रविवार, जुलाई 11, 2010

यहीं का यहीं ..है भाई ।

इस घटना का जिक्र स्वयं श्री महाराज जी ने एक प्रवचन के दौरान किया था । ये घटना उनके सामने ही हुयी थी । महाराज जी वैसे भी अक्सर यह बात कहते हैं । कि जिन घटनाओं या ऐतिहासिक प्रसंगो से वे स्व अनुभव के तौर पर सच्चाई से परिचित होते हैं । उन्हीं का उल्लेख करते हैं । महाराज जी का
कहना है । कि तमाम इतिहास और धार्मिक साहित्य अनजाने में ही झूठ का पुलंदा बन चुका है । ये घटना इटावा साइड के एक गाँव के दबंग परिवार की है । यह परिवार पहले ही काफ़ी समृद्ध था । पर कहते हैं ना । पैसे वाले को पैसे की भूख ज्यादा होती है । इसी गाँव से लगी हुयी एक बेनामी जमीन थी । जिस पर गाँव के लोग किसी तरह कब्जा करना चाहते थे । क्योंकि जमीन मौके की थी और कीमती भी थी । पर अङचन ये थी । कि ये जमीन पशुओं की विश्राम स्थली थी । और पालतू और गैर पालतू 60-70 गायें इस जमीन पर अक्सर डेरा डाले रहते थीं । गाँव के कुछ लोगों ने उस जमीन को बाङ लगाकर अहाता का रूप दे दिया था । जिससे सर्दी आदि से पशुओं की रक्षा होती थी । इसलिये जो भी इस
जमीन पर कब्जे की सोचता । पूरा गाँव एक होकर इसका विरोध करता । और बद नीयती करने वाले को शान्त रह जाना पङता । इसलिये वे मूक और सीधे सरल पशु उस जमीन को कब्जाने में एक बङा रोङा साबित हो रहे थे । तब गाँव के इस दबंग परिवार ने एक युक्ति सोची । और सभी पशुओं को बाङे में अच्छी तरह बन्द करके रात के समय आग लगा दी । जिससे सभी गाय जलकर मर गयी । और थोङे विरोध के बाद जमीन कब्जाकर आलीशान हवेली बनबा दी । सबने कहा । कि इसका दन्ड अब ईश्वर हीदेगा ।
लेकिन हैरत की बात । परिवार दिन दूना रात चौगुना । समृद्धि की राह पर बढ रहा था ? परिवार के ज्यादातर सदस्य सरकारी नौकरी करते थे और आमतौर पर एक साथ इकठ्ठा नहीं हो पाते थे ? लोग कहने लगे कि कलियुग में ईश्वर भी अन्यायी हो गया है । पर उसके न्याय करने का तरीका एकदम ही अलग है ?
आखिरकार वो घङी आ ही गयी । जिसका प्रकृति को या दन्ड देने वाली शक्तियों को बेसब्री से इंतजार था । होली दीवाली जैसे किसी बङे पर्व पर पूरा परिवार सजा धजा हवेली के हाल में खाने के लिये इकठ्ठा हो गया । एक दो साल के बच्चे से लेकर सबसे बङे बुर्जुग भी हाल में उस समय मौजूद थे कि उसी समय बेहद मजबूत दोमंजिला हवेली किसी चमत्कार की तरह भरभराकर ढह गयी । और पाँच मिनट के अन्दर ही पूरे परिवार का जङ से सफ़ाया हो गया । तब लोगों को ईश्वर के इस न्याय का तरीका पता चला ।
ये घटना भी मुझे स्वयं मुख्य किरदार की साठ वर्षीय पत्नी ने सुनाई । ये एक सक्सेना परिवार था । जो एटा का रहने वाला था । उसके पति सिंचाई विभाग में थे । और माँसाहार के बेहद शौकीन थे । यह हँसता खेलता मध्यम वर्गीय बङा परिवार था । तो सक्सेना साहब एक बार जब ड्यूटी पर थे । सोनापतारी ( बगुला जैसी एक चिङिया होती है । जिसमें काफ़ी मात्रा में माँस निकलता है । और इसको खाने वाले बताते हैं यह काफ़ी स्वादिष्ट होता है । यह चिङिया आसमान में क्वाक क्वाक की तेज आवाज निकालती हुयी झुन्ड की झुन्ड निकलती है ) चिङिया का एक झुन्ड उनके सामने फ़ील्ड में उतर गया ।
