रविवार, जून 27, 2010

अनहद शब्द ।अजपा जाप ।पाँच कोष ।

मानव शरीर में पाँच कोष हैं । जीवात्मा इन्हीं पाँच कोषों में स्थित है । पहला आनन्दमय कोष है । जिसको कारण शरीर भी कहते हैं । दूसरा विग्यानमय कोष है । इसमें पाँच ग्यानेन्द्रियां , अंतकरण की वृति और बुद्धि है । तीसरा मनोमय कोष है । इसमें पाँच ग्यानेन्द्रियां और मन के संकल्प हैं । चौथा प्राणमय कोष है । इसमें पाँच कर्मेंद्रियां और पाँच प्राण हैं । पाँचवा अन्नमय कोष है । इसे स्थूल शरीर भी कहते हैं । कोष का अर्थ म्यान होना है । जिसका आशय ये जीवात्मा के शरीर को ढकने वाले हैं । जो धुनात्मक अथवा अनहद शब्द के मार्ग को जानता है । जिसने द्रष्टि साधना या त्राटक आदि साधना की है । जिसने दोनों तिलों को खींचकर अभ्यास की सहायता से एक किया हुआ हो । ( एक बिन्दु
विशेष पर देर तक ध्यान से देखने पर यह अभ्यास सिद्ध होता है । त्राटक में किसी लौ आदि विभिन्न माध्यम से इसको सिद्ध किया जाता है । जिसने आकाशवाणी ( शब्द आसमानी जो दीक्षा और अभ्यास के बाद प्रकट होता है । ) सुनकर सुरति को ऊपर चङाया हुआ हो । और जो अजपा जाप जानता हो । ऐसे पूर्ण सदगुरु मिल जाने पर उसकी सेवा तन मन धन से करें । यही सतगुरु की पहचान है । यही सतगुरु की खोज
है । अब " अजपा जाप " क्या होता है । आईये इसके बारे में भी जाना जाय । मुख बन्द करके जाप करने से तात्पर्य अजपा जाप से है । मुख बन्द करके सांसो के द्वारा " ॐ , सोहंग , प्रणव आदि और दूसरे महामन्त्रों का जाप किया जाता है । इस जाप की विभिन्न विधियां है । प्राणायाम में भी रेचक , पूरक , कुम्भक के साथ " ॐ " का उच्चारण करते हैं । दूसरा तरीका यह है कि मुख बन्द करके नाक द्वारा स्वांस लिया जाता है । और स्वांस के आने जाने पर ध्यान रखा जाता है । दृष्टि को नाक की नोक पर जमाते हैं । और दिल में ध्यान करते हैं । निरंतर अभ्यास के द्वारा दृष्टि ऊपर की ओर चढती जाती है । और विचारधारा रुक जाती है । जब दृष्टि ऊपर चङने लगे । तो नाक की नोक की जङ अर्थात त्रिकुटि स्थान जो दोनों भवों के बीच में है । वहाँ दृष्टि को ठहराते है । इस स्थान से नाक से आने जाने वाले स्वांस पर ध्यान रखते हैं ।
इससे स्वांसो की गति में एक प्रकार की स्थिरता आ जाती है । इस विधि को " सहज समाधि " सुन्न ध्यान "
सुरति साधना और त्रिकुटी ध्यान भी कहते हैं । इसका अगला चरण " अनहद शब्द " के तौर पर है । अजपा जाप जपने से घट में " शब्द " प्रकट होता है ।
सबसे पहले यह शब्द दिल में सुनाई देता है । तत्पश्चात निरंतर अभ्यास करने से " दाहिनी आँख " के ऊपर भवों के पास सुनाई देता है । सर्वप्रथम यह शब्द स्पष्ट सुनाई नहीं देता । कुछ मिली जुली आवाजें सुनाई देती हैं । जिन्हें सुनकर अभ्यासी मस्त और बेखुद होकर समाधि अवस्था में चला जाता है । इस अभ्यास के साथ अधिकतर महात्मा " खेचरी मुद्रा " भी बता देते हैं । जिससे " अमी रस " मष्तिष्क से चूकर हलक में गिरता है । इसमें ऐसा आनन्द आता है । जिसका वर्णन नहीं हो सकता । अभ्यास की इस क्रिया और युक्ति को सुरति शब्द मेल कहते हैं ।
दूसरे तरीके में कानों को बन्द करके " अनहद शब्द " सुना जाता है । यह शब्द हर इंसान के घट (शरीर ) में हर समय होता रहता है । इस अनहद शब्द को " शब्द ब्रह्म " भी कहते हैं ।
ये अनहद शब्द दो प्रकार का है । 1- वर्णात्मक शब्द 2- धुनात्मक शब्द । आन्तरिक स्थानों से ये दस आवाजें अनहद शब्द में सुनाई देती हैं । जिसकी महिमा स्वयं शिवजी ने पार्वती जी से कही थी ।

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