बुधवार, अगस्त 11, 2010

जव ऐसी चिंता जीव करता है ।

इस मृत्युलोक में अपने पुण्यों के अनुसार सभी जातियों के जीव रहते हैं । जो अपना काल आ जाने पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं । मृत्यु के बाद विधाता के बनाये उस मार्ग में स्थित वे जीव अत्यन्त कठिनता से गुजरते हैं । मृत्यु के बाद का रास्ता तय करने के लिये जीवात्माओं का स्थूल शरीर तो होता नहीं है । वो यहीं उतर जाता है । बल्कि धर्म अर्थ काम और चिरकालीन मोक्ष की लालसा रखने वाला अगूंठे के बराबर दूसरा शरीर होता है । वह उसी रूप में अपने पाप पुण्य के अनुसार लोक या निवास के लिये ग्रह प्राप्त करता है । तब उस यातना शरीर में स्थित होकर यम पाश से बंधा हुआ वह जीव अपनी गलतियों पर बार बार पछताते हुये रोता है । कि मैंने मनुष्य जन्म वृथा ही गंवा दिया । अब इस यम मार्ग में मेरा साथ देने वाला कौन है ? अर्थात मेरे कर्म ही यहां साथ देते हैं । जो विषय वासना में भूलकर में कर न सका । समस्त लोकों में प्रथ्वी स्वर्ग और पाताल । ये तीन लोक सारभूत हैं । सभी दीपों में जम्बूदीप । सभी देशों में । देवदेश अर्थात भारतवर्ष और समस्त योनोयों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है । संसार के सभी वर्णों में ब्राह्मण आदि चार वर्ण और उन वर्णों में भी धर्मनिष्ठ व्यक्ति ही श्रेष्ठ है । इस लोकयात्रा के मार्ग में चलता हुआ जीवात्मा सभी प्रकार का सुख और ग्यान प्राप्त कर सकता है । गर्भ में स्थित जीव को अपने पूर्वजन्मों का ग्यान रहता है । तब वहां वह इस प्रकार का चिंतन करता है । कि जीवन के समाप्त हो जाने के बाद जब मैं मृत्यु को प्राप्त हुआ और फ़िर तमाम नरक आदि यातनाओं को भोगकर और यम मार्ग के कष्ट भोगकर । अब मैं विष्ठा में रहने वाले कीडों या कीटाणुओं की विशेष योनि में आ गया हूं । मैं सरककर चलने वाला सर्प भी बना ।
मैं मच्छर भी बना । चार पैरों वाला घोडा और वैल भी बना । मैं सुअर जैसा मल खाने वाला जीव भी बना । इस प्रकार गर्भ में जीव को उसके द्वारा पूर्व में भोगे गये जन्म एक रील की तरह दिखाई देते रहते हैं । और वह बार बार यही निश्चय करता है कि अबकी बार के मनुष्य जन्म में मैं इन चौरासी के कष्टों से अवश्य अपनी आत्मा के उद्धार का ही पूर्ण प्रयास करूंगा । किन्तु जन्म लेने पर वायु के स्पर्श और माया के आवरण से वो उसे भूल जाता है । गर्भ में जीवात्मा जिस प्रकार का चिंतन करता है । तब बाद में जन्म लेकर बालक युवा और वृद्धावस्था में वह वैसा ही आचरण करता है । परन्तु यदि गर्भ की बात संसार की माया मोह में पडकर भूल जाता है । तो पुनः मृत्यु के समय वही सब य्से एकदम याद आ जाता है । जैसे जिन्दगी को एक किताब मान लो । तो जन्म के समय । और मृत्यु के समय एक ही पन्ने होते हैं । यानी बीच के पन्ने उस वक्त खत्म से हो जाते हैं । शरीर के नष्ट होने पर जो बात ह्रदय में रह जाती है । फ़िर से गर्भ में पहुंचने पर वह निश्चित याद आती है । तब उसे धर्म और दान आदि परमार्थिक कार्यों का महत्व पता चलता है । तब वह स्वयं से ही कहता है कि मैं अपने मल मूत्र से भरे इसी शरीर की पूर्ति करने में । उसे सजाने संवारने में लगारहा ।
अतः मेरा उद्धार भला कैसे हो सकता है ? जव ऐसी चिंता जीव करता है । तब यमदूत उससे कहते हैं । हे देहधारी । जैसा तुमने किया है । अब उसी के अनुसार तुम्हें भुगतना होगा । अरे तुम्हें तो देवत्व अथवा उससे भी बडकर मुक्ति या उससे भी बडकर मुक्त कराने वाली मानव योनि की देह प्राप्त थी । किन्तु लौकिक आसक्ति में फ़ंसकर यह पूरा जीवन माया मोह में ही तुमने समाप्त कर दिया और अपने परलोक सुधार हेतु कुछ भी नहीं किया । हे मूढ बुद्धि । इसलिये जैसा तुमने किया । अब वैसा ही भोगो । तुम्हारे पिता और पितामह भी पहले ही मर गये । जिसने तुमको अपने गर्भ में रखा । वह माता भी मर गयी ।
तुम्हारे बहुत से भाई बन्धु भी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं । तुम्हारा अपना पंचतत्वों से बना शरीर भी आग में जलकर भस्म हो गया । तुम्हारे द्वारा एकत्र किया गया धन सम्पत्ति भी प्रथ्वी पर तुम्हारे पुत्रादि के पास ही रह गया । अब यहां जो कुछ तुमने धर्म का संचय किया है । जो तुमने तन मन धन आदि से जो भी परोपकार किया है । वही तुम्हारे पास शेष है । उसी का तुम उपयोग कर सकते हो । वही तुम्हें प्राप्त होगा ।
इसमें कोई संशय नहीं है । हे देही । इस प्रथ्वी पर जन्म लेने वाला । चाहे राजा हो । सन्यासी हो । ब्राह्मण हो । अथवा भिखारी हो । वह मरने के बाद फ़िर से आया हुआ दिखाई नही देता । जो भी इस प्रथ्वी पर पैदा हुआ है । उसकी मृत्यु निश्चित है । इस प्रकार यम के दूत जब उस जीव से कहते हैं । तब वह दुखी जीव आश्चर्य से इस प्रकार मनुष्य की वाणी में कहता है । दान के प्रभाव से ही व्यक्ति ( मृत्यु के बाद ) विमान पर सवार होता है । उस समय धर्म उसका पिता है । दया उसकी माता है । मधुर वचन और प्रेममयी वाणी ही उसकी पत्नी है । तीर्थ आदि का सेवन ही उसके बन्धु हैं । इस तरह मनुष्य के सतकर्म और भगवान के चरणों में अर्पित कर किये गये सभी कार्य ही जीव के लिये स्वर्ग को भी बहुत छोटा ही बना देते हैं । इसलिये जो प्राणी धर्मपूर्वक जीवन यापन करता है । वह सभी सुख सुविधाओं को प्राप्त करता है । और जो पापी है । वह तो अनेकों कष्ट और दारुण नरक को ही भोगता है । तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ?

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

I think this is one of the most important information for me. And i am glad reading your article. But should remark on few general things, The website style is perfect, the articles is really nice

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...