रविवार, नवंबर 20, 2011

फिर वह सत्य कैसे जाना जा सकता है

हर व्यक्ति प्रेम चाहता है और यही गलत शुरुआत है । यह शारीरिक नहीं है । इसका नाता कहीं विश्रांति से है । पिघलने से है । पूरा मिट जाने से है । उन पलों में यह मिट जाता है । अत: निश्चित ही यह शारीरिक नहीं । तुम्हें अधिक प्रेम देना सीखना होगा । यह केवल तुम्हारी समस्या नहीं है । थोड़ी या ज़्यादा । यह समस्या सभी की है । एक बच्चा । एक छोटा बच्चा प्रेम नहीं कर सकता । कुछ कह नहीं सकता । कुछ कर नहीं सकता । कुछ दे नहीं सकता । बस ले सकता है । छोटे बच्चे का प्रेम का अनुभव केवल लेने का है । मां से । पिता से । बहनों से । भाइयों से । पड़ोसियों से । अजनबियों से । बस लेने का अनुभव । तो पहला अनुभव । जो उसके अचेतन तक पैठ जाता है । वह प्रेम लेने का है । परंतु समस्या यह है कि हर व्यक्ति बच्चा रहा है । और हर व्यक्ति के भीतर प्रेम पाने की आकांक्षा है । कोई भी किसी अलग ढंग से पैदा नहीं हुआ है । तो सभी मांग रहे हैं । हमें प्रेम दो । लेकिन देने वाला कोई भी नहीं । क्योंकि वे भी उसी तरह पैदा हुए हैं । हमें सजग व सचेत रहना चाहिए । कि हम जन्म की यह अवस्था हमारे पूरे जीवन पर आच्छादित न हो जाए । बजाये इसके कि तुम कहो कि मुझे प्रेम दो । तुम प्रेम देना शुरु कर दो । मांगने की बात ही भूल जाओ । बस प्रेम बांटो । और मैं भरोसा दिलाता हूं कि तुम्हें और अधिक प्रेम मिलेगा । परंतु तुम्हें लेने के बारे में सोचना ही नहीं है । कनखियों से भी नहीं देखना है कि तुम्हें प्रेम मिल रहा है । या नहीं । वह भी खलल होगा । तुम केवल प्रेम दो । क्योंकि प्रेम देना बहुत सुंदर बात है । और प्रेम मांगना । इतनी बढ़िया बात नहीं है । यह एक बड़ा रहस्य है ।
प्रेम देना बहुत सुंदर अनुभव है । क्योंकि देने में तुम सम्राट हो जाते हो । लेना बहुत तुच्छ अनुभव है । क्योंकि तुम भिखारी हो जाते हो । जहां तक प्रेम का प्रश्न है । भिखारी मत बनो । सम्राट रहो । क्योंकि तुम्हारे भीतर यह गुणवत्ता असीम है । तुम जितना देना चाहो । दिए चले जा सकते हो । तुम यह चिंता मत करना कि यह चुक जाएगा । कि एक दिन तुम पाओगे । कि  हे प्रभु । मेरे पास तो प्रेम देने के लिए बचा ही नहीं । प्रेम मात्रा नहीं । गुणवत्ता है । ऐसी गुणवत्ता । जो देने से बढ़ती है । और पकड़े रहने से मर जाती है । अत: इसे पूरी तरह लुटा दो । चिंता मत लो । किसे । यह कंजूस व्यक्ति सोचता है । मैं उसे प्रेम दूंगा । जिसमें अमुक गुण होंगे । तुम्हें पता ही नहीं कि तुम्हारे पास कितना प्रेम है । तुम भरे हुए बादल हो । बादल यह चिंता नहीं लेता कि कहां बरसे । चट्टान हो कि उपवन या कि सागर । कोई परवाह नहीं । यह स्वयं को हल्का करना चाहता है ।और वह निर्भारता ही विश्रांति है । तो पहला रहस्य है । इसे मांगें मत  । प्रतीक्षा मत करें कि कोई आएगा । तो हम देंगे । बस दे दें । अपना प्रेम किसी को भी दें  । किसी अजनबी को ही सही । प्रश्न यह नहीं है कि तुम कुछ बहुत कीमती दे रहे हो । कुछ भी । थोड़ी सी सहायता । और वह काफ़ी है । 24 घंटों में तुम जो भी करते हो । उसे प्रेम से करो । और तुम्हारे दिल की पीड़ा मिट जाएगी । और क्योंकि तुम इतने प्रेमपूर्ण होओगे । लोग तुम्हें प्रेम करेंगे । यह स्वाभाविक नियम है ।
