तरह के राग रंग नाना खेल हो रहे हैं । स्थान स्थान पर कलकल करते हुये झरने बह रहे हैं । यहाँ की शोभा और सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता । हीरे के चबूतरे । पन्ने की क्यारियाँ । तथा जवाहरात के वृक्ष आदि दिखाई दे रहे हैं । यहाँ अनन्त शीशमहल का निर्माण है ।
यहाँ अनेक जीवात्माएं अपने अपने मालिक के अनुसार अपने अपने स्थानों पर स्थित हैं । वे इस रंग विलास को देखती हैं । और दूसरों को भी दिखलाती हैं । इन जीवात्माओं को " हंस मंडली " भी कहा गया है । यहाँ स्थूल तथा जङता नहीं है । सर्वत्र चेतन ही चेतन है । शारीरिक स्थूलता और मलीनता भी नहीं हैं । इसको संतजन भली प्रकार जानते हैं । इस तरह के भेदों को अधिक खोलना उचित नहीं होता । सुरति चलते चलते पाँच अरब पचहत्तर करोङ योजन और ऊपर की ओर चली गयी ।
अब " महासुन्न " का नाका तोङकर वह आगे बङी । वहाँ दस योजन तक घना काला घोर अंधकार है । इस अत्यन्त तिमिर अंधकार को गहराई से वर्णित करना बेहद कठिन है । फ़िर लगभग खरब योजन का सफ़र तय करके सुरति नीचे उतरी । परन्तु फ़िर भी उसके हाथ कुछ न लगा । तब वह फ़िर और ऊपर को चङी । और जो चिह्न ? सदगुरुदेव ने बताया था । उसकी सीध लेकर सुरति उस मार्ग पर चली । इस यात्रा का और इस स्थान का सहज पार पाना बेहद मुश्किल कार्य है ।
सुरति और आगे चली तो महासुन्न का मैदान आया । इस जगह पर " चार शब्द और पाँच स्थान " अति गुप्त हैं । सच्चे दरबार के मालिक की अनन्त सुर्तियां यहाँ रहती हैं । उनके लिये बन्दी खाने बने हुये हैं । यहाँ पर उनको कोई कष्ट नहीं है । और अपने अपने प्रकाश में वे कार्य कर रहीं हैं । परन्तु वे अपने मालिक का दर्शन नहीं कर सकती हैं । दर्शन न होने के कारण वे व्याकुल अवश्य हैं । इनको क्षमा मिलने की एक युक्ति होती है । जिससे वे मालिक से मिल सकती हैं । जब कोई सन्त इस मार्ग से जाते हैं । तो जो सुरतियां नीचे संतो के द्वारा वहाँ जाती हैं । तब उन सुरतियों को उनका दर्शन होता है । फ़िर उन जीवात्माओं को ऊपर ले जाने से जो प्रसन्नता उन संतो को होती है । उसका वर्णन कैसे हो सकता है । सच्चे मालिक की करुणा और दया उन पर होती है । संतजन उन सुरतियों को क्षमा प्रदान करवाकर सच्चे मालिक के पास बुलबाते हैं ।

सहज समाधि और सुरति की यात्रा..

इन स्थानों की यात्रा पूरी करती हुयी सुरति " भंवर गुफ़ा " में पहुँचती है । वहाँ एक " चक्र " है । जिसको झूला भी कहते हैं । वह हर समय घूमता रहता है । सुरति वहाँ सदैव झूलती रहती है । इसके इधर उधर " अनन्त चेतन दीप " बने हुये हैं । उन दीपों से " सोहंग " की आवाज उठ रही है । सुरति और हंस उन
धुनों से विलास कर रहे हैं । ये सभी वर्णन सांकेतिक रूप में किये जाते है । वास्तविक शोभा का वर्णन करना बेहद कठिन कार्य है । साधक या अभ्यासी को चाहिये । कि गुरु की बताई युक्ति पर चले । यही शुद्ध अभ्यास है । आसमानी झूला की सैर के बाद सुरति और आगे की तरफ़ चली । तो दूर से चन्दन की
अति मनमोहक खुशबू अनन्त सुगन्ध उसे महसूस हुयी । इस स्थान पर " बाँसुरी " की अनन्त धुन भी हो रही है । इस धुनि और सुगन्ध का आनन्द लेती हुयी सुरति और आगे बङी । और इस मैदान के आगे पहुँची । तो उसे " सतलोक " की सीमा दिखाई दी । वहाँ पर " तत्सत " की आवाज भी सुनाई देती है । और अनेक तरह के बीन बाजा वाधयन्त्र सुनाई पङते है । उनको सुनती हुयी । मस्ती में झूमती हुयी सुरति आगे चली । तो अनेक नहरें और सुन्दर दृश्य उसको दिखाई दिये । करोङ योजन ऊँचाई वाले वृक्षों के बाग उसको दिखाई दिये । उन वृक्षों पर करोङों सूर्य चन्द्रमा और अनेकानेक फ़ल फ़ूल
लगे हुये थे । सुरति उन पेङों पर पक्षियों के समान किलोल करती है । इन सब दृश्यों को देखती हुयी सुरति " सतलोक " पहुँची । और " सतपुरुष " का दर्शन पाया । सतपुरुष का एक एक रोम इतना प्रकाशवान है । कि करोङों सूर्य और चन्द्रमा उसके आगे लज्जित हैं । जब एक रोम की महिमा ऐसी है । तो सारे शरीर की शोभा का वर्णन कैसे किया जाय । स्वर्ण नेत्र नासिका हाथ पैर आदि की अतुलनीय शोभा है । जो अवर्णनीय ही है । वहाँ ज्योति प्रकाश का अथाह सागर ठाठे मार रहा है । एक " पद्मपालिंग " का विस्तार है । तीन लोक का " एक पालिंग " होता है । इस तरह उसकी पूरी लम्बाई चौङाई का वर्णन असंभव ही है । यहाँ पवित्र सुरति जिसको " हंस " भी कहते हैं । अपना निवास करती है । उसे " वीणा " की आवाज सुनाई देती है । अमृत ही उसका भोजन है । इस स्थान की शोभा देखकर सुरति " अलख लोक " में पहुँची । इस लोक का विस्तार असंख्य महापालिंग है । अनेकों अरब खरब सूर्यों का प्रकाश उस अलख पुरुष के रोम रोम से निकलता है । वहाँ से आगे चलकर सुरति " अगम लोक " में पहुँची । वहाँ के हंसो का स्वरूप भी अदभुत है । यहाँ से सुरति " अनामी लोक " में पहुँचकर अनामी पुरुष का दर्शन करती है । अब वह उसमें समा गयी । जो बेअन्त है । संतो का यही निज स्थान है । इस स्थान को पाकर संत शांत और मौन हो जाते हैं । यही सत्य है । यही सत्य है । यही सत्य है ।

