बुधवार, अगस्त 18, 2010

क्योंकि जिसके पास यह होती है । वह राजा ही होता है ।


श्रेष्ठ हाथी । जीमूत ( मेघ ) वराह । शंख । मत्स्य । सर्प । शुक्ति तथा बांस में उत्पन्न मुक्ता फ़ल ही संसार में
प्रसिद्ध हैं । किन्तु इनमें शुक्ति यानी सीप में उत्पन्न मुक्ताएं ही अधिक उपलब्ध है । इन सभी मुक्ताओं में सीप में उत्पन्न होने वाली मुक्ता को रत्न के बराबर माना गया है । यह मुक्ता सूचकादि यन्त्र से वेध्य है ।
शेष मुक्ताएं अवेध्य हैं । हाथी । वराह । शंख । मत्स्य । । तथा बांस से उत्पन्न मुक्ताओं में प्रभा नहीं होती । फ़िर भी वे मांगलिक मानी जाती है । शंख और हाथी से उत्पन्न होने वाली मुक्ता अधम होती है । शंख से उत्पन्न मुक्ता बृहल्लोल फ़ल के समान होती है । हाथी के कुम्भ्स्थल से निकलने वाली मुक्ता में प्रभा नहीं होती । वह पीले रंग की होती है । मत्स्य से उत्पन्न मुक्ता अत्यन्त सुन्दर गोलाकार छोटी और सूक्ष्म होती है । यह अथाह समुद्र की जलराशि में विचरने वाले जलचर जीवों के मुख से प्राप्त होती है । वराह के दांत से उत्पन्न मुक्ता दुर्लभ होती है । ऐसे वराह प्रथ्वी के किसी किसी हिस्से में ही होते हैं । बांस के पर्वों से उत्पन्न मुक्ता ओले के समान सुन्दर शोभायुक्त होती है । ऐसे बांस भी दिव्यजनों के उपयोग हेतु किसी किसी स्थान पर ही होते है । अर्थात सब जगह नहीं मिलते । सर्प मुक्ता । मत्स्य मुक्ता के समान ही विशुद्ध तथा गोलाकार ही होती है । इसकी अत्यन्त उज्जवल शोभा होती है । जो तलवार की धार के समान चमकती है । सर्पों के सिर से प्राप्त होने वाली इस मुक्ता को पाने वाला मनुष्य राज्यलक्ष्मी से युक्त महान ऐश्वर्य सम्पन्न । तेजस्वी तथा पुण्यवान ही होता है । जिसके कोषागार में यह सर्पमुक्ता रहती है । उसकी मृत्यु सर्प राक्षस व्याधि या अन्य अभिचार के दोष से नहीं होती । जीमूत यानी मेघ यानी बादल से उत्पन्न होने वाली मुक्ता प्रथ्वी पर आ ही नहीं पाती । देवता आकाश में ही उसको उठा लेते हैं । सूर्य के समान चमकने वाली इस मुक्ता को एकटक देखना भी संभव नहीं होता । यह अपनी दिव्य कान्ति से दसों दिशाओं को आलोकित करती है । यह मुक्ता गहन अन्धकार भरी रात में दूर तक दिन जैसा उजाला करती है । विचित्र रत्न कान्ति को प्राप्त चार समुद्रों से इस मुक्ता का जन्म हुआ है । इस मुक्ता का कोई मूल्य नहीं बताया जा सकता है । क्योंकि जिसके पास यह होती है । वह राजा ही होता है । उसके आसपास की सम्पूर्ण भूमि सोने से भर जाती है । यह तमाम शत्रुओं का नाश कर देती है । और अनर्थ तो इसके पास भी नहीं फ़टकते । बलासुर के मुख से अलग हुयी दंतपंक्ति आकाश से समुद्र के जल में गिरी । और वह सामुद्रिक मुक्ता का प्राचीन बीज बन गया । जिससे अन्य मुक्तायें पैदा हुयी । और वे बीज फ़ैलकर सीपों में स्थित होकर मोती बन गये । सिंहल । परलोक । सौराष्ट्र । ताम्रपर्ण । पारशव । कुबेर । पाण्डय । हाटक और हेमक ये मुक्ताओं के खजाने हैं । मुक्ता से सम्बन्धित गुण अवगुण की कोई व्यवस्था उपलब्ध नहीं है । ये सर्वत्र सब प्राकार की आकृतियों में पायी जाती हैं । मुक्ता को शुद्ध करने के लिये मटके में जम्बीर रस में डालकर पकाना चाहिये । फ़िर उन्हें घिसकर चिकनाकर चमकाते हुये आकार देकर जल्दी ही उसमें छेद कर देना चाहिये । मुक्ता और चिकना और चमकना बनाने के लिये । दूध या जल या सुधारस में पकाया जाता है । इसके बाद साफ़ वस्त्र से घिस घिसकर चमकाया जाता है । यदि कोई मुक्ता नकली लग रही हो तो उसे लवण मिश्रित गर्म चिकने दृव्य में एक रात रखकर सूखे वस्त्र में वेष्टित करके यथायोग्य धान्य के साथ उसका मर्दन करें । ऐसा करने से उसकी चमक में कमीं नहीं होती । तो वो असली है । जिस मुक्ता में सभी गुणों का उदय हो गया हो । यदि ऐसी मुक्ता किसी को प्राप्त हो जाती है । तो वह प्राप्तकर्ता को किसी भी प्रकार के एक भी अनर्थ को उत्पन्न करने वाले दोष के सम्पर्क में आने नहीं देती ।

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