
आज से लगभग सात साल पहले की बात है । जब मैं द्वैत मार्ग ( तन्त्र मन्त्र पूजा आराधना उपासना । द्वैतमें खास बात ये होती है कि इसमें साधक और भगवान दो होते हैं । और ये सृष्टि या प्रकृति को पूरा महत्व देते हैं । पर अद्वैत
आत्म दर्शन में ऐसा नहीं होता । इसमें सही ग्यान हो जाने पर प्रकृति या सृष्टि नहीं होती । केवल
परमात्मा या पुरुष या चेतन या सार शब्द या निःअक्षर ग्यान होता है ।
स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति । इसमें अहम भाव का समूल नाश होता है । जबकि द्वैत में अहम की उत्तरोतर वृद्धि होती है । द्वैत से कभी आत्मा का वास्तविक ग्यान नहीं होता । और द्वैत ग्यान आत्मा के अविनाशी होने के रहस्य को भी बताने की क्षमता नहीं रखता । द्वैत के अच्छे साधक ऋषि मुनी देवता इन्द्र सिद्ध आदि का पद प्राप्त कर सकते हैं । या बहुत अच्छा साधक होने पर भगवान तक को जान सकते हैं या पूर्ण समर्पित साधक होने पर भगवान पद प्राप्त कर सकते हैं । फ़िर भी यह पूर्ण सत्य नहीं होता और इससे रूह के असली मुकाम यानी आत्मा की वास्तविक स्थिति मुक्त और परमानन्द अवस्था
स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति को न जाना जा सकता है । न पाया जा सकता है । द्वैत में मुक्ति होती है और अद्वैत में मुक्त होता है । और इन दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है । ) का अच्छा साधक था । और निरन्तर गुप्त रूप से साधना में सलंग्न था । ज्यों ज्यों कोई साधना ऊपर की ओर प्रगति करती है । साधना और उसका साधक अभ्यास से गुप्त और साधारण रहन सहन सांसारिक जीवन में अपना लेते हैं । लिहाजा वे बातें सार्वजनिक रूप से बताने की नहीं होती । लेकिन जिन बातों से दूसरों को सहायता मिलती है । अथवा उनका किसी भी तरह हित होता है । वे बातें अवश्य बतायी जानी चाहिये । तो द्वैत की उसी साधना के समय में एक वक्त ऐसा आया कि मुझे आगे की साधना या मार्ग बताने वाले साधुओं का अभाव हो गया और उल्टे मेरे प्रश्न सुनकर या बात सुनकर साधु आश्चर्य से मुझे इस तरह देखने लगते जैसे मैं सीधा मंगल ग्रह से आ रहा हूं ? पर मेरे ऊपर उच्चकोटि साधनाओं का भूत सवार हो गया था । तब मैंने बिना किसी मार्गदर्शन के एक अत्यन्त दुर्लभ साधना की । और इसे मेरी भूल या सौभाग्य समझिये कि इसका परिणाम और अनुभव बेहद डरावना था क्योंकि ये साधना मैं बिना किसी गुरु के मार्गदर्शन या संरक्षण के कर रहा था । और परिणाम जैसा कि अपेक्षित था । मैं मनमुखी साधना से त्रिशंकु स्थिति में पहुंच गया । जिसको एक कहावत में यों समझ सकते हैं । सांप के मुंह में छंछुदर । न उगलते बने न निगलते । पांच महीने । बेहद परेशान स्थित में मैं न जाने कितने साधु संतो के पास गया । पर कोई भी मुझे नीचे न उतार सका । सबने हाथ खडे कर दिये । उल्टे वे भौंचक्का होकर मेरी बात या अनुभव को सुनते थे । और कहते थे कि हमने अपने जीवन में ऐसा आज तक नहीं सुना । फ़िर कुछ लोगों ने हिमालय के गन्धमादन पर्वत जैसे स्थलों पर जाने की सलाह दी कि वहां कुछ महात्मा ऐसे मिल सकते हैं । जो तुम्हारी समस्या का हल बता सकें । उस समय तक मेरे पूज्य गुरुदेव ।
सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस । प्रकट रूप में नहीं थे । और साधारण सफ़ेद वस्त्रों ( अभी भी सफ़ेद वस्त्र और साधारण वेशभूषा में ही रहते हैं । ) में रहते थे । उन्हें वैरागी और उच्चकोटि के ग्याता के रूप में तो कुछ गिने चुने लोग जानते थे । पर उनके और रहस्यों को कोई नहीं जानता था । बल्कि उनके रहन सहन से अभी भी बहुत लोग नहीं जानते हैं । तो अपनी उसी परेशानी के दौरान एक दिन मेरी बातचीत मेरे एक मित्र श्री श्याम वरन शास्त्री जी से हुयी । जो यादव केसेट कंपनी के मालिक थे । श्री श्याम वरन शास्त्री भी महाराज जी को कुछ ही जानने वालों में से एक थे । उन्होंने कहा । राजीव जी ।
राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ । इस सम्बन्ध में आपको सही परामर्श " शिवानन्द जी " दे सकते हैं । क्रमशः ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें