सोमवार, अगस्त 23, 2010

महाराज जी और मैं । 1


आज से लगभग सात साल पहले की बात है । जब मैं द्वैत मार्ग ( तन्त्र मन्त्र पूजा आराधना उपासना । द्वैतमें खास बात ये होती है कि इसमें साधक और भगवान दो होते हैं । और ये सृष्टि या प्रकृति को पूरा महत्व देते हैं । पर अद्वैत आत्म दर्शन में ऐसा नहीं होता । इसमें सही ग्यान हो जाने पर प्रकृति या सृष्टि नहीं होती । केवल परमात्मा या पुरुष या चेतन या सार शब्द या निःअक्षर ग्यान होता है । स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति । इसमें अहम भाव का समूल नाश होता है । जबकि द्वैत में अहम की उत्तरोतर वृद्धि होती है । द्वैत से कभी आत्मा का वास्तविक ग्यान नहीं होता । और द्वैत ग्यान आत्मा के अविनाशी होने के रहस्य को भी बताने की क्षमता नहीं रखता । द्वैत के अच्छे साधक ऋषि मुनी देवता इन्द्र सिद्ध आदि का पद प्राप्त कर सकते हैं । या बहुत अच्छा साधक होने पर भगवान तक को जान सकते हैं या पूर्ण समर्पित साधक होने पर भगवान पद प्राप्त कर सकते हैं । फ़िर भी यह पूर्ण सत्य नहीं होता और इससे रूह के असली मुकाम यानी आत्मा की वास्तविक स्थिति मुक्त और परमानन्द अवस्था स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति को न जाना जा सकता है । न पाया जा सकता है । द्वैत में मुक्ति होती है और अद्वैत में मुक्त होता है । और इन दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है । ) का अच्छा साधक था । और निरन्तर गुप्त रूप से साधना में सलंग्न था । ज्यों ज्यों कोई साधना ऊपर की ओर प्रगति करती है । साधना और उसका साधक अभ्यास से गुप्त और साधारण रहन सहन सांसारिक जीवन में अपना लेते हैं । लिहाजा वे बातें सार्वजनिक रूप से बताने की नहीं होती । लेकिन जिन बातों से दूसरों को सहायता मिलती है । अथवा उनका किसी भी तरह हित होता है । वे बातें अवश्य बतायी जानी चाहिये । तो द्वैत की उसी साधना के समय में एक वक्त ऐसा आया कि मुझे आगे की साधना या मार्ग बताने वाले साधुओं का अभाव हो गया और उल्टे मेरे प्रश्न सुनकर या बात सुनकर साधु आश्चर्य से मुझे इस तरह देखने लगते जैसे मैं सीधा मंगल ग्रह से आ रहा हूं ? पर मेरे ऊपर उच्चकोटि साधनाओं का भूत सवार हो गया था । तब मैंने बिना किसी मार्गदर्शन के एक अत्यन्त दुर्लभ साधना की । और इसे मेरी भूल या सौभाग्य समझिये कि इसका परिणाम और अनुभव बेहद डरावना था क्योंकि ये साधना मैं बिना किसी गुरु के मार्गदर्शन या संरक्षण के कर रहा था । और परिणाम जैसा कि अपेक्षित था । मैं मनमुखी साधना से त्रिशंकु स्थिति में पहुंच गया । जिसको एक कहावत में यों समझ सकते हैं । सांप के मुंह में छंछुदर । न उगलते बने न निगलते । पांच महीने । बेहद परेशान स्थित में मैं न जाने कितने साधु संतो के पास गया । पर कोई भी मुझे नीचे न उतार सका । सबने हाथ खडे कर दिये । उल्टे वे भौंचक्का होकर मेरी बात या अनुभव को सुनते थे । और कहते थे कि हमने अपने जीवन में ऐसा आज तक नहीं सुना । फ़िर कुछ लोगों ने हिमालय के गन्धमादन पर्वत जैसे स्थलों पर जाने की सलाह दी कि वहां कुछ महात्मा ऐसे मिल सकते हैं । जो तुम्हारी समस्या का हल बता सकें । उस समय तक मेरे पूज्य गुरुदेव । सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस । प्रकट रूप में नहीं थे । और साधारण सफ़ेद वस्त्रों ( अभी भी सफ़ेद वस्त्र और साधारण वेशभूषा में ही रहते हैं । ) में रहते थे । उन्हें वैरागी और उच्चकोटि के ग्याता के रूप में तो कुछ गिने चुने लोग जानते थे । पर उनके और रहस्यों को कोई नहीं जानता था । बल्कि उनके रहन सहन से अभी भी बहुत लोग नहीं जानते हैं । तो अपनी उसी परेशानी के दौरान एक दिन मेरी बातचीत मेरे एक मित्र श्री श्याम वरन शास्त्री जी से हुयी । जो यादव केसेट कंपनी के मालिक थे । श्री श्याम वरन शास्त्री भी महाराज जी को कुछ ही जानने वालों में से एक थे । उन्होंने कहा । राजीव जी ।राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ । इस सम्बन्ध में आपको सही परामर्श " शिवानन्द जी " दे सकते हैं । क्रमशः ।

महाराज जी और मैं । 2


तब मुझे आशा की थोडी किरण नजर आयी । लेकिन संयोगवश यह बात भी आयी गयी हो गयी । और मैंफ़िर से और साधु संतो के चक्कर में उलझ गया । इसके करीब पन्द्रह दिन बाद की बात है । मेरी परेशानी कुछ अधिक ही बड गयी थी । तभी किसी प्रसंगवश मुझे यादव जी का ध्यान आया । और साथ ही उनकी बतायी हुयी बात याद आयी । मैंने यादव जी को फ़ोन किया तो वह उस समय किसी कार्यवश कचहरी में थे । और शाम को ही मिल सकते थे । मैंने कहा । आप किन्ही संत शिवानन्द जी के बारे में जो बात कर रहे थे । उस सम्बन्ध में कुछ काम था । यादव जी मेरी बात की गम्भीरता को शायद उस वक्त ठीक से समझ
नहीं पा रहे थे । लेकिन उन्होंने कहा कि शाम को वह महाराज जी के साथ मेरे घर आने की पूरी कोशिश करेंगे । उस वक्त दिन के ग्यारह बजे थे । और शाम होने में बहुत समय था । पर मेरे सामने बेहद मजबूरी थी । इसलिये मैं उस वक्त सिर्फ़ शाम होने का इंतजार ही कर सकता था । और ये बात भी कोई निश्चित नहीं थी कि शाम को यादव जी को कोई अन्य कार्य लग सकता था । और वे न आ पाते । जबकि मेरे लिये पल पल भारी था । खैर मैं बैचेनी से अपने घर के पिछवाडे बने बगीचे में चला गया । जहां नीम के पेड पर अनेकों चिडिंया चहचहाती हुयी एक डाली से दूसरी डाली पर जा रही थी । मेरे मन में विचार आया । परमात्मा की यह समूची सृष्टि कितनी रहस्यमय है ? चारों तरफ़ चेतन ही विभिन्न रूपों में खेल रहा है । माया के परदे में बनी यह सृष्टि मात्र एक भृम के सिवा कुछ नहीं है । सिर्फ़ जगत व्यवहार और जीवों के जिम्मेदार बरताव के लिये इसमें असली होने का अहसास मात्र लगता है । वास्तव में तो यह एक भ्रान्ति ही है । सिनेमा के परदे पर भी तो हमें जीवन असली ही नजर आता है । पर ये बात अलग है । कि सिनेमा का तकनीकी पहलू हम जानते हैं । लेकिन सृष्टि का तकनीकी पहलू अच्छे अच्छे नहीं जानते । वास्तव में उस वक्त मुझे सब सिनेमा ही नजर आ रहा था । एक बहुत बडे परदे का सिनेमा ? एक सिनेमा जो साधारण जीव और इंसान शरीर की आंखो देखते हैं । और इसके पिछले हिस्से का असली सिनेमा जो संत और योगी अन्तर की आंखो से देखते है । अभी दोपहर के दो बजे का समय था । यानी यादव जी के आने में तीन चार घन्टे का समय था । मैं बगीचे में लेट गया । उस खास अवस्था में मैं क्योंकि माया के दूसरे परदे के बारे में सोच रहा था । अतः लेटते ही मैं अंतरिक्ष में नीले पीले गुलाबी घने बादलों को पार करता हुआ सुदूर लोक में पहुंच गया । दिव्य साधना DIVY SADHNA के योगी जानते हैं । वायुमंडल की एक निश्चित सीमा पार कर लेने के बाद हमें गुरुत्वाकर्षण रहित ऐसा बहुत सा क्षेत्र मिलता है । जिसमे आधार भूमि की
आवश्यकता नहीं होती । यानी वहां बिना किसी आधार के आराम से खडे रह सकते है । वहां स्थूल शरीर का भार खत्म हो जाता है । प्रथ्वी के वातावरण से उपजी गरमी सरदी भी वहां नहीं होती । एक सुखद शान्त शीतल वायु और बेहद शान्ति अंतरिक्ष की खास खूबी है । जो मुझे बेहद आकर्षित करती है । इसका जीता जागता उदाहरण चील बाज गिद्ध आदि श्रेणी के वे पक्षी है । जो काफ़ी ऊंचाई पर पहुंचकर बिना किसी मेहनत और बिना किसी प्रयास के आराम से उडने के बजाय तैरते से रहते हैं । हालांकि जीव श्रेणी में आने वाले ये पक्षी उस आसमान पर नहीं जा सकते । जिसकी में बात कर रहा हूं । बल्कि ये प्रथ्वी के वायुमंडल और पहले आसमान के नाके के मध्य तक ही पहुंच पाते है । ठीक दो घन्टे के बाद मेरे शरीर में हरकत हुयी । मैंने घडी पर निगाह डाली । चार बज चुके थे । पांच बजे के लगभग जब मैं चाय पीकर फ़ारिग ही हुआ था कि यादव जी महाराज जी और मथुरा जिले की कृष्णाबाई के साथ मेरे घर आ गये । यह महाराज जी से मेरा प्रथम परिचय था । क्रमशः ।