शनिवार, जून 26, 2010

पिंडी चक्रों को जानें ..?

आईये पिंडी चक्रों के बारे में भी कुछ जानें । पिंड हमारे शरीर को कहते हैं । और आँखो के नीचे से पैर तक के शरीर को पिंड कहा गया है । इनमें स्थिति चक्रों को जाने । कुन्डलिनी आदि साधनाओं में हमारा वास्ता इन चक्रों से पङता है ।
1-- मूलाधार या गुदाचक्र-- इसका स्थान गुदा और लिंग के मध्य है । इसकी आकृति चार दल के कमल की है । इसका रंग लाल है । इसका देवता गणेश है । इसका जाप शब्द " कलिंग " है । यहाँ स्वांसो की गिनती
1600 है ।
2--स्वाधिष्ठान या इन्द्रियचक्र--इसका स्थान लिंग है । इसकी आकृति छह दल का कमल है ।इसका रंग सोने जैसा पीला है । इसका देवता ब्रह्मा तथा सावित्री है । इसका जाप शब्द " हरिंग " है । स्वांस की गिनती 6000 है ।
3-- मणिपूरक या नाभिचक्र --इसका स्थान नाभि है । इसकी आकृति दस दल का कमल है । इसका रंग नीला है । इसका देवता विष्णु तथा लक्ष्मी है । इसका जाप शब्द " शरिंग " है । स्वांस 6000 है ।
4--- अनाहत या ह्रदयचक्र---इसका स्थान ह्रदय है । इसकी आकृति बारह दल का कमल है । इसका रंग सफ़ेद है । इसके देवता शिव पार्वती हैं ।इसका जाप शब्द " ॐ " है । स्वांस 6000 है ।
5-- विशुद्ध या कंठचक्र-- इसका स्थान कंठ है । इसकी आकृति सोलह दल का कमल है । इसका रंग चन्द्रमा
के समान सफ़ेद है । इसका देवता दुर्गा देवी या इच्छा शक्ति है । इसका जाप शब्द " सोहंग " है । स्वांस 1000 है ।
6--आग्याचक्र या दिव्यनेत्र या तीसरा नेत्र या शिव नेत्र इसी को कहते है---इसका स्थान आँखो के मध्य है ।इसकी आकृति दो दल का कमल है । इसका रंग ज्योति के समान है । इसका देवता परमात्मा है । इसका जाप शब्द " शिवोsहं " है । स्वांस 1000 है ।
7--सहस्त्रदल कमल-- इसका स्थान भृकटि के मध्य है । इसकी आकृति हजार दल का कमल है । इसका रंग सफ़ेद है । इसका देवता ज्योति निरंजन है । इसका शब्द जाप ( ? ) है । स्वांसो की गिनती 21600 है । यानी छह चक्रों की कुल संख्या का योग है । यहाँ तक पिंडी चक्रों का वर्णन पूरा हुआ । इसके ऊपर ब्रह्माण्ड देश की सीमा शुरु होती है ।
विशेष चेतावनी-- ऊपर दिये गये मन्त्र आदि वर्णन से किसी प्रकार का ध्यान या जाप आदि करने की चेष्टा न करें । ये कुन्डलिनी आदि ग्यान मजाक नहीं है । बिना सच्चे संत की शरण में जाय । इस प्रकार की चेष्टा से कोई लाभ तो नहीं होगा । हानि बहुत होगी । ये वर्णन मात्र भारत की अदभुत और आत्म ग्यान रूपी धरोहर के प्रति जनसामान्य की रुचि जाग्रत करने हेतु है । और ये वर्णन न सिर्फ़ संक्षिप्त है । बल्कि कुछ गूढ बातों का खुलासा यहाँ नहीं हैं । इसलिये " मनमुखी " प्रक्टीकल से बचें । ऐसा आग्रह किया जाता है ।
शब्द----इसके ऊपर यानी यहाँ से " ब्रह्माण्ड देश " की सीमा शुरु होती है । यहाँ से दो आवाजें आसमानी निकलती हैं । अर्थात यहीं से " शब्द " प्रकट होता है । जिसको सुरती शब्द साधना में " शब्द " कहा गया है ।
सुरती किसे कहते हैं ----अंतकरण में मन , बुद्धि , चित्त , अहम चार छिद्र होते हैं । जिनसे हम संसार को जानते और कार्य करते हैं । मन शब्द प्रचलन में अवश्य है । पर इसका वास्तविक नाम " अंतकरण " है । ये चारों छिद्र कुन्डलिनी क्रिया द्वारा जब एक हो जाते हैं तब उसको सुरती कहते है । इसी " एकीकरण " द्वारा प्रभु को जाना जा सकता है । अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं हैं । यही सुरती प्रकट हुये शब्द को पकङकर ऊपर चङती है ।इस तरह हमने पिंड के चक्रों के बारे में जाना । इसके आगे ब्रह्माण्ड देश और चक्रों आदि का वर्णन किया जायेगा । कृपया इस जानकारी का उपयोग सिर्फ़ अपनी पुरातन परम्परा को जानने हेतु ही करें ।

