सोमवार, अगस्त 23, 2010

महाराज जी और मैं । 2


तब मुझे आशा की थोडी किरण नजर आयी । लेकिन संयोगवश यह बात भी आयी गयी हो गयी । और मैंफ़िर से और साधु संतो के चक्कर में उलझ गया । इसके करीब पन्द्रह दिन बाद की बात है । मेरी परेशानी कुछ अधिक ही बड गयी थी । तभी किसी प्रसंगवश मुझे यादव जी का ध्यान आया । और साथ ही उनकी बतायी हुयी बात याद आयी । मैंने यादव जी को फ़ोन किया तो वह उस समय किसी कार्यवश कचहरी में थे । और शाम को ही मिल सकते थे । मैंने कहा । आप किन्ही संत शिवानन्द जी के बारे में जो बात कर रहे थे । उस सम्बन्ध में कुछ काम था । यादव जी मेरी बात की गम्भीरता को शायद उस वक्त ठीक से समझ
नहीं पा रहे थे । लेकिन उन्होंने कहा कि शाम को वह महाराज जी के साथ मेरे घर आने की पूरी कोशिश करेंगे । उस वक्त दिन के ग्यारह बजे थे । और शाम होने में बहुत समय था । पर मेरे सामने बेहद मजबूरी थी । इसलिये मैं उस वक्त सिर्फ़ शाम होने का इंतजार ही कर सकता था । और ये बात भी कोई निश्चित नहीं थी कि शाम को यादव जी को कोई अन्य कार्य लग सकता था । और वे न आ पाते । जबकि मेरे लिये पल पल भारी था । खैर मैं बैचेनी से अपने घर के पिछवाडे बने बगीचे में चला गया । जहां नीम के पेड पर अनेकों चिडिंया चहचहाती हुयी एक डाली से दूसरी डाली पर जा रही थी । मेरे मन में विचार आया । परमात्मा की यह समूची सृष्टि कितनी रहस्यमय है ? चारों तरफ़ चेतन ही विभिन्न रूपों में खेल रहा है । माया के परदे में बनी यह सृष्टि मात्र एक भृम के सिवा कुछ नहीं है । सिर्फ़ जगत व्यवहार और जीवों के जिम्मेदार बरताव के लिये इसमें असली होने का अहसास मात्र लगता है । वास्तव में तो यह एक भ्रान्ति ही है । सिनेमा के परदे पर भी तो हमें जीवन असली ही नजर आता है । पर ये बात अलग है । कि सिनेमा का तकनीकी पहलू हम जानते हैं । लेकिन सृष्टि का तकनीकी पहलू अच्छे अच्छे नहीं जानते । वास्तव में उस वक्त मुझे सब सिनेमा ही नजर आ रहा था । एक बहुत बडे परदे का सिनेमा ? एक सिनेमा जो साधारण जीव और इंसान शरीर की आंखो देखते हैं । और इसके पिछले हिस्से का असली सिनेमा जो संत और योगी अन्तर की आंखो से देखते है । अभी दोपहर के दो बजे का समय था । यानी यादव जी के आने में तीन चार घन्टे का समय था । मैं बगीचे में लेट गया । उस खास अवस्था में मैं क्योंकि माया के दूसरे परदे के बारे में सोच रहा था । अतः लेटते ही मैं अंतरिक्ष में नीले पीले गुलाबी घने बादलों को पार करता हुआ सुदूर लोक में पहुंच गया । दिव्य साधना DIVY SADHNA के योगी जानते हैं । वायुमंडल की एक निश्चित सीमा पार कर लेने के बाद हमें गुरुत्वाकर्षण रहित ऐसा बहुत सा क्षेत्र मिलता है । जिसमे आधार भूमि की
आवश्यकता नहीं होती । यानी वहां बिना किसी आधार के आराम से खडे रह सकते है । वहां स्थूल शरीर का भार खत्म हो जाता है । प्रथ्वी के वातावरण से उपजी गरमी सरदी भी वहां नहीं होती । एक सुखद शान्त शीतल वायु और बेहद शान्ति अंतरिक्ष की खास खूबी है । जो मुझे बेहद आकर्षित करती है । इसका जीता जागता उदाहरण चील बाज गिद्ध आदि श्रेणी के वे पक्षी है । जो काफ़ी ऊंचाई पर पहुंचकर बिना किसी मेहनत और बिना किसी प्रयास के आराम से उडने के बजाय तैरते से रहते हैं । हालांकि जीव श्रेणी में आने वाले ये पक्षी उस आसमान पर नहीं जा सकते । जिसकी में बात कर रहा हूं । बल्कि ये प्रथ्वी के वायुमंडल और पहले आसमान के नाके के मध्य तक ही पहुंच पाते है । ठीक दो घन्टे के बाद मेरे शरीर में हरकत हुयी । मैंने घडी पर निगाह डाली । चार बज चुके थे । पांच बजे के लगभग जब मैं चाय पीकर फ़ारिग ही हुआ था कि यादव जी महाराज जी और मथुरा जिले की कृष्णाबाई के साथ मेरे घर आ गये । यह महाराज जी से मेरा प्रथम परिचय था । क्रमशः ।

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