रविवार, नवंबर 20, 2011

नाचो गाओ संगीत बजाओ और सेक्स को मानसिक मत होने दो

शिक्षा की स्थिति देख कर हृदय में बहुत पीड़ा होती है । शिक्षा के नाम पर जिन परतंत्रताओं का पोषण किया जाता है । उनसे एक स्वतंत्र और स्वस्थ मनुष्य का जन्म संभव नहीं है । मनुष्य जाति जिस कुरूपता और अपंगता में फंसी है । उसके मूलभूत कारण शिक्षा में ही छिपे हैं । शिक्षा ने प्रकृति से तो मनुष्य को तोड़ दिया है । लेकिन संस्कृति उससे पैदा नहीं हो सकी है । उलटे पैदा हुई है - विकृति । इस विकृति को ही प्रत्येक पीढ़ी नई पीढ़ियों पर थोपे चली जाती है । और फिर जब विकृति ही संस्कृति समझी जाती हो । तो स्वभावतः थोपने का कार्य पुण्य की आभा भी ले लेता हो । तो आश्चर्य नहीं है । और जब पाप पुण्य के वेश में प्रकट होता है । तो अत्यंत घातक हो ही जाता है । इसलिए ही तो शोषण । सेवा की आड़ में खड़ा होता है । और हिंसा अहिंसा के वस्त्र ओढ़ती है । और विकृतियां संस्कृति के मुखौटे पहन लेती हैं । अधर्म का धर्म के मंदिरों में आवास अकारण नहीं है । अधर्म सीधा और नग्न तो कभी उपस्थित ही नहीं होता है । इसलिए यह सदा ही उचित है कि मात्र वस्त्रों में विश्वास न किया जाए । वस्त्रों को उघाड़ कर देख लेना अत्यंत ही आवश्यक है । मैं भी शिक्षा के वस्त्रों को उघाड़ कर ही देखना चाहूंगा । इसमें आप बुरा तो न मानेंगे ? विवशता है । इसलिए ऐसा करना आवश्यक है । शिक्षा की वास्तविक आत्मा को देखने के लिए उसके तथाकथित वस्त्रों को हटाना ही होगा । क्योंकि अत्यधिक सुंदर वस्त्रों में । जरूर ही कोई अस्वस्थ और कुरूप आत्मा वास कर रही है । अन्यथा मनुष्य का जीवन इतनी घृणा । हिंसा । और अधर्म का जीवन नहीं हो सकता था । जीवन के वृक्ष पर कड़वे और विषाक्त फल देख कर क्या गलत बीजों के बोए जाने का स्मरण नहीं आता है ? बीज गलत नहीं । तो वृक्ष पर गलत फल कैसे आ सकते हैं ? वृक्ष का विषाक्त फलों से भरा होना बीज में प्रच्छन्न विष के अतिरिक्त और किस बात की खबर है ? मनुष्य गलत है । तो निश्चय ही शिक्षा सम्यक नहीं है । यह हो सकता है कि आप इस भांति न सोचते रहे हों । और मेरी बात का आपकी विचारणा से कोई मेल न हो । लेकिन मैं माने जाने का नहीं । मात्र सुने जाने का निवेदन करता हूं । उतना ही पर्याप्त भी है । सत्य को शांति से सुन लेना ही काफी है । असत्य ही माने जाने का आगृह करता है । सत्य तो मात्र सुन लिए जाने पर ही परिणाम ले आता है । सत्य का सम्यक श्रवण ही स्वीकृति है । लेकिन यह जड़ता किसने पैदा की है ? निश्चित ही शिक्षा ने । और शिक्षक ने । शिक्षक के माध्यम से मनुष्य के चित्त को परतंत्रताओं की अत्यंत सूक्ष्म जंजीरों में बांधा जाता रहा है । यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है । शोषण के अनेक कारण हैं - धर्म हैं । धार्मिक गुरु हैं । राजतंत्र हैं । समाज के न्यस्त स्वार्थ हैं । धनपति हैं । सत्ताधिकारी हैं । सत्ताधिकारी ने कभी भी नहीं चाहा है कि मनुष्य में विचार हो । क्योंकि जहां विचार है । वहां विद्रोह का बीज है । विचार मूलतः विद्रोह है । क्योंकि विचार अंधा नहीं है । विचार के पास अपनी आंखें हैं । उसे हर कहीं नहीं ले जाया जा सकता । उसे हर कुछ करने और मानने को राजी नहीं किया जा सकता है । उसे अंधानुयायी नहीं बनाया जा सकता है । इसलिए सत्ताधिकारी विचार के पक्ष में नहीं हैं । वे विश्वास के पक्ष में हैं । क्योंकि विश्वास अंधा है । और मनुष्य अंधा हो । तो ही उसका शोषण हो सकता है । और मनुष्य अंधा हो । तो ही उसे स्वयं उसके ही अमंगल में संलग्न किया जा सकता है ।