महाराज जी और मैं । 3


यधपि इससे पहले मैंने कृष्णाबाई और महाराज जी को एक झलक भर एक आश्रम पर देखा था । जब मैं
होली गीतों के एक वीडियो एलबम की शूटिंग के लिये आश्रम के पास ही गया था । और गाने के कुछ दृश्योंकी शूटिंग आश्रम के अन्दर फ़ूलों की क्यारियों में हुयी थी । पर उस वक्त का माहौल कुछ और ही था । और
मैं संत मत sant mat के सफ़ेद वस्त्रधारी महात्माओं से उस वक्त अपरिचित ही था । मेरे लिये महात्मा होने का अर्थ लाल गेरुआ पीले वस्त्र ही थे । शूटिंग के बाद कृष्णाबाई ने बडे प्रेम से मुझसे चाय पीने के लिये कहा । जिसे मैंने विनम्रता से मना कर दिया । आश्रम से निकलते समय महाराज जी मुझे बाहर खडे हुये नजर आये । उन्होंने बेहद स्नेह भरी नजर से मुझे देखा । पर मैंने सफ़ेद वस्त्र होने के कारण उनसे कोई बात नहीं की । दूसरे द्वैत ग्यान का साधक अपने अन्दर विशिष्टता भाव के अहसास से दोगुने अहम का शिकार होता है । वही बात उस वक्त मुझमें भी थी । और दूसरे होली के द्विअर्थी गीतों । कामुक रसीले भाव । और भीगे वस्त्रों में युवा अभिनेत्रियों के कामुक अंग प्रदर्शन से मेरे अन्दर उस वक्त अध्यात्म का भाव एक तरह से तिरोहित ही हो गया था । अगर ऐसा नहीं होता । तो अपने जीवन के वे छह महीने मुझे बेहद परेशानी में न गुजारने पडते । महाराज जी को एक झलक देखने के बाद मैं भूल ही गया । वास्तव में मैं जानता भी नहीं था कि महाराज जी किसी प्रकार के सन्त हैं ? और जब यादव जी ने शिवानन्द जी के नाम से जिक्र किया । तब भी मुझे पता नहीं था । कि यादव जी किसका जिक्र कर रहें हैं ? कृष्णाबाई को भी व्यक्तिगत तौर पर मैं थोडा भी नहीं जानता था । और आज वे लोग मेरे सामने एक बार फ़िर मौजूद थे । जिनमें मैं सिर्फ़ श्यामबरन शास्त्री यादव जी से ही परिचित था । जिनकी पहचान मेरे मित्र के तौर पर थी ।
बाईजी काफ़ी समय पहले से घरबार त्यागकर आश्रम में रह रही थीं । और 65 वर्ष की आयु होने पर भी गजब
की ऊर्जावान थी । उनकी वाणी में मानों शहद भरा हुआ था । और चलने फ़िरने में गजब की फ़ुर्ती थी । ये लोग महाराज जी को बाबाजी के सम्बोधन से पुकारते थे । और सुरति शब्द साधना में उनके उच्चस्तर के विद्धतापूर्ण ग्यान को ही जानते थे । महाराज जी उच्चस्तर के संत हैं । ये वे लोग भी नहीं जानते थे ।
यही चिराग तले अंधेरा वाली बात होती है । और ये अंधेरा महज इसलिये था । क्योंकि वे भी संत मत sant mat की दीक्षा चन्दरपुर के संत राजानन्द उर्फ़ गडबडानन्द जी से लिये हुये थे । और महाराज जी को अपने समान या कुछ और बडकर मानते थे । वास्तव में किसी संत की वास्तविक ऊंचाई उसके प्रिय शिष्य को ही ग्यात हो सकती है । बाकी संसारी लोग इस बात का सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकते हैं । गुरु शिष्य की एक ही काया । कहन सुनन को दो बतलाया । महाराज जी उस वक्त गरमी का समय होने के कारण इनर वियर के रूप में पहनी जाने वाली सादा बनियान और सफ़ेद धोती पहने हुये थे । लेकिन उस वक्त उनके चेहरे पर गजब का तेज था । कहिये राजीव जी । मुझे यादव जी की आवाज सुनाई पडी । कैसे याद किया ? मैंने एक निगाह आसमान में उडते हुये परिंदो को देखा । आसमान में एक रहस्यमय लालिमा छायी हुयी थी । मैंने महाराज जी को देखा और बोला । करीब छह महीने पहले की बात है ?...इसके बाद
मैं अपनी उस मनमुखी साधना और उसके कष्टसाध्य अनुभवों को बताता चला गया । महाराज जी को छोडकर हरेक कोई मेरी बातों को बडे गौर से सुन रहा था । इस तरह महाराज जी के सम्पर्क में मैं पहली बार आया । लेकिन इसके बाद भी मेरे उन कष्टों का सही समाधान एक महीने बाद हुआ । इसमें भी मेरी ही गलती थी । मैं अभी भी अहम में भरा हुआ था । लेकिन एक महीने बाद ही महाराज जी को ठीक से समझते ही मेरे सभी कष्टों का अंत हो गया । और मैं असीम शान्ति का अनुभव करने लगा । इन सब बातों का विवरण आप मेरे शीघ्र प्रकाशित लेख । मायावी चक्रव्यूह के छह महीने । नामक लेख श्रंखला में पढ सकेंगे ।