वाल्मीक रिषी जैसा किस्सा हो गया । एक सोना पतारी का युगल जोङा तालाब के पास एक दूसरे के सामने भाव पूर्ण मुद्रा में बैठा था । कि माँस के शौकीन सक्सेना साहब ने उनकी बेख्याली का पूरा फ़ायदा उठाते हुये एक बङा तेज चाकू नर पक्षी की " दांई टांग " पर मारा । पक्षी की टांग तुरन्त कट गयी । और वह वहीं गिरकर तङपने लगा । एक पल को तो सक्सेना बहुत हर्षित हो गये लेकिन दूसरे ही पल आश्चर्यचकित और भौंचक्के रह गये । मादा पक्षी इस यकायक आक्रमण से घबरा तो गयी । पर न उङी ।
और न ही वहाँ से हिली । यह सक्सेना साहब के लिये आश्चर्य की बात थी । उनके जीवन में आज दिन तक ऐसा नहीं हुआ था । उन्होंने देखा कि अविचल खङी मादा पक्षी की आँखों से आँसू बह रहे हैं । अब सक्सेना को धार्मिक स्तर पर अपराध बोध हुआ । पर अब क्या हो सकता था । घटना तो घट चुकी थी । कुछ ही देर में सक्सेना को दूसरा झटका लगा । जब नर पक्षी की हालत से दुखी मादा ने अचानक गिरकर प्राण त्याग दिये । नर अभी भी बुरी तरह से पीङा से तङप रहा था । और सक्सेना का दिल हाहाकार कर रहा था । सक्सेना दिल ही दिल में यह चाह रहे थे कि किसी तरह बीस मिनट का समय फ़िर से घूमकर वापस आ जाय । तो वो इस पक्षी की हत्या से बच जाँय । पर ऐसा कहीं होता है ? यह पाप उनकी जीवन किताब में पूरी मजबूती से लिख गया । आखिरकार कुछ देर तङपने के बाद नर ने भी प्राण त्याग दिये । जाहिर था कि सक्सेना इस घटना के बाद उसे कैसे खा सकते थे ? उन्होंने अति अपराध बोध के साथ रोते हुये दोनों पक्षियों को गढ्ढा खोदकर दबा दिया । और घर आकर यह घटना सबको बतायी ।
तीन साल बाद । after three year .
सक्सेना साहब को गले में केंसर हो गया । उनकी पत्नी को " दाँई टांग " में लकवा मार गया । इलाज में काफ़ी पैसा खर्च हो गया ।कुछ समय बाद । सक्सेना अस्पताल में भर्ती थे । और पता नहीं उन्हें क्या बोध हो रहा थे । कि वे रोने लगते थे । बोल तो पाते ही नही थे । लगभग दस बजे सुबह उनकी पत्नी अस्पताल से उन्हे देखकर घर खाना आदि के लिये जाने लगी ।( उनकी पत्नी लकङी और किसी के सहारे से एक पैर से चल लेती थीं ) उनकी पत्नी दरबाजे की ओर मुङी । सक्सेना की तरफ़ उनकी पीठ थी । सक्सेना ने हाथ उठाकर उन्हें बुलाना चाहा । इसी वक्त उनके प्राण निकल गये । नर्स ने आवाज देकर उन्हें रोका । और बताया । कि वे कुछ कहना चाहते हैं ( थे ) । सक्सेना की पत्नी ने उन्हें झकझकोरा । मगर सक्सेना का प्राण पंक्षी अब अंतिम यात्रा हेतु उङ चुका था ।
मुझे कुछ नहीं बताना पङा । सक्सेना की पत्नी खुद ही जाने किस प्रेरणा से बताती थी । मुँह के स्वाद के लिये हत्या की । थोङे ही दिन बाद केंसर की बजह से रोटी खाने से भी मोहताज हो गये । और अंतिम समय तक रोटी नहीं मिली । उस जोङे की एक टांग काटी । भगवान ने तेरे जोङे की एक टांग काट दी । जैसे अंत समय में वह जोङा वियोग पीङा में मरा । सक्सेना भी अपनी पत्नी से मन की बात नहीं कह सके ?

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