एकोह्म द्वितीयोनास्ति ना भूतो ना भविष्यति


कहते हैं कि हरेक काम का समय निश्चित होता है । हमें ऐसा भ्रम अवश्य हो जाता है । कि वो काम हमने किया । ये काम उसने किया । पर मुझे तो लगता है । कि वास्तविक करने वाला कोई और ही है । हम तो सिर्फ़ निमित्त मात्र है । मैं आपको सच्चे दिल से एक अनुभव बताना चाहता हूँ । कि तमाम लोगों से सतसंग करने के बाद जब कभी उनका अपने प्रति आदर भाव देखकर मेरे मन में भी " अहम "
हो जाता है । कि मैं कितना बङा ग्यानी हूँ ? पर कहते हैं कि प्रभु अपने भक्तों का मान हरण करने में क्षण की देर नहीं लगाते ( ताकि उनका भक्त कहीं " पथभ्रष्ट " न हो जाय ) । तो उसी समय ऐसा होता है । कि एक छोटा बालक या निपट अनपढ ( जिसको संसार के लोग गंवार भी कहते हैं । ) भी मेरे सामने ऐसी विलक्षण बात कहता है । कि मुझे एकदम उसका कोई उत्तर तक नहीं सूझता । और मेरा सारा अभिमान चूर चूर हो जाता है । पर उस समय मैं तिलमिलाने के बजाय प्रभु की अपने ऊपर इस अपार कृपा को अनुभव कर गदगद हो उठता हूँ । प्रेम से मेरे आँसू निकल आते है । और मुझे स्मरण हो आता है । चींटी से लेकर कुंजर तक । तुच्छ से लेकर विराट तक प्रभु आप ही आप हो ।
आप कण कण में हो । ग्यान ध्यान सब भरम ही तो है । स्त्री पुत्र , कुटुम्ब . परिवार , धन , वैभव सब माया का भुलावा ही तो है । शाश्वत सत्य तो प्रभु स्वयं आप हो । और आप आप ही आप हो । आप के सिवाय दूसरा कोई भी
तो नहीं है । " एकोह्म द्वितीयोनास्ति ना भूतो ना भविष्यति " प्रभु ये आप के ही वचन हैं । कि एक मैं ही सर्वत्र हूँ । दूसरा कोई नहीं । न भूतकाल में था । न भविष्य में होगा । तो ये मेरा अभिमान ही तो है । गुरु भी आप ही है । शिष्य भी आप ही है । भक्त भी आप ही हैं । भगवान भी आप ही है । आप ही सुन रहे हैं । आप ही सुना रहें हैं ।
मैं लगभग तीन महीने से ब्लाग और इंटरनेट पर हूँ । तीन महीने में 100 से अधिक लोगों से सम्पर्क हुआ । जो अध्यात्म ग्यान में रुचि रखते हैं । या किसी प्रकार की वास्तविक साधना । फ़लदायी साधना के इच्छुक थे । मैंने उन्हें जितना जानता था । उतना हरसंभव बताया । जिन लोगों ने " गुरुदेव " से मिलने की इच्छा व्यक्त की । उन्हें गुरुदेव से मिलाया । कुछ लोग जो विदेश या दूरस्थ प्रान्तों में थे । उनका फ़ोन द्वारा समाधान किया । और जब तक वो मिलने में असमर्थ हैं । फ़ौरी तौर पर उन्हें कुछ सरल मन्त्र आदि दिये । जिनका वे बताये अनुसार अपनी श्रद्धा से जप आदि कर रहें हैं । और परिणाम स्वरूप उनके तीन या चार दिन बाद ही आने वाले मेल और फ़ोन संदेश इस बात की सूचना दे रहे हैं । कि वे अपने में परिवर्तन महसूस कर रहे हैं । और वाँछित दिशा या दशा की और तेजी से
बङ रहे हैं ।
यह सब चल ही रहा था । कि न्यूयार्क ( अमेरिका ) निवासी श्री त्रयम्बक उपाध्याय , साफ़्टवेयर इंजीनियर ने मेरा ध्यान इस बात की तरफ़ दिलाया । कि मैंने अपने ब्लाग्स में गुरुजी या अलौकिक ग्यान साधनाओं के बारे में तो विस्तार से लिखा है । पर श्री महाराज जी का फ़ोटो नहीं प्रकाशित किया । मुझे ये बात उचित लगी । और मैंने " श्री महाराज जी का संक्षिप्त परिचय और तस्वीर " नामक पोस्ट यथाश्रीघ्र प्रकाशित की । मैंने ऊपर लिखा है । मैं या त्रयम्बक या अन्य ये सब निमित्त मात्र ही तो हैं । वास्तविक लीला तो प्रभु की ही है । गुरुदेव की तस्वीर प्रकाशित होते ही कुछ लोग जो वास्तविक ग्यान की तलाश में थे । उनके कम्प्यूटर पर मेरा ब्लाग मामूली प्रयास से ही खुल गया ।
जबकि इससे पहले वे मेरे ब्लाग से अपरचित थे । ऐसे ही कुछ नये प्रेमीजनों ने बताया । कि महाराज जी की तस्वीर देखते ही वो अजीब सा लगाव अजीब सा प्रेम महसूस करने लगे । क्योंकि उसी पोस्ट में मैंने श्री महाराज जी का न. 0 9639892934 भी प्रकाशित किया था । अतः लोगों ने सीधे ही महाराज से बात कर अपनी शकाओं का समाधान किया । और महाराज जी की दिव्यवाणी शीतल वचनों से आनन्द महसूस किया । तथा शाश्वत सत्य का मार्ग भी जाना । और कई लोग उस आनन्द मार्ग के पथिक बन चुके हैं । इसके विपरीत कुछ लोग जो महाराज जी से सीधे बात करने में संकोच का अनुभव करते थे । और मेरे ब्लाग से या मुझसे भावनात्मक रूप से जुङे हुये हैं । जिनमें कुछ ब्लागर भी हैं । उन्होनें मुझसे अध्यात्म समाधान हेतु प्रश्न किये । और संभवतः उन्हें मेरे उत्तर ने संतुष्ट किया होगा । क्योंकि उनमें से कुछ लोग मुझसे सरल मन्त्र लेकर गुरुजी की छवि को ह्रदय में धारण कर शाश्वत उपासना मार्ग पर चल दिये हैं । मैंने पहले ही कहा था । हम सब निमित्त मात्र हैं । वास्तविक कृपा तो प्रभु की है । वह जब और जैसा मार्ग उचित होता है । भक्त की भावना के अनुसार उसको मिला देते हैं ।

