गुरुवार, जून 24, 2010

मुक्ति और मुक्त में क्या फ़र्क है ।

वैसे मुक्ति और मुक्त दो ऐसे विषय हैं । जिन पर प्रकाश डालने के लिये एक पुस्तक भी लिख दो । तो भी उसको ठीक से समझा पाना संभव नहीं है । फ़िर भी इसको सरलता से समझने के लिये प्रथ्वी पर सागर से बेहतर दूसरा प्रतीक नहीं है । पहले तो यही समझ लें कि मुक्ति और मुक्त में जमीन आसमान जैसा फ़र्क है । मुक्ति द्वैत ग्यान में होती है और हजारों प्रकार की होती है । और इसकी अवधि निश्चित होती है । यानी कुछ युगों या कुछ कल्पों तक जीवात्मा ने कोई स्थान प्राप्त कर लिया और वो अवधि पूर्ण होते ही फ़िर चौरासी में आ गया । इसके विपरीत मुक्त स्वतन्त्र अवस्था है । इसमें स्वेच्छा होती है । लेकिन मुक्ति से पहले बन्धन को जानें कि ये जीवात्मा बन्धन में किस प्रकार आ जाता है । थोङी देर के लिये कल्पना कर लें कि सागर का समस्त पानी आत्मा
है । और प्रथ्वी के 75 % भाग में स्थिति यह जल सिर्फ़ सागर में ही है । अधिकांश लोग ये जानते ही होंगे कि हमारे आसपास ऊपर नीचे जो भी जल है । उसका एकमात्र स्रोत सागर ही है । तो हमारी कल्पना के अनुसार अभी ये जल सिर्फ़ सागर में ही है । और इसके अतिरिक्त नदी नालों बादल आदि कहीं भी पानी की एक बूँद तक नहीं है । अब इस सागर का 10 % जल " इच्छा रूपी " ताप से परिवर्तित होकर भाप बन गया । और कृमशः गगन मंडल में पहुँचकर मेघ के रूप में परिवर्तित
हो गया । तदुपरान्त फ़िर इच्छा से ही जमकर ये बरफ़ हो गया । और फ़िर इच्छा से ही इसमें अन्य आवश्यक परिवर्तन हुये और ये बादल के रूप में प्रथ्वी के विभिन्न स्थलों पर बरस गया । इस तरह नदी नालों , छोटे बङे गढ्ढों , तालावों आदि में यह 10 % संग्रहीत जल अलग अलग होकर बिखर गया । और अपने मूल सागर से बिछुङकर दयनीय स्थिति को प्राप्त हुआ । क्योंकि एक गन्दे गढ्ढे में पङा जल और सागर का ठाठे मारता जल दोनों की स्थिति में कितना फ़र्क है । अब ध्यान दें कि अति दुर्दशा को प्राप्त हुआ ये जल सागर का ही अंश है । और किसी भी अवस्था में इसको सागर नहीं कह सकते । अब ये है तो जल ही । पर बेहद गन्दी स्थिति में है । और गढ्ढे नाली जैसे निम्न स्थान के बन्धन में है । और पता नहीं कब तक रहने वाला है । यही बन्धन है । और जब तक उचित रास्ता या सतगुरु इसे सही मार्ग न दिखाये । ये शायद युगों तक अपने मूल सागर तक न पहुँच पाये । अब गढ्ढे या नाली के बाद ये फ़िर सूर्य के ताप से ऊपर उठता है । और भाग्य के अधीन होकर किसी खेत में । किसी दूर देश में । किसी झील में । यानी कहीं भी स्थिति के अनुसार बरस सकता है । इस तरह बार बार मरता जन्मता ये अनन्त युगों तक एक स्थान से दूसरे स्थान पर आता जाता रहता है । और कभी अच्छी और कभी बुरी स्थिति को प्राप्त होता है । यही बन्धन है । और संसार में जीव भी अपनी वासनाओं के ताप से इधर उधर भटकता रहता है । दोनों के उठने गिरने