सोमवार, अगस्त 23, 2010

महाराज जी और मैं । 3


यधपि इससे पहले मैंने कृष्णाबाई और महाराज जी को एक झलक भर एक आश्रम पर देखा था । जब मैं
होली गीतों के एक वीडियो एलबम की शूटिंग के लिये आश्रम के पास ही गया था । और गाने के कुछ दृश्योंकी शूटिंग आश्रम के अन्दर फ़ूलों की क्यारियों में हुयी थी । पर उस वक्त का माहौल कुछ और ही था । और
मैं संत मत sant mat के सफ़ेद वस्त्रधारी महात्माओं से उस वक्त अपरिचित ही था । मेरे लिये महात्मा होने का अर्थ लाल गेरुआ पीले वस्त्र ही थे । शूटिंग के बाद कृष्णाबाई ने बडे प्रेम से मुझसे चाय पीने के लिये कहा । जिसे मैंने विनम्रता से मना कर दिया । आश्रम से निकलते समय महाराज जी मुझे बाहर खडे हुये नजर आये । उन्होंने बेहद स्नेह भरी नजर से मुझे देखा । पर मैंने सफ़ेद वस्त्र होने के कारण उनसे कोई बात नहीं की । दूसरे द्वैत ग्यान का साधक अपने अन्दर विशिष्टता भाव के अहसास से दोगुने अहम का शिकार होता है । वही बात उस वक्त मुझमें भी थी । और दूसरे होली के द्विअर्थी गीतों । कामुक रसीले भाव । और भीगे वस्त्रों में युवा अभिनेत्रियों के कामुक अंग प्रदर्शन से मेरे अन्दर उस वक्त अध्यात्म का भाव एक तरह से तिरोहित ही हो गया था । अगर ऐसा नहीं होता । तो अपने जीवन के वे छह महीने मुझे बेहद परेशानी में न गुजारने पडते । महाराज जी को एक झलक देखने के बाद मैं भूल ही गया । वास्तव में मैं जानता भी नहीं था कि महाराज जी किसी प्रकार के सन्त हैं ? और जब यादव जी ने शिवानन्द जी के नाम से जिक्र किया । तब भी मुझे पता नहीं था । कि यादव जी किसका जिक्र कर रहें हैं ? कृष्णाबाई को भी व्यक्तिगत तौर पर मैं थोडा भी नहीं जानता था । और आज वे लोग मेरे सामने एक बार फ़िर मौजूद थे । जिनमें मैं सिर्फ़ श्यामबरन शास्त्री यादव जी से ही परिचित था । जिनकी पहचान मेरे मित्र के तौर पर थी ।
बाईजी काफ़ी समय पहले से घरबार त्यागकर आश्रम में रह रही थीं । और 65 वर्ष की आयु होने पर भी गजब
की ऊर्जावान थी । उनकी वाणी में मानों शहद भरा हुआ था । और चलने फ़िरने में गजब की फ़ुर्ती थी । ये लोग महाराज जी को बाबाजी के सम्बोधन से पुकारते थे । और सुरति शब्द साधना में उनके उच्चस्तर के विद्धतापूर्ण ग्यान को ही जानते थे । महाराज जी उच्चस्तर के संत हैं । ये वे लोग भी नहीं जानते थे ।
यही चिराग तले अंधेरा वाली बात होती है । और ये अंधेरा महज इसलिये था । क्योंकि वे भी संत मत sant mat की दीक्षा चन्दरपुर के संत राजानन्द उर्फ़ गडबडानन्द जी से लिये हुये थे । और महाराज जी को अपने समान या कुछ और बडकर मानते थे । वास्तव में किसी संत की वास्तविक ऊंचाई उसके प्रिय शिष्य को ही ग्यात हो सकती है । बाकी संसारी लोग इस बात का सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकते हैं । गुरु शिष्य की एक ही काया । कहन सुनन को दो बतलाया । महाराज जी उस वक्त गरमी का समय होने के कारण इनर वियर के रूप में पहनी जाने वाली सादा बनियान और सफ़ेद धोती पहने हुये थे । लेकिन उस वक्त उनके चेहरे पर गजब का तेज था । कहिये राजीव जी । मुझे यादव जी की आवाज सुनाई पडी । कैसे याद किया ? मैंने एक निगाह आसमान में उडते हुये परिंदो को देखा । आसमान में एक रहस्यमय लालिमा छायी हुयी थी । मैंने महाराज जी को देखा और बोला । करीब छह महीने पहले की बात है ?...इसके बाद
मैं अपनी उस मनमुखी साधना और उसके कष्टसाध्य अनुभवों को बताता चला गया । महाराज जी को छोडकर हरेक कोई मेरी बातों को बडे गौर से सुन रहा था । इस तरह महाराज जी के सम्पर्क में मैं पहली बार आया । लेकिन इसके बाद भी मेरे उन कष्टों का सही समाधान एक महीने बाद हुआ । इसमें भी मेरी ही गलती थी । मैं अभी भी अहम में भरा हुआ था । लेकिन एक महीने बाद ही महाराज जी को ठीक से समझते ही मेरे सभी कष्टों का अंत हो गया । और मैं असीम शान्ति का अनुभव करने लगा । इन सब बातों का विवरण आप मेरे शीघ्र प्रकाशित लेख । मायावी चक्रव्यूह के छह महीने । नामक लेख श्रंखला में पढ सकेंगे ।

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