सभी आत्मीयता से डरते हैं । यह बात और है कि इसके बारे में तुम सचेत हो या नहीं । आत्मीयता का मतलब होता है कि किसी अजनबी के सामने स्वयं को पूरी तरह से उघाड़ना । हम सभी अजनबी हैं । कोई भी किसी को नहीं जानता । हम स्वयं के प्रति भी अजनबी हैं । क्योंकि हम नहीं जानते कि - हम हैं कौन ? आत्मीयता तुम्हें अजनबी के करीब लाती है । तुम्हें अपने सारे सुरक्षा कवच गिराने हैं । सिर्फ तभी  आत्मीयता संभव है । और भय यह है कि यदि तुम अपने सारे सुरक्षा कवच । तुम्हारे सारे मुखौटे गिरा देते हो । तो कौन जाने कोई अजनबी तुम्हारे साथ क्या करने वाला है । एक तरफ आत्मीयता अनिवार्य जरूरत है । इसलिए सभी यह चाहते हैं । लेकिन हर कोई चाहता है कि दूसरा व्यक्ति आत्मीय हो कि दूसरा व्यक्ति अपने बचाव गिरा दे । संवेदनशील हो जाए । अपने सारे घाव खोल दे । सारे मुखौटे । और झूठा व्यक्तित्व गिरा दे । जैसा वह है । वैसा नग्न खड़ा हो जाए । यदि तुम सामान्य जीवन जीते । प्राकृतिक जीवन जीते । तो आत्मीयता से कोई भय नहीं होता । बल्कि बहुत आनंद होता । दो ज्योतियां इतनी पास आती हैं कि लगभग एक बन जाए । और यह मिलन बहुत बड़ी तृप्तिदायी । संतुष्टिदायी । संपूर्ण होती है । लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता पाओ । तुम्हें अपना घर पूरी तरह से साफ करना होगा । सिर्फ ध्यानी व्यक्ति ही आत्मीयता को घटने दे सकता है । आत्मीयता का सामान्य सा अर्थ यही होता है कि तुम्हारे लिए हृदय के सारे द्वार खुल गए । तुम्हारा भीतर स्वागत है । और तुम मेहमान बन सकते हो । लेकिन यह तभी संभव है । जब तुम्हारे पास हृदय हो । और जो दमित कामुकता के कारण सिकुड़ नहीं गया हो । जो हर तरह के विकारों से उबल नहीं रहा हो । जो कि प्राकृतिक है । जैसे कि वृक्ष । जो इतना निर्दोष है । जितना कि एक बच्चा । तब आत्मीयता का कोई भय नहीं होगा । विश्रांत होओ । और समाज ने तुम्हारे भीतर जो विभाजन पैदा कर दिया है । उसे समाप्त कर दो । वही कहो । जो तुम कहना चाहते हो । बिना फल की चिंता किए । अपनी सहजता के द्वारा कर्म करो । यह छोटा सा जीवन है । और इसे यहां और वहां के फलों की चिंता करके नष्ट नहीं किया जाना चाहिए । आत्मीयता के द्वारा । प्रेम के द्वारा । दूसरें लोगों के प्रति खुलकर । तुम समृद्ध होते हो । और यदि तुम बहुत सारे लोगों के साथ गहन प्रेम में । गहन मित्रता में । गहन आत्मीयता में । जी सको । तो तुमने जीवन सही ढंग से जीया । और जहां कहीं तुम हो । तुमने कला सीख ली । तुम वहां भी प्रसन्नतापूर्वक जीओगे । लेकिन इसके पहले कि तुम आत्मीयता के प्रति भय रहित होओ । तुम्हें सारे कचरे से मुक्त होना