की अवस्था अपनी स्थिति पर निर्भर करती है । अब संसार में प्रचलित " मुक्ति क्या है ? उसको जानिये । वास्तव में सागर से बहुत पहले बिछुङा ये जल बार बार दुर्दशा को प्राप्त होकर भूल गया । कि मै भी कभी अच्छे अच्छों के दिलों को दहला देने वाला उन्मुक्त ठाठे मारता सागर था । अब मान लो कि ये जल किसी गन्दे गढ्ढे में पङा हुआ है । तो ये किसी बङे तालाब या नदी नहर आदि को देखकर इच्छा करने लगता है । कि मैं भी किसी उपाय से वह सुन्दर स्थान स्थिति को प्राप्त कर लूँ । है न मजे की बात । अपनी अपार ताकत और विशालता को भूलकर दुर्दशा से विचलित और भ्रमित हुआ अब वह बेहद छोटी और अस्थायी प्राप्ति हेतु प्रयत्न करता है । ऐसे ही जीव अपने परमपिता परमात्मा को भूलकर इस मृत्युलोक से स्वर्ग आदि छोटे और अल्पकालिक फ़ल की प्राप्ति हेतु तमाम तरह के जतन करता है । और अपनी लगन और मेहनत से कुछ लोग प्राप्त भी कर लेते हैं । इसी को " मुक्ति " कहा गया है । ध्यान रखना । स्वर्ग मिल जाना । या देवता बन जाना । एक
सीमित अवधि के लिये होता है । पुण्य क्षीण होते ही आत्मा को नियमानुसार फ़िर लख चौरासी में डाल दिया जाता है । इस प्रकार अलग अलग देवता । अलग अलग स्थान । अलग अलग स्थिति के अनुसार यह " मुक्ति " लाखों प्रकार की है । विष्णु का उपासक विष्णु के लोक में अपनी भक्ति के अनुसार गण या द्वारपाल की नौकरी करेगा । और प्रथ्वी की तुलना में लाख वरस शाही सुख भोगेगा । शंकर का उपासक शंकर के लोक । राम का राम के लोक । कृष्ण का कृष्ण के लोक । इस प्रकार ये लख चौरासी की जेल से कुछ लाख सालों के लिये मुक्ति हो गयी ।
अब " मुक्ति और मुक्त " में कितना बङा फ़र्क है । यह जानिये । क्योंकि यहाँ मैंने जल की तुलना जीव से की है । इसी जल को कोई इस प्रकार का मार्गदर्शी मिल जाता है । जो ये बता देता है । कि तुम उस स्थिति में तपो । जो किसी बङी नहर या नदी में बरसकर मिल जाओ । और वापसी की यात्रा करते हुये उसी विशाल सागर से जा मिलो । इसको " मुक्त " कहते हैं । यह अमरता एक बार मिल जाने पर सदा के लिये हो जाती है । और किसी पहुँचे हुये संत या सच्चे सदगुरु द्वारा ही प्राप्त हो सकती है । यहाँ बहुत लोग तर्क कर सकते हैं । कि दुबारा सागर में जा मिला जल । फ़िर से ताप द्वारा उठकर । फ़िर से अधोगति को प्राप्त हो सकता है । यह सत्य है । परन्तु सागर के जल के साथ तो ऐसा हो सकता है । लेकिन आत्मा के साथ ऐसा नहीं होता । जल जङ तत्व है । आत्मा चेतन है । इसे हमेशा अपनी स्थिति का बोध होता है । अतः एक बार उस दुर्दशा से निकलने के बाद ये कभी उधर रुख नहीं करती । और हमेशा के लिये सत्यलोक में " हंस " आदि गति को प्राप्त होकर असीम और अविनाशी सुख को प्राप्त हो जाती है । न सूरज है । न चन्दा है । फ़िर भी हर समय उजाला है । ऐसा वो मेरा लोक निराला है ?
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