बुधवार, अगस्त 18, 2010

क्योंकि जिसके पास यह होती है । वह राजा ही होता है ।


श्रेष्ठ हाथी । जीमूत ( मेघ ) वराह । शंख । मत्स्य । सर्प । शुक्ति तथा बांस में उत्पन्न मुक्ता फ़ल ही संसार में
प्रसिद्ध हैं । किन्तु इनमें शुक्ति यानी सीप में उत्पन्न मुक्ताएं ही अधिक उपलब्ध है । इन सभी मुक्ताओं में सीप में उत्पन्न होने वाली मुक्ता को रत्न के बराबर माना गया है । यह मुक्ता सूचकादि यन्त्र से वेध्य है ।
शेष मुक्ताएं अवेध्य हैं । हाथी । वराह । शंख । मत्स्य । । तथा बांस से उत्पन्न मुक्ताओं में प्रभा नहीं होती । फ़िर भी वे मांगलिक मानी जाती है । शंख और हाथी से उत्पन्न होने वाली मुक्ता अधम होती है । शंख से उत्पन्न मुक्ता बृहल्लोल फ़ल के समान होती है । हाथी के कुम्भ्स्थल से निकलने वाली मुक्ता में प्रभा नहीं होती । वह पीले रंग की होती है । मत्स्य से उत्पन्न मुक्ता अत्यन्त सुन्दर गोलाकार छोटी और सूक्ष्म होती है । यह अथाह समुद्र की जलराशि में विचरने वाले जलचर जीवों के मुख से प्राप्त होती है । वराह के दांत से उत्पन्न मुक्ता दुर्लभ होती है । ऐसे वराह प्रथ्वी के किसी किसी हिस्से में ही होते हैं । बांस के पर्वों से उत्पन्न मुक्ता ओले के समान सुन्दर शोभायुक्त होती है । ऐसे बांस भी दिव्यजनों के उपयोग हेतु किसी किसी स्थान पर ही होते है । अर्थात सब जगह नहीं मिलते । सर्प मुक्ता । मत्स्य मुक्ता के समान ही विशुद्ध तथा गोलाकार ही होती है । इसकी अत्यन्त उज्जवल शोभा होती है । जो तलवार की धार के समान चमकती है । सर्पों के सिर से प्राप्त होने वाली इस मुक्ता को पाने वाला मनुष्य राज्यलक्ष्मी से युक्त महान ऐश्वर्य सम्पन्न । तेजस्वी तथा पुण्यवान ही होता है । जिसके कोषागार में यह सर्पमुक्ता रहती है । उसकी मृत्यु सर्प राक्षस व्याधि या अन्य अभिचार के दोष से नहीं होती । जीमूत यानी मेघ यानी बादल से उत्पन्न होने वाली मुक्ता प्रथ्वी पर आ ही नहीं पाती । देवता आकाश में ही उसको उठा लेते हैं । सूर्य के समान चमकने वाली इस मुक्ता को एकटक देखना भी संभव नहीं होता । यह अपनी दिव्य कान्ति से दसों दिशाओं को आलोकित करती है । यह मुक्ता गहन अन्धकार भरी रात में दूर तक दिन जैसा उजाला करती है । विचित्र रत्न कान्ति को प्राप्त चार समुद्रों से इस मुक्ता का जन्म हुआ है । इस मुक्ता का कोई मूल्य नहीं बताया जा सकता है । क्योंकि जिसके पास यह होती है । वह राजा ही होता है । उसके आसपास की सम्पूर्ण भूमि सोने से भर जाती है । यह तमाम शत्रुओं का नाश कर देती है । और अनर्थ तो इसके पास भी नहीं फ़टकते । बलासुर के मुख से अलग हुयी दंतपंक्ति आकाश से समुद्र के जल में गिरी । और वह सामुद्रिक मुक्ता का प्राचीन बीज बन गया । जिससे अन्य मुक्तायें पैदा हुयी । और वे बीज फ़ैलकर सीपों में स्थित होकर मोती बन गये । सिंहल । परलोक । सौराष्ट्र । ताम्रपर्ण । पारशव । कुबेर । पाण्डय । हाटक और हेमक ये मुक्ताओं के खजाने हैं । मुक्ता से सम्बन्धित गुण अवगुण की कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है । ये सर्वत्र सब प्राकार की आकृतियों में पायी जाती हैं । मुक्ता को शुद्ध करने के लिये मटके में जम्बीर रस में डालकर पकाना चाहिये । फ़िर उन्हें घिसकर चिकनाकर चमकाते हुये आकार देकर जल्दी ही उसमें छेद कर देना चाहिये । मुक्ता और चिकना और चमकना बनाने के लिये । दूध या जल या सुधारस में पकाया जाता है । इसके बाद साफ़ वस्त्र से घिस घिसकर चमकाया जाता है । यदि कोई मुक्ता नकली लग रही हो तो उसे लवण मिश्रित गर्म चिकने दृव्य में एक रात रखकर सूखे वस्त्र में वेष्टित करके यथायोग्य धान्य के साथ उसका मर्दन करें । ऐसा करने से उसकी चमक में कमीं नहीं होती । तो वो असली है । जिस मुक्ता में सभी गुणों का उदय हो गया हो । यदि ऐसी मुक्ता किसी को प्राप्त हो जाती है । तो वह प्राप्तकर्ता को किसी भी प्रकार के एक भी अनर्थ को उत्पन्न करने वाले दोष के सम्पर्क में आने नहीं देती ।