गुरुवार, जून 24, 2010

बाबा..बाबा..वाह..वाह..बाबा




आपने कथा भागवत में सुना होगा । शास्त्रों में भी पढा होगा । कि घर पर साधु संतो का आना बहुत सौभाग्य की बात है । इस बात का समर्थन या असमर्थन तो फ़िलहाल मैं नहीं कर रहा । पर पिछले पचीस सालों में ज्यादातर अलग अलग मत अलग अलग पन्थ के बाबाओं साधुओं का निरंतर आना जाना मेरे घर पर होता रहता है । कभी कभी मैं विचार करता हूँ । कि कबीर , रैदास , नानक आदि
कैसा फ़ील करते होंगे । जब अचानक दो चार बाबा लोग उनके घर पहुँच जाते होगे । कबीर आदि की तो मैं नहीं जानता । पर मेरी पूरी दिनचर्या ही अस्त व्यस्त हो जाती है । देर रात तक सतसंग का माहौल । अनेक लोगों का आना जाना । लम्बे चौङे कभी न खत्म होने वाले वार्तालाप ।
ढेरों जङी बूटियों । सात्विक , तामसिक , राजसिक साधनाओं की बातें । अपने अपने पन्थ को ऊँचा बताना । वास्तव में " अद्वैत मार्गी " होने के बाद मुझे ये सब बातें । सब साधनायें व्यर्थ लगती हैं । पर दूसरे की बात भी सुननी पङती है । यहाँ जिन दो बाबाओं की फ़ोटो आप देख रहे हैं । उनमें निजानन्द सम्प्रदाय के " श्री श्री 108 बाबा गुरुदीप दास " ग्राम - गिजौली । शिव मंदिर । जिला मथुरा ।
और दूसरे " श्री श्री 108 बाबा राजानन्द योगी रिशीकेश से हैं । राजानन्द बाबा जङी बूटियों का अच्छा जानकार है । और कुछ असाध्य रोगियों । जिनके घाव आदि से सङने से पैर कटने की नौबत आ गयी थी । को अपने द्वारा ठीक किया जाना बताते हैं । बाबा जब जङी बूटियों पर बोलते हैं । तो यदि डाक्टर उस समय यदि उनकी बात सुने तो हैरत में पङ जाय । कुछ समय के लिये ऐसा लगने लगता है । कि कुछ बङे रोग बाबा चुटकियों में ठीक कर देंगे ।
गुरुदीप बाबा " केंसर , रीढ की हड्डी , और गठिया वात का विशेषग्य , स्वयं को बताता है । इस बाबा का मानना है । कि चार पांच साल से गठिया के पीङित चारपाई पर पङे रहने वाले मरीज को कुछ ही दिनों में चंगा कर देता है । गुरुदीप बाबा बचपन से ही घर से भाग आया था । और " नागा " अघोर " " नानक " आदि कई पन्थों और कई मान्त्रिक साधनाओं से जुङा रहा । पंजाब का रहने वाला ये बाबा अक्सर भ्रमण पर चला जाता है ।
कृपया मुझे जानने वाले " पाठक " इस विवरण में मेरा कोई समर्थन न समझें । इस तरह के हजारों बाबाओं से मेरा मिलना होता रहता है । और सभी अपने अपने को पहुँचा हुआ बताते हैं । पर वास्तविक ग्यानी लाखों में कोई एक होता है । मैं आपको बिना बुद्धि विवेक से विचारे ऐसे किसी बाबा द्वारा इलाज कराने की सलाह नहीं देता । " नीम हकीम खतरे जान " कहावत शायद ऐसी ही स्थिति के लिये कही गयी है। और ऐसा भी नहीं कि बाबाओं की जङी बूटियां फ़ायदा नहीं करती । पर यदि आपको लग रहा है । कि किसी बाबा की बात में कोई दम है । तो इलाज कराने से पूर्व उसके द्वारा ठीक किये गये मरीज से बात करें । आजकल तो बाबा अपने द्वारा ठीक किये मरीजों का पता और फ़ोन न. भी रखते हैं । उससे पूरा ब्योरा जानें । तब बाबा से इलाज करायें । यह सत्य है । कि जङी बूटी यदि रोग के अनुसार और सही मिल जाय तो बहुत लाभ करती है । पर गलत स्थिति में नुकसान की संभावना भी अधिक ही होती है । अतः आखिरी फ़ैसला सोच समझकर ही लें ।