तुम्हें वही मिलता है । जो तुम देते हो । वास्तव में तुम उससे अधिक पाते हो । जो तुम देते हो । देना सीखो । और तुम पाओगे कि लोग तुम्हारे प्रति कितने प्रेमपूर्ण हैं । वही लोग जिन्होंने तुम्हारे प्रति कभी ध्यान नहीं दिया । तुम्हारी समस्या यही है । कि तुम्हारा दिल प्रेम से भरा है । लेकिन तुम कंजूस रहे हो । वही प्रेम तुम्हारे दिल पर बोझ हो गया है । दिल को खुला रखने की बजाए । तुम इसे पकड़े रहे । तो कभी कभार  किसी प्रेम की घड़ी में यह पीड़ा तिरोहित होने लगती है । पर एक घड़ी क्यों । एक एक घड़ी क्यों नहीं ? यह केवल किसी जीते जागते व्यक्ति की बात ही नहीं । तुम किसी कुर्सी को भी उतने प्रेमपूर्ण ढंग से छू सकते हो । इसका संबंध तुमसे है । वस्तु से नहीं ।
तब तुम्हें गहन विश्रांति का अनुभव होगा । और तुम्हारा एक अंश मिटने लगेगा । जो बोझ है  । और तुम समग्र में पिघलने लगोगे । यह वास्तव में रोग है । सही अर्थों में दिस ईज़ बोझ । यह रोग नहीं । अत: कोई चिकित्सक तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता । यह मात्र तुम्हारे दिल के तनाव की अवस्था है । जो अधिक से अधिक बांटना चाहता है । शायद तुम्हारे पास दूसरों से अधिक प्रेम है । शायद तुम उनसे अधिक भाग्यशाली हो । और शायद तुम अपने भाग्य में स्वयं ही दुख पैदा कर रहे हो । यह प्रेम किसे दूं । इस चिंता को छोड़ो । और प्रेम बांटो । बस बांटो । और तुम अपने भीतर असीम शांति व मौन का अनुभव करोगे । यही तुम्हारा ध्यान बन जाएगा । ध्यान में उतरने की विभिन्न दिशाएं हैं । और शायद तुम्हारी दिशा यही हो ।
सभी धर्म तुमसे अपने अहंकार को छोड़ने के बाबत कहते रहे हैं । लेकिन यह एक बड़ी विचित्र बात है । वे चाहते हैं । तुम अपना अहंकार छोड़ दो । और अहंकार सिर्फ परमात्मा की छाया की है । परमात्मा पूरे विश्व का अहंकार है । अहंकार तुम्हारा व्यक्तित्व है । धर्मों के अनुसार जैसे परमात्मा इस अस्तित्व का केंद्र है । इसी भांति अहंकार  तुम्हारे व्यक्तित्व और तुम्हारे मन का भी केंद्र है । वे सभी अहंकार को छोड़ने की बात कर रहे हैं । लेकिन यह तब तक नहीं छोड़ा जा सकता है । जब तक कि परमात्मा को ही न छोड़ दिया जाए । तुम एक छाया या प्रतिबिंब को तब तक नहीं छोड़ सकते । जब तक कि उसके प्रत्यक्ष स्रोत को ही नष्ट न कर दिया जाए । इसलिए सदियों से सभी धर्म यह निरंतर कहते आ रहे हैं कि तुम्हें अपने अहंकार से मुक्त हो जाना चाहिए । लेकिन ऐसा वे गलत कारणों से कह रहे हैं । वे सभी अहंकार छोड़ने के लिए इस लिए कह रहे हैं । ताकि तुम परमात्मा को समर्पित हो सको । जिससे तुम पुरोहितों को समर्पण कर सको । जिससे तुम किसी भी तरह के व्यर्थ के अंधविश्वासों । धर्मशास्रों और किसी भी भांति की विश्वास पद्धति के प्रति समर्पित हो सको ।