होगा । जो धर्म तुम्हारे ऊपर डालते रहे हैं । सारा कबाड़ जो सदियों से तुम्हें दिया जाता रहा है । इस सबसे मुक्त होओ । और शांति । मौन । आनंद । गीत । और नृत्य का । जीवन जीओ । और तुम रूपांतरित होओगे । जहां कहीं तुम हो । वह स्थान स्वर्ग हो जाएगा । अपने प्रेम को उत्सव पूर्ण बनाओ । इसे भागते दौडते किया हुआ । कृत्य मत बनाओ । नाचो । गाओ । संगीत बजाओ । और सेक्स को मानसिक मत होने दो । मानसिक सेक्स प्रामाणिक नहीं होता है । सेक्स सहज होना चाहिए । माहौल बनाओ । तुम्हारा सोने का कमरा ऐसा होना चाहिए । जैसे कि मंदिर हो । अपने सोने के कमरे में । और कुछ मत करो । गाओ । और नाचो । और खेलो । और यदि स्वतः प्रेम होता है । सहज घटना की तरह । तो तुम अत्यधिक आश्चर्यचकित होओगे कि जीवन ने तुम्हें ध्यान की झलक दे दी । पुरुष और स्त्री के बीच रिश्ते में बहुत बड़ी क्रांति आने वाली है । पूरी दुनिया में विकसित देशों में ऐसे संस्थान हैं । जो सिखाते हैं कि प्रेम कैसे करना । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जानवर भी जानते हैं कि प्रेम कैसे करना । और आदमी को सीखना पड़ता है । और उनके सिखाने में बुनियादी बात है । संभोग के पहले की क्रीडा । और उसके बाद की क्रीडा । फोर प्ले और ऑफ्टर प्ले । तब प्रेम पावन अनुभव हो जाता है । इसमें क्या बुरा है । यदि आदमी उत्तेजित हो जाए । और कमरे से बाहर नंगा निकाल आए ? दरवाजे को बंद रखो । सारे पड़ोसियों को जान लेने दो कि यह आदमी पागल है । लेकिन तुम्हें अपने चरमोत्कर्ष के अनुभव की संभावना को नियंत्रित नहीं करना है । चरमोत्कर्ष का अनुभव मिलने और मिटने का अनुभव है । अहंकार विहीनता । मन विहीनता । समय विहीनता का अनुभव है । इसी कारण लोग कंपते हुए जीते हैं । भला वो छिपाएं । वे इसे ढंक लें । वे किसी को नहीं बताएं । लेकिन वे भय में जीते हैं । यही कारण है कि लोग किसी के साथ आत्मीय होने से डरते हैं । भय यह है कि हो सकता है कि यदि तुमने किसी को बहुत करीब आने दिया । तो दूसरा तुम्हारे भीतर के काले धब्बे देख ना ले । इंटीमेसी ( आत्मीयता ) शब्द लातीन मूल के इंटीमम से आया है । इंटीमम का अर्थ होता है । तुम्हारी अंतरंगता । तुम्हारा अंतरतम केंद्र । जब तक कि वहां कुछ न हो । तुम किसी के साथ आत्मीय नहीं हो सकते । तुम किसी को आत्मीय नहीं होने देते । क्योंकि वह सब कुछ देख लेगा । घाव और बाहर बहता हुआ पस । वह यह जान लेगा कि तुम यह नहीं जानते कि तुम हो कौन । कि तुम पागल आदमी हो । कि तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो कि तुमने अपना स्वयं का गीत ही नहीं सुना कि तुम्हारा जीवन अव्यवस्थित है । यह आनंद नहीं है । इसी कारण आत्मीयता का भय है । प्रेमी भी शायद ही कभी आत्मीय होते हैं । और सिर्फ सेक्स के तल पर किसी से मिलना आत्मीयता नहीं है । ऐंद्रिय चरमोत्कर्ष आत्मीयता नहीं है । यह तो इसकी सिर्फ परिधि है आत्मीयता इसके साथ भी हो सकती है । और इसके बगैर भी हो सकती है ।

1 टिप्पणी:

SANDEEP PANWAR ने कहा…

बेहतरीन लिखा हुआ लेख,

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