मुक्ति और मुक्त में क्या फ़र्क है ।

वैसे मुक्ति और मुक्त दो ऐसे विषय हैं । जिन पर प्रकाश डालने के लिये एक पुस्तक भी लिख दो । तो भी उसको ठीक से समझा पाना संभव नहीं है । फ़िर भी इसको सरलता से समझने के लिये प्रथ्वी पर सागर से बेहतर दूसरा प्रतीक नहीं है । पहले तो यही समझ लें कि मुक्ति और मुक्त में जमीन आसमान जैसा फ़र्क है । मुक्ति द्वैत ग्यान में होती है और हजारों प्रकार की होती है । और इसकी अवधि निश्चित होती है । यानी कुछ युगों या कुछ कल्पों तक जीवात्मा ने कोई स्थान प्राप्त कर लिया और वो अवधि पूर्ण होते ही फ़िर चौरासी में आ गया । इसके विपरीत मुक्त स्वतन्त्र अवस्था है । इसमें स्वेच्छा होती है । लेकिन मुक्ति से पहले बन्धन को जानें कि ये जीवात्मा बन्धन में किस प्रकार आ जाता है । थोङी देर के लिये कल्पना कर लें कि सागर का समस्त पानी आत्मा
है । और प्रथ्वी के 75 % भाग में स्थिति यह जल सिर्फ़ सागर में ही है । अधिकांश लोग ये जानते ही होंगे कि हमारे आसपास ऊपर नीचे जो भी जल है । उसका एकमात्र स्रोत सागर ही है । तो हमारी कल्पना के अनुसार अभी ये जल सिर्फ़ सागर में ही है । और इसके अतिरिक्त नदी नालों बादल आदि कहीं भी पानी की एक बूँद तक नहीं है । अब इस सागर का 10 % जल " इच्छा रूपी " ताप से परिवर्तित होकर भाप बन गया । और कृमशः गगन मंडल में पहुँचकर मेघ के रूप में परिवर्तित
हो गया । तदुपरान्त फ़िर इच्छा से ही जमकर ये बरफ़ हो गया । और फ़िर इच्छा से ही इसमें अन्य आवश्यक परिवर्तन हुये और ये बादल के रूप में प्रथ्वी के विभिन्न स्थलों पर बरस गया । इस तरह नदी नालों , छोटे बङे गढ्ढों , तालावों आदि में यह 10 % संग्रहीत जल अलग अलग होकर बिखर गया । और अपने मूल सागर से बिछुङकर दयनीय स्थिति को प्राप्त हुआ । क्योंकि एक गन्दे गढ्ढे में पङा जल और सागर का ठाठे मारता जल दोनों की स्थिति में कितना फ़र्क है । अब ध्यान दें कि अति दुर्दशा को प्राप्त हुआ ये जल सागर का ही अंश है । और किसी भी अवस्था में इसको सागर नहीं कह सकते । अब ये है तो जल ही । पर बेहद गन्दी स्थिति में है । और गढ्ढे नाली जैसे निम्न स्थान के बन्धन में है । और पता नहीं कब तक रहने वाला है । यही बन्धन है । और जब तक उचित रास्ता या सतगुरु इसे सही मार्ग न दिखाये । ये शायद युगों तक अपने मूल सागर तक न पहुँच पाये । अब गढ्ढे या नाली के बाद ये फ़िर सूर्य के ताप से ऊपर उठता है । और भाग्य के अधीन होकर किसी खेत में । किसी दूर देश में । किसी झील में । यानी कहीं भी स्थिति के अनुसार बरस सकता है । इस तरह बार बार मरता जन्मता ये अनन्त युगों तक एक स्थान से दूसरे स्थान पर आता जाता रहता है । और कभी अच्छी और कभी बुरी स्थिति को प्राप्त होता है । यही बन्धन है । और संसार में जीव भी अपनी वासनाओं के ताप से इधर उधर भटकता रहता है । दोनों के उठने गिरने की अवस्था अपनी