सोमवार, अगस्त 16, 2010

राम लक्ष्मण सीता का अंतिम समय ।


राम के अश्वमेघ यज्ञ में नैमिषारण्य में बहुत सुन्दर व्यवस्था की गयी । सीता की सोने की प्रतिमा बनवाई गई । लक्ष्मण को सेना और शुभ लक्षणों से सम्पन्न अश्‍व के साथ विश्‍व भ्रमण के लिये भेजा गया । इस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये महर्षि वाल्मीकि भी लव कुश के साथ आये । उन्होंने लव कुश से कहा । कि वे दोनों भाई नगर में घूमते हुये रामायण का गान करें । और कोई पूछे कि तुम किसके पुत्र हो । तो कहना हम ऋषि वाल्मीकि के शिष्य हैं । लव कुश रामायण का गान करने के लिये चल पड़े । उनके द्वारा भावपूर्ण सीता चरित्र और रामकथा सुनकर अयोध्यावासियों ने यह समाचार राम को बताया । नगरवासियों द्वारा यह बात सुनकर राम ने वाल्मीकि के पास सन्देश भिजवाया । यदि सीता का चरित्र शुद्ध है । तो वे आपकी अनुमति से यहाँ आकर सबके सामने अपनी शुद्धता प्रमाणित करें । और मेरा कलंक दूर करें । तो मुझे बेहद खुशी होगी । वाल्मीकि ने कहा । ऐसा ही होगा । सीता वही करेगीं । जो राम चाहेंगे क्योंकि स्त्री के लिये पति ही परमात्मा होता है । यह खबर मिलते ही राम ने सब ऋषि । मुनियों । नगरवासियों को उस समय उपस्थित रहने के लिये निमन्त्रित किया । दूसरे दिन सीता को देखने के लिये अनेकों ऋषि । मुनि । विद्वान । नागरिक उपस्थित हो गये । निश्‍चित समय पर वाल्मीकि सीता को लेकर आये । आगे वाल्मीकि और उनके पीछे दोनों हाथ जोड़े । आँसू बहाती हुयी सीता आ रही थीं । सीता की दीन दशा देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोगों का हृदय दुखी हो गया और वे शोकाकुल होकर आँसू बहाने लगे । वाल्मीकि बोले । श्रीराम । मैं तुम्हें विश्‍वास दिलाता हूँ कि सीता पवित्र है । कुश और लव आपके ही पुत्र हैं । मैं कभी मिथ्या नहीं कहता । यदि मेरा कथन मिथ्या हो । तो मेरी सम्पूर्ण तपस्या निष्फल हो जाय । लेकिन इसके बाद भी देवी सीता स्वयं आपको निर्दोषिता का प्रमाण देगी ।यह बात सुनकर सभा के बीच खड़ी सीता को देखकर राम बोले । हे ऋषिश्रेष्ठ । आपका कथन सत्य है । और मुझे आपकी बात पर पूरा विश्‍वास है । वास्तव में सीता ने अपनी सच्चरित्रता का विश्‍वास मुझे अग्नि के समक्ष ही दिला दिया था । परन्तु लोकापवाद के कारण ही मुझे सीता को त्यागना पड़ा । आप मुझे इस अपराध के लिये क्षमा करें । इसके बाद राम उपस्थित जनसमूह को देखते हुये बोले । हे मुनि एवं उपस्थित सज्जनों । मुझे महर्षि के कथन पर पूर्ण विश्‍वास है । परन्तु यदि सीता स्वयं सबके सामने अपनी शुद्धता का प्रमाण दें तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी । यह सुनकर सीता हाथ जोड़कर सिर झुकाये हुये ही बोलीं । मैंने अपने जीवन में यदि श्रीरघुनाथ के अतिरिक्‍त कभी किसी दूसरे पुरुष का चिन्तन न किया हो तो पृथ्वी देवी अपनी गोद में मुझे स्थान दें । सीता के इतना कहते ही पृथ्वी फटी । उसमें से एक सिंहासन निकला । उसी के साथ पृथ्वी देवी रूप में प्रकट हुईं । उन्होंने सीता को उठाकर प्रेम से सिंहासन पर बैठा लिया । देखते ही देखते सिंहासन पृथ्वी में समा गया । सब लोग भौंचक्के से यह द‍ृश्य देखते रह गये । वातावरण में सन्नाटा छा गया । इस घटना से राम को बहुत दुःख हुआ । उनकी आंखो से आंसू बहने लगे । वह बोले । मैं जानता हूँ । तुम ही सीता की सच्ची माता हो । राजा जनक ने हल जोतते हुये तुमसे ही सीता को पाया था । परन्तु तुम मेरी सीता को मुझे लौटा दो । या मुझे भी अपनी गोद में समा लो । राम को इस प्रकार विलाप करते देख सबने उन्हें सान्त्वना देकर समझाया ।
इस प्रकार सीता के धरती में समाने के बाद राम को राज्य करते हुये बहुत समय हो गया । तब एक दिन काल तपस्वी के वेश में राजद्वार पर आया । उसने कहा । मैं महर्षि अतिबल का दूत हूँ । और अति आवश्यक कार्य से राम से मिलना चाहता हूँ । राम ने उसे तुरन्त बुलाया और बैठने को आसन दिया । तब मुनि वेषधारी काल ने कहा । यह बात अत्यन्त गोपनीय है । यहाँ हम दोनों के अतिरिक्‍त कोई अन्य नहीं होना चाहिये । तब मैं आपको वह बात बता सकता हूँ कि यदि बातचीत के समय कोई व्यक्‍ति आ जाये तो आप उसका वध कर देंगे । यह सुनकर राम ने लक्ष्मण से कहा । तुम इस समय द्वारपाल को हटाकर स्वयं द्वार पर खड़े हो जाओ । ध्यान रहे । इनके जाने तक कोई यहाँ न आ पाये । इस बीच जो भी आयेगा । मेरे द्वारा मारा जायेगा । जब लक्ष्मण चले गये तो राम ने काल से सन्देश सुनाने के लिये कहा । काल बोला । मैं आपकी माया द्वारा उत्पन्न आपका पुत्र काल हूँ । ब्रह्मा जी ने कहलाया है । कि आपने जो प्रतिज्ञा की थी वह पूरी हो गई । अब आपके अपने लोक जाने का समय हो गया है । फ़िर भी आप यहाँ रहना चाहें तो ये आपकी इच्छा है । राम ने कहा । जब मेरा कार्य पूरा हो गया तो फिर मैं यहाँ क्या करूँगा ? मैं शीघ्र ही अपने लोक को लौटूँगा । जब काल इस प्रकार वार्तालाप कर रहा था । उसी समय महल के द्वार पर महर्षि दुर्वासा राम से मिलने आये । और लक्ष्मण से बोले । मुझे अभी राम से मिलना है । देर होने से मेरा काम बिगड़ जायेगा । इसलिये तुम उन्हें तुरन्त मेरे आने की सूचना दो । लक्ष्मण बोले । भैया इस समय अत्यन्त व्यस्त हैं । आप मुझे आज्ञा दें । जो भी कार्य होगा । मैं पूरा करूँगा । यदि उन्हीं से मिलना हो तो थोडी प्रतीक्षा करनी होगी । यह सुनते ही दुर्वासा को क्रोध आ गया । और वह बोले । तुम अभी राम को मेरे आने की सूचना दो । नहीं तो मैं शाप देकर समस्त रघुकुल और अयोध्या को इसी क्षण भस्म कर दूँगा । दुर्वासा की बात सुनकर लक्ष्मण ने सोचा । चाहे मेरी मृत्यु हो जाये । रघुकुल का विनाश नहीं होना चाहिये । यह सोचकर उन्होंने राम के पास जाकर दुर्वासा के आने का समाचार सुनाया । राम काल को विदा कर महर्षि दुर्वासा के पास पहुँचे । उन्हें देखकर दुर्वासा ने कहा । राम । मैंने बहुत समय तक उपवास करके आज इसी समय अपना व्रत खोलने का निश्‍चय किया है । इसलिये तुम्हारे यहाँ जो भी भोजन तैयार हो तुरन्त मँगाओ । राम ने दुर्वासा को भोजन कराकर विदा कर दिया । फिर वे काल कि दिये अपने वचन को यादकर लक्ष्मण से वियोग की आशंका से अत्यन्त दुखी हुये । राम को दुखी देखकर लक्ष्मण बोले । प्रभु । यह तो काल की गति है । आप दुखी न हों । और निश्‍चिन्त होकर मेरा वध करके अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें । लक्ष्मण की बात सुनकर राम और भी व्याकुल हो गये । उन्होंने वसिष्ठ तथा मन्त्रियों को बुलाकर उन्हें पूरा वृतान्त सुनाया । यह सुनकर वसिष्ठ बोले । राम । आप सबको शीघ्र ही यह संसार त्याग कर अपने अपने लोकों को जाना है । इसका प्रारम्भ सीता के प्रस्थान से हो चुका है । इसलिये आप लक्ष्मण का त्याग कर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करें । प्रतिज्ञा नष्ट होने से धर्म का लोप हो जाता है । साधु पुरुषों का त्याग करना । उनके वध करने के समान ही होता है। वसिष्ठ की बात मानकर राम ने दुखी मन से लक्ष्मण का त्याग कर दिया । लक्ष्मण सरयू के तट पर आये । जल का आचमन कर हाथ जोडे । प्राणवायु को रोका । और अपने प्राण विसर्जन कर दिये । तब शोकाकुल राम ने सबको बुलाकर कहा । अब मैं अयोध्या के सिंहासन पर भरत को बैठाकर स्वयं वन को जाना चाहता हूँ ।यह सुनते ही सब रोने लगे । भरत ने कहा । मैं भी अयोध्या में नहीं रहूँगा । मैं आपके साथ चलूँगा । आप मेरी बजाय कुश और लव का राज्याभिषेक कीजिये । प्रजा भी कहने लगी । हम सब भी आपके साथ ही चलेंगे । तब राम ने विचार करके उन्होंने दक्षिण कौशल का राज्य कुश को । और उत्तर कौशल का राज्य लव को सौंपकर उनका अभिषेक किया । कुश के लिये विन्ध्याचल के किनारे कुशावती । और लव के लिये श्रावस्ती नगर का निर्माण कराया । फिर उन्हें अपनी अपनी राजधानी जाने का आदेश दिया । इसके बाद एक दूत भेजकर मधुपुरी से शत्रघ्न को बुलाया । दूत ने शत्रुघ्न को लक्ष्मण के त्याग । लव कुश के अभिषेक आदि की सभी बातें बताईं । इस घोर हाहाकारी वृतान्त को सुनकर शत्रुघ्न अवाक् रह गये । उन्होंने अपने दोनों पुत्रों सुबाहु और शत्रुघाती को अपना राज्य दे दिया । उन्होंने सबाहु को मथुरा का और शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंप तुरन्त अयोध्या के लिये प्रस्थान किया । अयोध्या पहुँचकर वे बड़े भाई से बोले । मैं भी आपके साथ जाने के लिये तैयार होकर आ गया हूँ । कृपया मुझे रोकना नहीं । इसी बीच सुग्रीव भी आ गये ।
उन्होंने कहा । मैं अंगद का राज्याभिषेक करके आपके साथ ही जाने के लिये आया हूँ । सुग्रीव की बात सुनकर राम मुस्कुराये । और बोले । बहुत अच्छा । फिर विभीषण से बोले । विभीषण । मैं चाहता हूँ । तुम इस संसार में रहकर लंका में राज्य करो । यह मेरी हार्दिक इच्छा है । आशा है । तुम इसे अस्वीकार नहीं करोगे । भारी मन से विभीषण ने राम का आदेश माना । राम ने हनुमान को भी सदैव पृथ्वी पर रहने की आज्ञा दी । जाम्बवन्त । मैन्द । और द्विविद को द्वापर । तथा कलियुग की सन्धि तक । जीवित रहने का आदेश दिया । अगले दिन सुबह राम ने वसिष्ठ की आज्ञा से महाप्रस्थान हेतु सब तैयारी की । और पीताम्बर धारणकर हाथ में कुशा लेकर राम ने वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ सरयू की ओर प्रस्थान किया । वह सूर्य के समान मालूम पड़ रहे थे । उस समय उनके दक्षिण भाग में । साक्षात् लक्ष्मी । वाम भाग में भूदेवी । और उनके समक्ष संहार शक्‍ति चल रही थी । उनके साथ बड़े बड़े ऋषि मुनि और समस्त ब्राह्मण मण्डली थी । वे सब स्वर्ग का द्वार खुला देख उनके साथ दौडे जाते थे । उनके साथ राजमहल के सभी वृद्ध स्त्री पुरुष भी चल रहे थे । भरत व शत्रुघ्न भी अपने अपने रनवासों के साथ श्रीराम के संग संग चल रहे थे । सब मन्त्री तथा सेवक अपने परिवार सहित उनके पीछे थे । उन सबके पीछे मानो सारी अयोध्या ही चल रही थी । रीछ ‌और वानर भी किलकारियाँ मारते । उछलते कूदते । दौड़ते हुये चले जा रहे थे । लेकिन कोई भी दुःखी अथवा उदास नहीं था । इस प्रकार चलते हुये वे सब सरयू के पास पहुँच गये । उसी समय ब्रह्मा सब देवताओं और ऋषियों के साथ वहाँ आ पहुँचे । श्रीराम को स्वर्ग ले जाने के लिये बहुत से सुसज्जित विमान आये थे । उस समय आकाश दिव्य तेज से चमकने लगा । शीतल मंद सुगन्धित वायु बहने लगी । आकाश में गन्धर्व दुन्दुभी बजाने लगे । अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । देवता फूल बरसाने लगे । राम ने सब भाइयों और जनसमुदाय के साथ सरयू में प्रवेश किया । तब आकाश से ब्रह्माजी बोले । हे राम । आपका मंगल हो । हे विष्णुरूप रघुनन्दन । आप अपने भाइयों के साथ अपने लोक में प्रवेश करें । चाहें आप विष्णु रूप धारण करें । और चाहें सनातन आकाशमय अव्यक्‍त ब्रह्मरूप रहें । ब्रह्मा की स्तुति सुनकर राम वैष्णवी तेज में प्रविष्ट होकर विष्णुमय हो गये । सब देवता । ऋषि । मुनि । इन्द्र आदि उनकी पूजा करने लगे । यक्ष । किन्नर । अप्सराएँ आदि उनकी स्तुति करने लगे । तभी विष्णुरूप राम ब्रह्मा से बोले । हे सुव्रत । ये जितने भी जीव मेरे साथ आये हैं । ये सब मेरे भक्‍त हैं । इन सबको स्वर्ग में रहने के लिये उत्तम स्थान दीजिये । तब ब्रह्मा ने सबको ब्रह्मलोक के समीप स्थित । संतानक । नामक लोक में भेज दिया । वानर और रीछ आदि जिन देवताओं के अंश से उत्पन्न हुये थे । वे सब उनमें लीन हो गये । सुग्रीव ने सूर्यमण्डल में प्रवेश किया । उस समय जिसने भी सरयू में डुबकी लगाई । वहीं शरीर त्यागकर परमधाम चला गया ।

