
प्रेत बोला । हे राजन । आपको देखकर मेरा प्रेतभाव स्वत समाप्त हो गया । राजा ने कहा । प्रेत ये वन अत्यन्त भयानक है । यहां पतंगे । मशक । मधुमक्खी । कबन्ध । शिरी । मत्स्य । कच्छप । गिरगिट । बिच्छू । भ्रमर । सर्प आदि अधोमुखी भयानक हवा चलती है । बिजली की आग दिखाई देती है । यहां बहुत से जीवों हाथी । शेर । टिड्डों । कीटों के शब्द तो सुनाई पड रहे हैं । पर दिखाई कोई नहीं देता । ये देखकर मुझे भय महसूस हो रहा है ।
तब प्रेत बोला । हे राजन । जिन मृतकों का अग्नि संस्कार । श्राद्ध । तर्पण । षटपिन्ड । दशगात्र । सपिन्डीकरण नहीं होता । जो लोग अकालमृत्यु । अपमृत्यु । और पापकर्मों से मरे हैं । वे सब अपने पापकर्मों से भटकते हुये प्रेतरूप मे यहां निवास करते हैं । इनको खाना पानी बडी मुश्किल से मिलता है । ये अत्यधिक कष्ट की अवस्था में पीडित रहते है । हे राजन । आप इनका और्ध्वदेहिक संस्कार करें । जिनका अपना कोई नहीं होता । उनका संस्कार राजा के द्वारा होता है । इससे राजा के बहुत से अशुभ नष्ट हो जाते हैं । हे राजन इस संसार में कौन किस का भाई है । कौन पुत्र है । कौन किसकी स्त्री है । सभी स्वार्थ के वशीभूत है । उसमें मनुष्य को विश्चास नहीं करना चाहिये । मनुष्य अपने कर्मों का भोग स्वयं करता है । धन । महल । परिवार । सब यहीं रह जाता है । भाई बन्धु भी शमशान तक ही साथ देते हैं । और शरीर को आग की भेंट कर दिया जाता है । जीव के सात सिर्फ़ उसका पाप पुण्य ही जाता है ।
प्रेत के मुंह से ऐसा सुनकर राजा को बेहद आश्चर्य हुआ । उसने कहा । हे प्रेत । मुझे तुम्हारे बारे में जानने की जिग्यासा हो रही है । सो तुम अपने बारे में कहो ।
तब प्रेत ने कहा । हे राजन । मृत्यु से पूर्व में विदिशा नामक नगर में रहता था । और वैश्य जाति में उत्पन्नहुआ था । उस जन्म में मेरा नाम सुदेव था । मैं खूब दान करता था । और देवताओं को हव्य और पितरों को कव्य नियम से देता था । जिससे वे संतुष्ट रहते थे । किन्तु मेरे कोई संतान न होने से मेरे सभी पुन्यकार्य निष्फ़ल हो गये । और मेरे मित्र । बन्धु बान्धव । द्वारा भी मेरा और्ध्वदेहिक संस्कार न होने पर मेरा प्रेतत्व स्थिर हो गया । हे राजन । एकादशा । त्रिपाक्षिक । षणमासिक । वार्षिक तथा मासिक जो श्राद्ध होते हैं । इनकी कुल संख्या सोलह है । जिस मृतक के लिये ये श्राद्ध नहीं किये जाते । उसका प्रेतत्व अन्य सैकडों श्राद्ध करने पर भी नहीं जाता । हे राजन । इस संसार में राजा को सभी वर्णों का बन्धु कहा गया है । इसलिये आप मेरा संस्कार करके मुझे इस प्रेतत्व से मुक्ति प्रदान करायें । इस हेतु मैं आपको ये मणि देता हूं । हे राजन । मेरे सपिण्डों और सगोत्रों ने मेरे लिये वृषोत्सर्ग नहीं किया । इसी से मैं प्रेतयोनि को प्राप्त होकर । भूख प्यास से बेहाल रहता हूं । इसलिये मेरा शरीर विकृत और मांसरहित हो गया है । हे राजन मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि प्रेतत्व के इस कष्ट से आप मेरा उद्धार करायें ।
राजा को जिग्यासा हुयी । उसने कहा । हे प्रेत । कोई मनुष्य किसी तरह जान सकता है । कि उसके कुल का
कोई प्रेत हो गया है । और वह इस प्रेतत्व से मुक्त कैसे हो सकता है ?
प्रेत बोला । हे राजन । लिंग और पीडा से प्रेत योनि का पता चलता है । इस प्रथ्वी पर प्रेत द्वारा उत्पन्न कुछ पीडाओं को मैं आपको बता रहा हूं । जब स्त्रियों का ऋतुकाल निष्फ़ल हो जाता है । वंश की वृद्धि नहीं होती । अल्पायु में किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है । तो उसे प्रेत पीडा मानना चाहिये । हे राजा । जब अचानक किसी की जीविका छिन जाती है । प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है । एकाएक घर में आग लग जाये । घर में नित्य कलह रहने लगे । मिथ्या आरोप लगे । राजयक्ष्मा ( t b ) जैसे रोग हों । पुराना जमा जमाया व्यापार नष्ट हो जाय । हर तरफ़ से हानि हो । अच्छी वर्षा होने पर भी कृषि नष्ट हो जाय । अपनी स्त्री अनुकूल न रहे । ये सब प्रेत पीडा के लक्षण हैं । हे राजन । अच्छे भले में अजीब सी कोई बात महसूस हो । ये सबसे बडा प्रेत पीडा का लक्षण हैं । प्रेतत्व से मुक्ति हेतु मृतक का वृषोत्सर्ग कराना आवश्यक होता है । यह कार्य कार्तिक की पूर्णिमा या आश्विनमास के मध्यकाल में करते हैं । ये संस्कार रेवती नक्षत्र से युक्त पुण्य तिथि में भी कर सकते हैं । उत्तम ब्राह्मणों का निमन्त्रण करके । विधिवत अग्निस्थापना करके । वेदमन्त्रों से होम करके । बहुत से ब्राह्मणों को आप इस मणि से प्राप्त धन से भोजन कराना । इस तरह मुझे इस स्थायी प्रेतत्व से मुक्ति प्राप्त हो जायेगी ।
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राजा ने अपने नगर में पहुंचकर ऐसा ही किया । वृषोत्सर्ग संस्कार पूरा होते ही वह प्रेत तत्काल स्वर्ण के समान देह वाला हो गया । उसने राजा के सामने उपस्थित होकर उसे प्रणाम किया । और राजा की प्रशंसा करते हुये कृतग्यता व्यक्त की । इसके बाद वह अपने पुण्यकर्मों के फ़लस्वरूप तत्काल स्वर्ग चला गया ।
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