स्थिति पर निर्भर करती है । अब संसार में प्रचलित " मुक्ति क्या है ? उसको जानिये । वास्तव में सागर से बहुत पहले बिछुङा ये जल बार बार दुर्दशा को प्राप्त होकर भूल गया । कि मै भी कभी अच्छे अच्छों के दिलों को दहला देने वाला उन्मुक्त ठाठे मारता सागर था । अब मान लो कि ये जल किसी गन्दे गढ्ढे में पङा हुआ है । तो ये किसी बङे तालाब या नदी नहर आदि को देखकर इच्छा करने लगता है । कि मैं भी किसी उपाय से वह सुन्दर स्थान स्थिति को प्राप्त कर लूँ । है न मजे की बात । अपनी अपार ताकत और विशालता को भूलकर दुर्दशा से विचलित और भ्रमित हुआ अब वह बेहद छोटी और अस्थायी प्राप्ति हेतु प्रयत्न करता है । ऐसे ही जीव अपने परमपिता परमात्मा को भूलकर इस मृत्युलोक से स्वर्ग आदि छोटे और अल्पकालिक फ़ल की प्राप्ति हेतु तमाम तरह के जतन करता है । और अपनी लगन और मेहनत से कुछ लोग प्राप्त भी कर लेते हैं । इसी को " मुक्ति " कहा गया है । ध्यान रखना । स्वर्ग मिल जाना । या देवता बन जाना । एक
सीमित अवधि के लिये होता है । पुण्य क्षीण होते ही आत्मा को नियमानुसार फ़िर लख चौरासी में डाल दिया जाता है । इस प्रकार अलग अलग देवता । अलग अलग स्थान । अलग अलग स्थिति के अनुसार यह " मुक्ति " लाखों प्रकार की है । विष्णु का उपासक विष्णु के लोक में अपनी भक्ति के अनुसार गण या द्वारपाल की नौकरी करेगा । और प्रथ्वी की तुलना में लाख वरस शाही सुख भोगेगा । शंकर का उपासक शंकर के लोक । राम का राम के लोक । कृष्ण का कृष्ण के लोक । इस प्रकार ये लख चौरासी की जेल से कुछ लाख सालों के लिये मुक्ति हो गयी ।
अब " मुक्ति और मुक्त " में कितना बङा फ़र्क है । यह जानिये । क्योंकि यहाँ मैंने जल की तुलना जीव से की है । इसी जल को कोई इस प्रकार का मार्गदर्शी मिल जाता है । जो ये बता देता है । कि तुम उस स्थिति में तपो । जो किसी बङी नहर या नदी में बरसकर मिल जाओ । और वापसी की यात्रा करते हुये उसी विशाल सागर से जा मिलो । इसको " मुक्त " कहते हैं । यह अमरता एक बार मिल जाने पर सदा के लिये हो जाती है । और किसी पहुँचे हुये संत या सच्चे सदगुरु द्वारा ही प्राप्त हो सकती है । यहाँ बहुत लोग तर्क कर सकते हैं । कि दुबारा सागर में जा मिला जल । फ़िर से ताप द्वारा उठकर । फ़िर से अधोगति को प्राप्त हो सकता है । यह सत्य है । परन्तु सागर के जल के साथ तो ऐसा हो सकता है । लेकिन आत्मा के साथ ऐसा नहीं होता । जल जङ तत्व है । आत्मा चेतन है । इसे हमेशा अपनी स्थिति का बोध होता है । अतः एक बार उस दुर्दशा से निकलने के बाद ये कभी उधर रुख नहीं करती । और हमेशा के लिये सत्यलोक में " हंस " आदि गति को प्राप्त होकर असीम और अविनाशी सुख को प्राप्त हो जाती है । न सूरज है । न चन्दा है । फ़िर भी हर समय उजाला है । ऐसा वो मेरा लोक निराला है ?
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