लेकिन अगर यह अहंकार परमात्मा का ही एक प्रतिबिंब है । तो तुम उसे छोड़ नहीं सकते । पूरे विश्व में सर्वत्र परमात्मा एक झूठ की भांति व्याप्त है । और इसी तरह तुम्हारे मन में भी अहंकार एक झूठ की भांति विद्यमान है । तुम्हारा मन अपने कद के अनुसार एक बड़े झूठ को प्रतिबिंबित कर रहा है । धर्मों ने मनुष्यता को एक बहुत बड़ी दुविधा में डाल रखा है । वे परमात्मा की प्रशंसा और अहंकार की निंदा किए चले जाते हैं । इसलिए लोग एक खंडित स्थिति में बने रहे । उनके विचारों कार्यों और अनुभवों के बीच कोई संबंध न रहा । और वे मानसिक रूप से रुग्ण हो गए । उन्होंने अहंकार को छोड़ने का कठोर प्रयास किया । लेकिन जितना वे छोडने का प्रयास करते । उसे छोड़ना उतना ही अधिक कठिन हो गया । क्योंकि उसे छोड़ने वाला था कौन ? अहंकार स्वयं अपने को छोड़ने का प्रयास कर रहा था । जो असंभव था । इसीलिए तथाकथित धार्मिक लोगों में  जो सबसे अधिक विनम्र होते हैं । उनमें भी अहंकार बहुत सूक्ष्म हो जाता है  । लेकिन वह गिरता नहीं है । तुम संतों की आंखों में देख सकते हो । महावीर ने जो कहा है । उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है । कृष्ण ने जो कहा है । उसमें बदलने की कोई जगह नहीं है । बुद्ध ने जो कहा है । उसमें बदलने का कोई उपाय नहीं है । इसलिए कभी कभी पश्चिम के लोग चिंतित और विचार में पड़ जाते हैं कि महावीर को हुए 2500 साल हुए । क्या उनकी बात अभी भी सही है ? ठीक है उनका पूछना । क्योंकि 2500 साल में अगर दीए से हम सत्य को खोजते हों । तो 25000 बार बदलाहट हो जानी चाहिए । रोज नए तथ्य आविष्कृत होंगे । और पुराने तथ्य को हमें रूपांतरित करना पड़ेगा । लेकिन महावीर  बुद्ध या कृष्ण के सत्य रिविलेशन हैं । दीया लेकर खोजे गए नहीं । निर्विचार की कौंध । निर्विचार की बिजली की चमक में देखे गए । और जाने गए । उघाड़े गए सत्य हैं । जो सत्य महावीर ने जाना । उसमें महावीर एक एक कदम सत्य को नहीं जान रहे हैं । अन्यथा पूर्ण सत्य कभी भी नहीं जाना जा सकेगा । महावीर पूरे के पूरे सत्य को एक साथ जान रहे हैं । इस महावाक्य से मैं यह आपको कहना चाहता हूं कि इस छोटे से 2 वचनों के महावाक्य में पूरब की प्रज्ञा ने जो भी खोजा है । वह सभी का सब इकट्ठा मौजूद है । वह पूरा का पूरा मौजूद है । इसलिए भारत में हम निष्कर्ष पहले । कनक्लूजन पहले । प्रकिया बाद में । पहले घोषणा कर देते हैं । सत्य क्या है । फिर वह सत्य कैसे जाना जा सकता है । वह सत्य कैसे जाना गया है । वह सत्य कैसे समझाया जा सकता है । उसके विवेचन में पड़ते हैं । यह घोषणा है । जो घोषणा से ही पूरी बात समझ ले  शेष किताब बेमानी है । पूरे उपनिषद में अब और कोई नई बात नहीं कही जाएगी । लेकिन बहुत बहुत मार्गों से इसी बात को पुनः पुनः कहा जाएगा । जिनके पास बिजली कौंधने का कोई उपाय नहीं है । जो कि जिद पकड़कर बैठे हैं । कि दीए से ही सत्य को खोजेंगे । शेष उपनिषद उनके लिए है । अब दीए को पकड़कर  बाद की पंक्तियों में एक एक टुकड़े के सत्य की बात की जाएगी । लेकिन पूरी बात इसी सूत्र पर हो जाती है । इसलिए मैंने कहा कि यह सूत्र अनूठा है । सब इसमें पूरा कह दिया गया है । उसे हम समझ लें । क्या कह दिया गया है । कहा है कि पूर्ण से पूर्ण पैदा होता है । फिर भी पीछे सदा पूर्ण शेष रह जाता है । और अंत में  पूर्ण में पूर्ण लीन हो जाता है । फिर भी पूर्ण कुछ ज्यादा नहीं हो जाता है । उतना ही होता है । जितना था । यह बहुत ही गणित विरोधी वक्तव्य है  । बहुत एंटी मैथमेटिकल है । ओशो ।

कोई टिप्पणी नहीं:

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...