बुधवार, अगस्त 11, 2010

इस संसार में मरे हुये प्राणी का कौन हितैषी होता है ।

आत्मा ( शरीर ) ही पुत्र के रूप मे प्रकट होता है । वह पुत्र यमलोक में पिता का रक्षक है । घोर नरक से पिता का वही उद्धार करता है अतः उसको पुत्र कहा जाता है । अतः पुत्र को पिता के लिये आजीवन श्राद्ध करना चाहिये । तब वह प्रेत रूप हुआ पिता पुत्र द्वारा दिये गये दान से सुख प्राप्त करता है । प्रेत के निमित्त
दी जलांजलि से वह प्रसन्न होकर यमलोक जाता है । चौराहे पर रस्सी की तिगोडिया में कच्चे घडे में लटकाया दूध वायु भूत हुआ वह प्रेत मृत्यु के दिन से तीन दिन तक । आकाश में स्थित उस दूध का पान करता है । अस्थि संचय चौथे दिन करके दिन का प्रथम पहर बीत जाने पर जलांजलि दें । पूर्वाह्न मध्याह्न तथा अपराह्न तथा इनके संधिकाल में जलांजलि नहीं दी जाती । जो मनुष्य जिस स्थान । मार्ग । या घर में मृत्यु को प्राप्त करता है । उसको वहां से शमशान भूमि के अतिरिक्त कही नहीं ले जाना चाहिये । मृत प्राणी वायु रूप धारण करके इधर उधर भटकता है । और वायु रूप होने से ही ऊपर की ओर जाता है । तब वह प्राप्त हुये शरीर के द्वारा ही अपने पुन्य और पाप के फ़लों का भोग करता है । दशाह कर्म करने से मृत मनुष्य के शरीर का निर्माण होता है । नवक और षोडश श्राद्ध करने से जीव उस शरीर में प्रवेश करता है । भूमि पर तिल कुश का निक्षेप करने से वह कुटी धातुमयी हो जाती है । मरणासन्न के मुख में पंच रत्न डालने से जीव ऊपर की ओर चल देता है । यदि ऐसा नहीं होता तो जीव को शरीर प्राप्त नहीं होता । जीव जहां
कहीं पशु या स्थावर योनि में जन्मता है । श्राद्ध में दी गयी वस्तु वहीं पहुंच जाती है । जब तक मृतक के सूक्ष्म शरीर का निर्माण नहीं होता । तब तक किये गये श्राद्ध से उसकी त्रप्ति नहीं होती । भूख प्यास से व्याकुल वह वायुमण्डल में इधर उधर चक्कर काटता हुआ दशाह के श्राद्ध से त्रप्त होता है । जिस मृतक का पिन्डदान नहीं होता । वह आकाश में ही भटकता रहता है । वह क्रम से लगातार तीन दिन जल तीन दिन अग्नि तीन दिन आकाश और एक दिन पूर्व मोह ममता के कारण अपने घर में निवास करता है । इसलिये अग्नि में भस्म हो जाने पर प्रेतात्मा को जल से ही त्रप्त करना चाहिये । मृत्यु के पहले तीसरे पांचवे सातवें नवें और ग्यारहवें दिन जो श्राद्ध होता है उसे नवक श्राद्ध कहते हैं । एकादशाह के दिन के श्राद्ध को सामान्यश्राद्ध कहते हैं ।
जिस प्रकार गर्भ में स्थित जीव का पूर्ण विकास दस मास में होता है । उसी प्रकार दस दिन तक दिये गयेपिन्डदान से जीव के उस शरीर की सरंचना होती है । जिस शरीर से उसे यमलोक की यात्रा करनी होती है । पहले दिन जो पिन्डदान दिया जाता है । उससे जीव की मूर्द्धा का निर्माण होता है ।
दूसरे दिन के पिन्डदान से आंख कान और नाक की रचना होती है । तीसरे दिन गण्डस्थल मुख तथा गला । चौथ पिन्ड से ह्रदय कुक्षि प्रदेश उदर भाग । पांचवे दिन कटि प्रदेश पीठ और गुदाभाग । छठे दिन दोनों उरु । सातवें दिन गुल्फ़ । आठवें दिन जंघा । नौवें दिन पैर । तथा दसवें दिन प्रबल क्षुधा की उत्पत्ति होती है ।
मानव शरीर में जो अस्थियो का समूह है । उनकी कुल सख्या तीन सौ साठ है । जल से भरे घडे का दान करने से उन अस्थियों की पुष्टि होती है । इसलिये जल युक्त घटदान से प्रेत को बहुत प्रसन्नता होती है । जिस प्रकार सूर्य की किरणें अपने तेज से सभी तारों को ढक देती हैं । उसी प्रकार प्रेतत्व पर इन क्रियाओ का आच्छादन होने से भविष्य में प्रेतत्व नहीं मिलता । अतः सपिन्डन के बाद कहीं प्रेत शब्द का प्रयोग नहीं होता । मृतक के हेतु शय्यादान की बेहद प्रसंशा की गयी है । यह जीवन अनित्य है । उसे मृत्यु के बाद कौन प्रदान करेगा । जब तक यह जीवन है । तभी तक बन्धु बान्धव अपने हैं । और अपने पिता हैं । ऐसा कहा जाता है । मृत्यु हो जाने पर । यह मर गया है । ऐसा जान करके क्षण भर मे ही वे अपने ह्रदय से स्नेह को दूर कर देते हैं । इसलिये अपना आत्मा ही अपना सच्चा हितैषी है । ऐसा बारम्बार विचार करते हुये जीते हुये ही अपने हित के कार्य कर लेने चाहिये । अन्यथा इस संसार में मरे हुये प्राणी का कौन हितैषी होता है । अर्थात कोई नहीं होता । क्या इसमें कोई संशय है ?