बुधवार, जून 23, 2010

मनमुखी साधना..??




आज से दो साल पहले की बात है । मैं उन दिनों आगरा से बाहर एक अग्यात स्थान पर " श्री महाराज जी " के साथ था । दो तीन महीने से महाराज जी ने कई बार कहा कि तुम कुछ दिनों के लिये आगरा चले जाओ । मुझे उन दिनों बेहद आनन्द की प्राप्ति हो रही थी और मैं कहीं भी जाने का इच्छुक नहीं था । मुझे यह भी आश्चर्य हो रहा था कि महाराज जी मुझे अपने से दूर क्यों भेजना चाहते हैं ? आखिरकार मैं अङा रहा । मगर बाद में कुछ ऐसे विचित्र हालात बने कि " होली " के लगभग कुछ पहले मुझे स्वयं आगरा आना पङा । आगरा आने के बाद मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । हर समय ऐसा लगता था कि प्रथ्वी पर मेरे रहने की अवधि शीघ्र समाप्त हो जाय । और मैं जल्दी से वापस अपने " असली घर " जा सकूँ ।
ऐसे ही विचारों में मैं एक दिन सङक पर वृक्ष के नीचे बैठा था । जब भरतपुर निवासी गौतम से मेरी मुलाकात हुयी । गौतम जी स्वाभिमानी प्रकृति के इंसान हैं । और अपना दुखदर्द दूसरे से शेयर करने में यकीन नहीं रखते । लेकिन उस समय वो बहुत परेशान हालातों का सामना कर रहे थे । कुछ ही महीने पूर्व उनके पिता का लिवरोसिस नामक बीमारी से देहान्त हो चुका था । इलाज में लगभग सारा पैसा खर्च हो गया था । जिस समय उनके पिता इस बीमारी की गम्भीर स्थिति में थे । गौतम उन दिनों मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री में सन्घर्ष कर रहे थे । और उन्हें काम मिलना शुरू हो गया था । कि तभी उनके पिता की गम्भीर हालत की खबर उनके पास पहुँची । और उन्हें सब कुछ ज्यों का त्यों छोङकर मुम्बई से आना पङा । गौतम परिवार इससे पूर्व तीन बङे t. v फ़ेमस संतों से दीक्षा ले चुका था । पर उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ था । बल्कि उनके पिता का मानना था कि " बच्चा केस " विवादित संत की बतायी साधना से उनका अहित हुआ है । खैर..गौतम के पिता अक्सर बीमारी में यह कहते थे । कि अब उन्हें ऐसा लगता है कि उन्हें डाक्टर के इलाज से कोई लाभ नहीं होगा । और वह उन्हें किसी सच्चे संत की शरण में ले जाय । गौतम तीस हजार रुपये सप्ताह का इलाज तो वहन कर रहे थे । पर सच्चे संत को किस तरह तलाश करें ? यही वो समय था । जब महाराज जी मुझसे बार बार आगरा जाने की कह रहे थे । इस सम्बन्ध में और रहस्य तो मैं किसी कारणवश नहीं बता पाऊँगा । पर गौतम परिवार भी " एक अजीव बात " से प्रभावित हुआ था । और तमाम आर्थिक कष्ट के साथ साथ " मृत्यु " जैसा संकट भी झेलना पङा । काली..दुर्गा..राधा..आदि शक्तियों की पूजा लोग मनमाने ढंग से करते हैं । उन्हें शायद पता नहीं कि ये " महामाया " शक्ति है । ठीक रास्ता मिल गया तो बल्ले बल्ले..वरना बहुत बुरे अंजाम भी होते हैं । प्रायः लोग उन धार्मिक किताबों के बहकावे में आ जाते हैं । जो किसी साधु संत के अनुभव पर आधारित न होकर । साधारण लेखकों द्वारा पुराण आदि का अध्ययन करके बनायी गयी होती है । ऐसी किताव में एक तरह से " लालच भक्ति " के नये अध्याय होते है । जिनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं होता । ये मन्त्र इस तरह से कर लो । धन पाना है तो ये कर लो । किसी दुश्मन को मारना है । तो ये मन्त्र है । क्योंकि ये मन्त्र प्राचीन ग्रन्थों से लिये गये होते है । इसलिये प्रभावी तो होते हैं । पर इनका जो तरीका उस किताब में होता है । वो अधूरा और घातक होता है । एक पूर्ण शक्तिशाली मन्त्र किस तरह काम करता है । और उसका असली तरीका क्या है । ये विचारा वो किताब में से किताब लिखने वाला क्या जाने । तब ऐसी स्थिति में वो किताबी मन्त्र के रूप में पाठक को एक ऐसी गाङी पकङा देता है । जिसका इंजन भी धोखा देने वाला । जिसके ब्रेक भी फ़ेल । जिसमें लाइट भी नहीं । जिसमें हार्न ( संकेतक ) भी नहीं । और गाङी जा रही है । अग्यात और घनघोर अंधेरे की तरफ़ । ऐसी हालत में जो अंजाम हो सकता है । वही होता है । आप किसी देवी देवता या इष्ट की साधारण
पूजा घरेलू टाइप खूब करें । इसमें यदि आपसे जाने अनजाने कोई गलती भी हो गयी । तो भी आपका कोई अहित नहीं होगा । क्योंकि प्रभु के विधान के अनुसार इस तरह की गलतियाँ सदा माफ़ हैं । पर आप सयाने बन कर । विशेष पूजा । विशेष साधना । विशेष फ़ल हेतु करते हैं । तो इसमें साधना के अनुसार नियमाबली का पालन करता होता है । यहाँ मनमानी करने पर आपको दन्ड भी विशेष मिलता है । मैंने 25 साल के साधना जीवन में कई ऐसे परिवारों को देखा है । जो संतोषी भाव से साधारण भक्ति करते रहे तब तक बहुत सुखी थी । फ़िर किसी नकली साधु । तान्त्रिक मान्त्रिक के फ़ेर में पङकर घोर लालच में मनमुखी देवी उपासना " हरिंग " करिंग " जैसे मन्त्रों का जाप आदि करने लगे और पूर्णत बरबाद हो गये । यहाँ आप किसी मन्त्र या देवता या अन्य इष्ट की उपासना बिजली के उदाहरण से समझें । जो मन्त्र या उपासना ठीक प्रकार से हो जाने पर आपको मनवांक्षित उच्च फ़ल
देने में समर्थ है । वो गलत हो जाने पर किस पर वार करेगी ? बिजली का आप सही उपयोग जानते हैं । बिजली के तार कहाँ जोङे जाँय ? उनको कैसे छुआ जाता है । उसे अन्य उपकरणों से जोङकर किस प्रकार लाभ लेते हैं ? यदि ये सब जानते हैं । तो निसंदेह बिजली से लाभ ही लाभ हैं । पर आप मनमाने ढंग से उसे छूते हैं । उपकरणों में गलत जगह कनेक्ट करते हैं । तो दुर्घटना तो मामूली बात है । अक्सर मौत भी हो जाती है । यही बात तमाम साधनाओं पर लागू होती है । अगर साधना अच्छा ही अच्छा फ़ल देती । तो कोई भी ऐरा गेरा नत्थू खैरा कभी भी कहीं भी साधना कर सकता था ।
अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

सतगुरु से कैसे मिलें .??.