जव ऐसी चिंता जीव करता है ।

इस मृत्युलोक में अपने पुण्यों के अनुसार सभी जातियों के जीव रहते हैं । जो अपना काल आ जाने पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं । मृत्यु के बाद विधाता के बनाये उस मार्ग में स्थित वे जीव अत्यन्त कठिनता से गुजरते हैं । मृत्यु के बाद का रास्ता तय करने के लिये जीवात्माओं का स्थूल शरीर तो होता नहीं है । वो यहीं उतर जाता है । बल्कि धर्म अर्थ काम और चिरकालीन मोक्ष की लालसा रखने वाला अगूंठे के बराबर दूसरा शरीर होता है । वह उसी रूप में अपने पाप पुण्य के अनुसार लोक या निवास के लिये ग्रह प्राप्त करता है । तब उस यातना शरीर में स्थित होकर यम पाश से बंधा हुआ वह जीव अपनी गलतियों पर बार बार पछताते हुये रोता है । कि मैंने मनुष्य जन्म वृथा ही गंवा दिया । अब इस यम मार्ग में मेरा साथ देने वाला कौन है ? अर्थात मेरे कर्म ही यहां साथ देते हैं । जो विषय वासना में भूलकर में कर न सका । समस्त लोकों में प्रथ्वी स्वर्ग और पाताल । ये तीन लोक सारभूत हैं । सभी दीपों में जम्बूदीप । सभी देशों में । देवदेश अर्थात भारतवर्ष और समस्त योनोयों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है । संसार के सभी वर्णों में ब्राह्मण आदि चार वर्ण और उन वर्णों में भी धर्मनिष्ठ व्यक्ति ही श्रेष्ठ है । इस लोकयात्रा के मार्ग में चलता हुआ जीवात्मा सभी प्रकार का सुख और ग्यान प्राप्त कर सकता है । गर्भ में स्थित जीव को अपने पूर्वजन्मों का ग्यान रहता है । तब वहां वह इस प्रकार का चिंतन करता है । कि जीवन के समाप्त हो जाने के बाद जब मैं मृत्यु को प्राप्त हुआ और फ़िर तमाम नरक आदि यातनाओं को भोगकर और यम मार्ग के कष्ट भोगकर । अब मैं विष्ठा में रहने वाले कीडों या कीटाणुओं की विशेष योनि में आ गया हूं । मैं सरककर चलने वाला सर्प भी बना ।
मैं मच्छर भी बना । चार पैरों वाला घोडा और वैल भी बना । मैं सुअर जैसा मल खाने वाला जीव भी बना । इस प्रकार गर्भ में जीव को उसके द्वारा पूर्व में भोगे गये जन्म एक रील की तरह दिखाई देते रहते हैं । और वह बार बार यही निश्चय करता है कि अबकी बार के मनुष्य जन्म में मैं इन चौरासी के कष्टों से अवश्य अपनी आत्मा के उद्धार का ही पूर्ण प्रयास करूंगा । किन्तु जन्म लेने पर वायु के स्पर्श और माया के आवरण से वो उसे भूल जाता है । गर्भ में जीवात्मा जिस प्रकार का चिंतन करता है । तब बाद में जन्म लेकर बालक युवा और वृद्धावस्था में वह वैसा ही आचरण करता है । परन्तु यदि गर्भ की बात संसार की माया मोह में पडकर भूल जाता है । तो पुनः मृत्यु के समय वही सब य्से एकदम याद आ जाता है । जैसे जिन्दगी को एक किताब मान लो । तो जन्म के समय । और मृत्यु के समय एक ही पन्ने होते हैं । यानी बीच के पन्ने उस वक्त खत्म से हो जाते हैं । शरीर के नष्ट होने पर जो बात ह्रदय में रह जाती है । फ़िर से गर्भ में पहुंचने पर वह निश्चित याद आती है । तब उसे धर्म और दान आदि परमार्थिक कार्यों का महत्व पता चलता है । तब वह स्वयं से ही कहता है कि मैं अपने मल मूत्र से भरे इसी शरीर की पूर्ति करने में । उसे सजाने संवारने में लगारहा ।
अतः मेरा उद्धार भला कैसे हो सकता है ? जव ऐसी चिंता जीव करता है । तब यमदूत उससे कहते हैं । हे देहधारी । जैसा तुमने किया है । अब उसी के अनुसार तुम्हें भुगतना होगा । अरे तुम्हें तो देवत्व अथवा उससे भी बडकर मुक्ति या उससे भी बडकर मुक्त कराने वाली मानव योनि की देह प्राप्त थी । किन्तु लौकिक आसक्ति में फ़ंसकर यह पूरा जीवन माया मोह में ही तुमने समाप्त कर दिया और अपने परलोक सुधार हेतु कुछ भी नहीं किया । हे मूढ बुद्धि । इसलिये जैसा तुमने किया । अब वैसा ही भोगो । तुम्हारे पिता और पितामह भी पहले ही मर गये । जिसने तुमको अपने गर्भ में रखा । वह माता भी मर गयी ।
तुम्हारे बहुत से भाई बन्धु भी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं । तुम्हारा अपना पंचतत्वों से बना शरीर भी आग में जलकर भस्म हो गया । तुम्हारे द्वारा एकत्र किया गया धन सम्पत्ति भी प्रथ्वी पर तुम्हारे पुत्रादि के पास ही रह गया । अब यहां जो कुछ तुमने धर्म का संचय किया है । जो तुमने तन मन धन आदि से जो भी परोपकार किया है । वही तुम्हारे पास शेष है । उसी का तुम उपयोग कर सकते हो । वही तुम्हें प्राप्त होगा ।
इसमें कोई संशय नहीं है । हे देही । इस प्रथ्वी पर जन्म लेने वाला । चाहे राजा हो । सन्यासी हो । ब्राह्मण हो । अथवा भिखारी हो । वह मरने के बाद फ़िर से आया हुआ दिखाई नही देता । जो भी इस प्रथ्वी पर पैदा हुआ है । उसकी मृत्यु निश्चित है । इस प्रकार यम के दूत जब उस जीव से कहते हैं । तब वह दुखी जीव आश्चर्य से इस प्रकार मनुष्य की वाणी में कहता है । दान के प्रभाव से ही व्यक्ति ( मृत्यु के बाद ) विमान पर सवार होता है । उस समय धर्म उसका पिता है । दया उसकी माता है । मधुर वचन और प्रेममयी वाणी ही उसकी पत्नी है । तीर्थ आदि का सेवन ही उसके बन्धु हैं । इस तरह मनुष्य के सतकर्म और भगवान के चरणों में अर्पित कर किये गये सभी कार्य ही जीव के लिये स्वर्ग को भी बहुत छोटा ही बना देते हैं । इसलिये जो प्राणी धर्मपूर्वक जीवन यापन करता है । वह सभी सुख सुविधाओं को प्राप्त करता है । और जो पापी है । वह तो अनेकों कष्ट और दारुण नरक को ही भोगता है । तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?

रविवार, अगस्त 08, 2010

एक प्रेत का उद्धार @ वृषोत्सर्ग संस्कार

सतयुग में वंग देश में बभ्रुवाहन नाम का राजा था । उसके शासन में कोई भी पापी नहीं था । एक बार राजा सौ घुडसवार सैनिकों के साथ शिकार खेलने गया । तब राजा को नन्दनवन के समान एक घना वन नजर आया । जो बिल्ब मंदार । खदिर । कैथ तथा बांस के वृक्षों से भरा हुआ था । जलरहित वह निर्जन वन भयंकर और बेहद लम्बे क्षेत्र में फ़ैला हुआ था । राजा वन में शिकार करने लगा । उसने एक हिरन की कमर में तीर मारा । घायल मृग बडी तेजी से दौडा । राजा ने मृग का पीछा किया । और उस के पीछे लगे हुये ही वह उस वन से दूसरे घनघोर वन में पहुंच गया । राजा बेहद थक गया था । वह प्यास के कारण किसी सरोवर को खोजने लगा । हंस और सारस पक्षी की आवाज सुनकर वह पूरचक्र नामक सरोवर पर पहुंचा । और जल आदि पीकर स्नान करके एक छायादार वृक्ष के नीचे सो गया । राजा के सोते ही वहां अनेक प्रेतों के साथ घूमते हुये प्रेतवाहन नाम का प्रेत आया । उसके शरीर में मात्र हड्डियां । चमढा और नसें ही नजर आती थी । वह भोजन की तलाश में घूम रहा था । तब अचानक राजा की नींद खुल गयी । उस अनोखे जीव को देखकर राजा ने धनुष उठा लिया । प्रेत अपने स्थान पर खडा रह गया । तब राजा ने पूछा । तुम कौन हो । कहां से आये हो । ये तुम्हारा विकृत शरीर कैसे हुआ है ।
प्रेत बोला । हे राजन । आपको देखकर मेरा प्रेतभाव स्वत समाप्त हो गया । राजा ने कहा । प्रेत ये वन अत्यन्त भयानक है । यहां पतंगे । मशक । मधुमक्खी । कबन्ध । शिरी । मत्स्य । कच्छप । गिरगिट । बिच्छू । भ्रमर । सर्प आदि अधोमुखी भयानक हवा चलती है । बिजली की आग दिखाई देती है । यहां बहुत से जीवों हाथी । शेर । टिड्डों । कीटों के शब्द तो सुनाई पड रहे हैं । पर दिखाई कोई नहीं देता । ये देखकर मुझे भय महसूस हो रहा है ।
तब प्रेत बोला । हे राजन । जिन मृतकों का अग्नि संस्कार । श्राद्ध । तर्पण । षटपिन्ड । दशगात्र । सपिन्डीकरण नहीं होता । जो लोग अकालमृत्यु । अपमृत्यु । और पापकर्मों से मरे हैं । वे सब अपने पापकर्मों से भटकते हुये प्रेतरूप मे यहां निवास करते हैं । इनको खाना पानी बडी मुश्किल से मिलता है । ये अत्यधिक कष्ट की अवस्था में पीडित रहते है । हे राजन । आप इनका और्ध्वदेहिक संस्कार करें । जिनका अपना कोई नहीं होता । उनका संस्कार राजा के द्वारा होता है । इससे राजा के बहुत से अशुभ नष्ट हो जाते हैं । हे राजन इस संसार में कौन किस का भाई है । कौन पुत्र है । कौन किसकी स्त्री है । सभी स्वार्थ के वशीभूत है । उसमें मनुष्य को विश्चास नहीं करना चाहिये । मनुष्य अपने कर्मों का भोग स्वयं करता है । धन । महल । परिवार । सब यहीं रह जाता है । भाई बन्धु भी शमशान तक ही साथ देते हैं । और शरीर को आग की भेंट कर दिया जाता है । जीव के सात सिर्फ़ उसका पाप पुण्य ही जाता है ।
प्रेत के मुंह से ऐसा सुनकर राजा को बेहद आश्चर्य हुआ । उसने कहा । हे प्रेत । मुझे तुम्हारे बारे में जानने की जिग्यासा हो रही है । सो तुम अपने बारे में कहो ।
तब प्रेत ने कहा । हे राजन । मृत्यु से पूर्व में विदिशा नामक नगर में रहता था । और वैश्य जाति में उत्पन्नहुआ था । उस जन्म में मेरा नाम सुदेव था । मैं खूब दान करता था । और देवताओं को हव्य और पितरों को कव्य नियम से देता था । जिससे वे संतुष्ट रहते थे । किन्तु मेरे कोई संतान न होने से मेरे सभी पुन्यकार्य निष्फ़ल हो गये । और मेरे मित्र । बन्धु बान्धव । द्वारा भी मेरा और्ध्वदेहिक संस्कार न होने पर मेरा प्रेतत्व स्थिर हो गया । हे राजन । एकादशा । त्रिपाक्षिक । षणमासिक । वार्षिक तथा मासिक जो श्राद्ध होते हैं । इनकी कुल संख्या सोलह है । जिस मृतक के लिये ये श्राद्ध नहीं किये जाते । उसका प्रेतत्व अन्य सैकडों श्राद्ध करने पर भी नहीं जाता । हे राजन । इस संसार में राजा को सभी वर्णों का बन्धु कहा गया है । इसलिये आप मेरा संस्कार करके मुझे इस प्रेतत्व से मुक्ति प्रदान करायें । इस हेतु मैं आपको ये मणि देता हूं । हे राजन । मेरे सपिण्डों और सगोत्रों ने मेरे लिये वृषोत्सर्ग नहीं किया । इसी से मैं प्रेतयोनि को प्राप्त होकर । भूख प्यास से बेहाल रहता हूं । इसलिये मेरा शरीर विकृत और मांसरहित हो गया है । हे राजन मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि प्रेतत्व के इस कष्ट से आप मेरा उद्धार करायें ।
राजा को जिग्यासा हुयी । उसने कहा । हे प्रेत । कोई मनुष्य किसी तरह जान सकता है । कि उसके कुल का
कोई प्रेत हो गया है । और वह इस प्रेतत्व से मुक्त कैसे हो सकता है ?
प्रेत बोला । हे राजन । लिंग और पीडा से प्रेत योनि का पता चलता है । इस प्रथ्वी पर प्रेत द्वारा उत्पन्न कुछ पीडाओं को मैं आपको बता रहा हूं । जब स्त्रियों का ऋतुकाल निष्फ़ल हो जाता है । वंश की वृद्धि नहीं होती । अल्पायु में किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है । तो उसे प्रेत पीडा मानना चाहिये । हे राजा । जब अचानक किसी की जीविका छिन जाती है । प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है । एकाएक घर में आग लग जाये । घर में नित्य कलह रहने लगे । मिथ्या आरोप लगे । राजयक्ष्मा ( t b ) जैसे रोग हों । पुराना जमा जमाया व्यापार नष्ट हो जाय । हर तरफ़ से हानि हो । अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि नष्ट हो जाय । अपनी स्त्री अनुकूल न रहे । ये सब प्रेत पीडा के लक्षण हैं । हे राजन । अच्छे भले में अजीब सी कोई बात महसूस हो । ये सबसे बडा प्रेत पीडा का लक्षण हैं । प्रेतत्व से मुक्ति हेतु मृतक का वृषोत्सर्ग कराना आवश्यक होता है । यह कार्य कार्तिक की पूर्णिमा या आश्विनमास के मध्यकाल में करते हैं । ये संस्कार रेवती नक्षत्र से युक्त पुण्य तिथि में भी कर सकते हैं । उत्तम ब्राह्मणों का निमन्त्रण करके । विधिवत अग्निस्थापना करके । वेदमन्त्रों से होम करके । बहुत से ब्राह्मणों को आप इस मणि से प्राप्त धन से भोजन कराना । इस तरह मुझे इस स्थायी प्रेतत्व से मुक्ति प्राप्त हो जायेगी ।
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राजा ने अपने नगर में पहुंचकर ऐसा ही किया । वृषोत्सर्ग संस्कार पूरा होते ही वह प्रेत तत्काल स्वर्ण के समान देह वाला हो गया । उसने राजा के सामने उपस्थित होकर उसे प्रणाम किया । और राजा की प्रशंसा करते हुये कृतग्यता व्यक्त की । इसके बाद वह अपने पुण्यकर्मों के फ़लस्वरूप तत्काल स्वर्ग चला गया ।