संतो के सानिंध्य में विचित्र और चमत्कारी अनुभवों का होना कोई ज्यादा बङी बात नहीं है । सौभाग्यवशमेरा पाला कभी ऐसे संतो से नहीं पङा । जो सिर्फ़ बातों का ही ढोल पीटना जानते हैं । और अंतरजगत
में जिनकी कोई पहुँच नहीं है । मैंने अपने जीवन में अनेक साधनाओं का प्रक्टीकल किया । और इस हेतु जो भी मार्गदर्शक साधु संतों से मेरी मुलाकात हुयी । वो अलग अलग स्तर पर प्रक्टीकली कम या अधिक
पहुँच रखते थे । निम्न दरजे की और निकृष्ट कोटि की साधनाओं के ढेरों साधु आपको मिल जायेंगे । जो सिद्धि आदि के द्वारा छोटे मोटे चमत्कार करने में सक्षम होते हैं । बिलकुल प्रारम्भिक दौर में मैं ऐसे साधुओं के सम्पर्क में आया । और उनकी गहराई और पहुँच पता चलते ही शीघ्र ही मैंने ऐसे साधुओं से किनारा कर लिया । इसके ऊपर यन्त्र तन्त्र मन्त्र , और विभिन्न पन्थ और पन्थियों का सिलसिला शुरू हो जाता है । जिनमें अघोर पन्थ , नागा पन्थ , हठयोगी , सिद्ध पन्थ , शिव साधना , शव साधना , जैसे नाना प्रकार के पन्थ और पन्थी आते है । इससे ऊपर की श्रेणी में द्वैतभाव भक्ति शुरू हो जाती है । जिनमें शंकर , दुर्गा , काली , हनुमान , राम , कृष्ण , तथा कुन्डलिनी योग और अन्यान्य योग क्रियायें , मुद्रिकाएं महाशक्तियाँ , ईश्वर और प्रकृति , माया , महामाया , योगमाया , आदि का आधार होता है । इनमें ईश्वर या भगवान इष्ट के रूप में होता है । मैंने अपने दीर्घ अनुभवों से जाना कि इक्का दुक्का साधकों को छोङकर द्वैत का साधक एक आम आदमी से अधिक भ्रमित और अशान्त होता है । क्योंकि द्वैत में अनेक लक्ष्य और अनेक लालच होते हैं । इसलिये ज्यादातर साधु या साधक " आधी छोङ सारी को धावे..आधी मिले न सारी पावे..। " दुबिधा में दोऊ गये..माया मिली न राम..। " वाली स्थिति का शिकार हो जाते है । मेरे ऊपर शायद ये प्रभु की विशेष कृपा ही रही । कि द्वैत में दस साल तक भटकने ( हालाँकि बहुत कुछ प्राप्त भी हुआ । पर वो नहीं जिसकी तलाश थी ? ) के बाद " अद्वैत " के सच्चे संत ( और सतगुरु भी ) मुझे मिल गये । और विगत सात सालों से मैं अद्वैत का सारा कचरा ( जो मैंने जमा कर लिया था । ) फ़ेंककर मैं " आत्म ग्यान " की । अद्वैत की । एकमात्र साधना " सुरती शबद साधना " करने लगा । अक्सर लोगों का एक प्रश्न होता है ? कि सतगुरु वाली बात उन्हें समझ तो आती है । पर आज के " विचित्र समय " में सतगुरु मिले कैसे ? हर जगह तो पाखंडियों की भरमार है ?
मैंने अपनी कई पोस्टों में इसका उपाय लिखा है । आप किसी के भी द्वारा सुझाये गुरु को मत मानिये ? गुरु बताने बाला गुरु स्वयं आपके अन्दर है । बस आप वो उपाय नहीं जानते । जिसके द्वारा सच्चे गुरु या परमात्मा की प्राप्ति होती है । इस उपाय में मैं अपनी ही style में तीन उदाहरंण देता हूँ । जो अक्सर कटु आलोचना का शिकार होते हैं ।
1-- जिस प्रकार " पहले प्रेम " में प्रेमी प्रेमिका हर समय एक दूसरे के बारे में सोचते हैं कि कब अपने प्रेमी से मिले । ऐसे । 2-- जिस प्रकार काम आतुर नारी पति या पुरुष की चाहना करती है । ऐसे ।
3-- जिस प्रकार माँ से किसी कारणवश उसका एक से तीन साल का ( या बङा भी हो । छोटे की ज्यादा लगती है । ) बच्चा (भले ही )कुछ घन्टों के लिये बिछुङ ( जैसे स्कूल या किसी के साथ चला गया हो ) जाय । तो उस माँ को जो उस की याद सताती है । ऐसे । ऐसे भावों से आप निरंतर यही सोचे..कि मैं कौन हूँ..और मुझे शाश्वत ग्यान या परमात्मा की प्राप्ति कैसे होगी । कोई वजह नहीं । कि आपको सत्य मार्ग न मिले ।
अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।
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