14 मनु और उनके मन्वन्तर

पूर्वकाल में सबसे पहले स्वायम्भुव मनु हुये । उनके आग्नीध आदि अनेक पुत्र हुये । मरीचि । अत्रि । अंगिरा । पुलत्स्य । पुलह । क्रतु । वसिष्ठ । ये इस मन्वन्तर के सप्त ऋषि हुये । इस मन्वन्तर में जय । अमित । शुक्र । याम देवताओं के बारह गण थे । जिनमें चार सोमपायी थे । इस में विश्वभुक और वामदेव इन्द्रपद से प्रसिद्ध हुये । इस समय वाष्कलि नाम का दैत्य हुआ । जो विष्णु द्वारा मारा गया ।
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दूसरे । स्वारोचिष । मनु थे । इनके चैत्रक । विनत । कर्णान्त । विधुत । रवि । बृहदगुण । और नभ नाम के पुत्र हुये । ऊर्ज । स्तम्ब । प्राण । ऋषभ । निश्चल । दत्तोलि । और अर्वरीवान ये सात उस समय के सप्त ऋषि थे । द्वादश । तृषित । पारावत । देवगण हुये । विपश्चित नाम का इन्द्र था । उस समय । पुरुकृत्सर । दैत्य हुआ । जिसे विष्णु ने हाथी का रूप धारण कर मारा ।
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तीसरे औत्तम मनु हुये । इन के अज । परशु । विनीत । सुकेत । सुमित्र । सुबल । शुचि । देव । देवावृध ।महोत्साह । अजित । नामक पुत्र हुये । इस समय के सप्त ऋषि । रथौजा । ऊर्ध्वबाहु । शरण । अनघ ।मुनि । सुतप । और शंकु थे । वशवर्ति । स्वधाम । शिव । सत्य । प्रतर्दन । ये पांच देवगण हुये । इस प्रत्येक गण में बारह देवता थे । स्वशान्ति नाम का इन्द्र हुआ । प्रलम्बासुर नाम का उस समय दैत्य हुआ । जिसेविष्णु ने । मत्स्यावतार लेकर मारा ।
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चौथे । तामस मनु । हुये । इनके जानुजंड्घ । निर्भय । नवख्याति । नय । विप्रभृत्य । विविक्षिप । दॄढेषुधि ।
प्रस्तलाक्ष । कृतबन्धु । कृत । ज्योतिर्धाम । पृथु । काव्य । चैत्र । चेताग्नि । हेमक । नाम के पुत्र हुये । इस समय । सुरागा । सुधी आदि सप्त ऋषि हुये । इस समय हरि आदि देवताओं के चार गण हुये । प्रत्येक गण मेंपच्चीस देवता थे । शिवि नाम का इन्द्र हुआ । भीमरथ नाम का दैत्य हुआ । कूर्मावतार द्वारा इसका वध हुआ ।
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पांचवें रैवत मनु थे । इनके महाप्राण साधक । वनबन्धु । निरमित्र । प्रत्यंग । परहा । शुचि । दृढवृत । केतुश्रंग ऋषि थे । वेदश्री । वेदबाहु । ऊर्ध्वबाहु । हिरण्यरोम । पर्जन्य । सत्यनेत्र । स्वधाम ये सात सप्तऋषिथे । इस समय अभूतरजस । अश्वमेधस । बैकुन्ठ । अमृत । ये चार देवगण हुये । जिनमें चौदह देव हुये । विभु नाम का इन्द्र था । शान्त नाम का दैत्य हुआ । विष्णु ने हंसरूप धारणकर उसका वध किया ।
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छठवें । चाक्षुष । मनु हुये । इनके उरू । पुरू । महाबल । शतधुम्न । तपस्वी । सत्यबाहु । कृति । अग्निष्णु ।
अतिरात्र । सुधुम्न । नर नाम के पुत्र हुये । हविष्मान । उत्तम । स्वधामा । विरज । अभिमान । सहिष्णु ।
मधुश्री । ये उस समय के सप्तऋषि थे । आर्य । प्रभूत । भाव्य । लेख । पृथुक ये पांच देवगण हुये । इनमें आठ आठ देवता थे । मनोजव नाम का इन्द्र हुआ । महाकाल दैत्य हुआ । जिसे विष्णु ने अश्वरूप धारणकर मारा ।
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सातवें वैवस्वत मनु हुये । इनके इक्ष्वाकु । नाभाग । धृष्ट । शर्याति । नरिष्यन्त । पांसु । नभ । नेदिष्ट । करूष । पृषध्न । सुधुम्न नाम के पुत्र हुये । इस समय । अत्रि । वसिष्ठ । जमदग्नि । कश्यप । गौतम । भरद्वाज । विश्वामित्र ये सप्तऋषि हुये । इनमें उनचास मरुदग्न । बारह आदित्य । ग्यारह रुद्र । आठ वसु । दो अश्विनी
कुमार । दस विश्वेदेव । दस आंगिरसदेव । नौ देवगण थे । तेजस्वी नाम का इन्द्र हुआ । हिरण्याक्ष नाम का
दैत्य हुआ । जिसे वराह अवतार ने मारा ।
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आठवें । सावर्णि मनु हुये । इनके विजय । आर्ववीर । निर्मोह । सत्यवाक । कृति । वरिष्ठ । गरिष्ठ । वाच ।
संगति नामक पुत्र थे । इस समय अश्वत्थामा । कृपाचार्य । व्यास । गालव । दीप्तिमान । ऋष्यश्रंग । परशुराम । ये सप्त ऋषि हुये । सुतपा । अमृताभ । मुख्य ये तीन देवगण हुये । विरोचन का पुत्र बलि इन्द् हुआ । विष्णु द्वारा तीन पग भूमि मांगने पर इन्द्र पद छोडकर सिद्धि प्राप्त हुआ ।
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नवें मनु । वरुण के पुत्र दक्षसावर्णि । धृतिकेतु । दीप्तिकेतु । पच्चहस्त । निरामय । पृथुश्रवा । बृहदधुम्न । ऋचीक । बृहदगुण इनके पुत्र थे । इस समय मेधातिथि । धुति । सवस । वसु । ज्योतिष्मान । हव्य । कव्य । विभु ये सप्तऋषि हुये । पर । मरीचिगर्भ । सुधर्मा । ये तीन देवता हुये । कालकाक्ष नामका राक्षस होगा ।
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दसवें मनु धर्म के पुत्र । धर्मसावर्णि होंगे । सुक्षेत्र । उत्तमौजा । भूरिश्रेण्य । शतानीक । निरमित्र । वृषसेन ।
जयद्रथ । भूरिधुम्न । सुवर्चा । शान्ति । इन्द्र इनके पुत्र होंगे । इस समय अयोमूर्ति । हविष्मान । सुकृति । अव्यय । नाभाग । अप्रतिमौजा । सौरभ ये सप्तऋषि हुये । प्राण नामक देवताओं के सौ गण विधमान होगे । इन्द्र शान्त नाम का होगा । दैत्य बलि होगा । जिसको विष्णु गदा से मारेंगे ।
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ग्यारहवें मनु रुद्र के पुत्र । रुद्रसावर्णि होंगे । इनके पुत्र सर्वत्रग । सुशर्मा । देवानीक । पुरु । गुरु । क्षेत्रवर्ण । दृढेषु । आर्द्रक । और पुत्र ( नाम ) होंगे । इस समय । हविष्मान । हविष्य । वरुण । विश्व । विस्तर । विष्णु । अग्नितेज ये सप्तऋषि हुये । विहंगम । कामगम । निर्माण । रुचि । ये चार देवगण होंगे । एक गण में तीस देवता होंगे । इन्द्र वृषभ नाम का होगा । दैत्य दशग्रीव होगा । लक्ष्मी के रूप मे विष्णु उसको मारेंगे ।
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बारहवें मनु । दक्ष के पुत्र । दक्षसावर्णि होंगे । इनके देववान । उपदेव । देवश्रेष्ठ । विदूरथ । मित्रवान । मित्रदेव । मित्रबिन्दु । वीर्यवान । मित्रवाह । प्रवाह नाम के पुत्र हुये । इस समय । तपस्वी । सुतपा । तपोमूर्ति । तपोरति । तपोधृति । धुति । तपोधन ये सप्तऋषि हुये । स्वधर्मा । सुतपस । हरित । रोहित । ये देवगण होंगे । प्रत्येक गण में दस देव होंगे । ऋतधामा नाम का इन्द्र होगा । दैत्य तारकासुर होगा । विष्णु नपुंसक रूप में उसका वध करेंगे ।
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तेरहवें मनु रौच्य होंगे । इनके चित्रसेन । विचित्र । तप । धर्मरत । धृति । सुनेत्र । क्षेत्रवृति । सुनय नाम के पुत्र हुये । इस मन्वन्तर में । धर्म । धृतिमान । अव्यय । निशारूप । निरुत्सक । निर्मोह । तत्वदर्शी ये सप्तऋषि हुये । सुरोम । सुधर्म । सुकर्म तीन देवगण होंगे । प्रत्येक में तैतीस देवता होंगे । दिवस्पति नाम के इन्द्र होंगे । त्वष्टिभ नाम का दैत्य होगा । विष्णु मयूर रूप में उसको मारेंगे ।
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चौदहवें मनु । श्री हरि के पुत्र ।भौत्य होंगे । इनके । उरू । गम्भीर । धृष्ट । तरस्वी । ग्राह । अभिमानी । प्रवीर । जिष्णु । संक्रन्दन । तेजस्वी । दुर्लभ नाम के पुत्र होंगे । इस समय । अग्नीध्र । अग्निबाहु । मागध । शुचि । अजित । मुक्त । शुक्र ये सप्तऋषि होंगे । चाक्षुषि । कर्मनिष्ठ । पवित्र । भ्राजिन । वचोवृद्ध । ये पांच देवगण होंगे । प्रत्येक गण में सात देवता होंगे । शुचि नाम के इन्द्र होंगे । महादैत्य नाम का दैत्य होगा । विष्णू उसका वध करेंगे
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