रविवार, नवंबर 20, 2011

तुम ऐसे घर में रह रहे थे जो था ही नहीं

सदगुरु 1 मित्र की भांति कार्य करता है । वह तुम्हारा हाथ पकडकर । तुम्हें ठीक मार्ग पर ले जाता है । तुम्हारी आंखें खोलने में । तुम्हारी सहायता करता है । और वह तुम्हें । मन के पार । जाने में सहायता देता है । तभी तुम्हारी । तीसरी आंख खुलती है । तब तुम । अपने अंदर । देखना शुरू करते हो । 1 बार तुम । अपने अंदर । देखने लगते हो । फिर । सदगुरु का कार्य । समाप्त हो जाता है । अब यह । तुम पर ही । निर्भर करता है । तुम अपने मन । और अमन के । छोटे से अंतराल को । 1 क्षण में । अत्यंत तीवृता से । और शीघ्रता से । लांघ सकते हो । या फिर तुम । बहुत धीमे धीमे । झिझकते । और रुकते हुए । यात्रा कर सकते हो । इस बात से डरते हुए कि तुम । अपने मन पर । और अपनी निजता पर । अपनी पकड खोते जा रहे हो । और कि सभी सीमाएं खोती जा रही हैं । तुम क्या कर रहे हो ? तुम क्षण भर के लिए । यह सोच सकते हो कि इससे सब कुछ समाप्त हो सकता है । या तुम । फिर मन में । वापस लौटने में । समर्थ न हो सकोगे । और कौन जानता है कि आगे क्या होने जा रहा है ? सब कुछ । विलुप्त होते जा रहा है । यदि तुम । विलुप्त होने वाली । वस्तुओं पर । बहुत अधिक । ध्यान दे रहे हो ।  तो तुम । भय के कारण । रुक सकते हो । सदगुरु । तुम्हारी चेतना को । उन चीजों पर । केंद्रित करने को कहता है । जो तुम्हें घट रही है । न कि उन चीजों पर । जो खोती जा रही है । वह तुम्हें । बरसते अनुग्रह । और आनंद की ओर । तुम पर उतरते । मौन की ओर । मस्ती की ओर । देखने का आग्रह करता है । वह कहता है । उस उतरती । शांति की ओर देखो ।  उस प्रसन्नता । और परमानंद को निहारो । वह निरंतर । इसी बात पर बल देता है कि जो घट रहा है । उसे देखो । और उन चीजों की ओर । जो मिटती । और खोती । जा रही हैं  जैसे विषाद । निराशा । और दुख ।  उनकी ओर । ध्यान ही मत दो । जो खोता जा रहा है । वह रखने योग्य । है भी नहीं । बस उसी की ओर । देखे चले जाओ । जो शून्यता 0 से । प्रकट हो रहा है । तो तुम साहस बटोरते हो । अधिक साहसी बनते हो । तुम जानते हो कि कुछ भी । गलत होने वाला नहीं है । गति के । हर इंच के साथ ही । कुछ महान घटना घट रही है । और अंत में । जैसे ही तुम । अपने अंतरतम के । प्रामाणिक स्त्रोत में । प्रवेश करते हो । जो तुम्हारे केंद्र में । प्रवेश करते हो । पूरा अस्तित्व । तुम पर गिर पडता है । जैसा मरने से पहले कबीर ने कहा था । समुंद समाना बुंद में । 1 बार । तुमने । इस परमानंद  मस्ती । और इस दिव्यखुमारी का । अनुभव ले लिया । फिर । निजता की परवाह । कौन करता है ? आत्मा की । कौन परवाह करता है ? इस आत्मभाव ने तुम्हें । सिवाय विषाद । और सिवाय नर्क के । दिया ही क्या है ? और यह शून्यता इतनी निर्मल है । बिना सीमाओं के । पहली बार । तुम अनंतता । शाश्वतता । का अनुभव करते हो । और अस्तित्व के । रहस्यों के । सभी द्वार । अचानक । तुम्हारे लिए खुल जाते है । और फिर । द्वार पर द्वार । खुलते ही जाते है । इस यात्रा का । कही कोई अंत नहीं है । यह अंतहीन तीर्थयात्रा है । तुम हमेशा पहुंच रहे हो । बस पहुंच ही रहे हो ।  लेकिन तुम । पहुंचते कभी नहीं । लेकिन प्रत्येक क्षण । तुम अनुग्रह में । परमानंद में । और सत्य में । गहरे । और गहरे । डूबते चले जाते हो । और कही कोई । पूर्ण विराम नहीं है । झेन की यह घोषणा । अत्यंत आवश्यक है । क्योंकि सभी पुराने धर्म । बिखरते जा रहे हैं । और इससे पहले कि वे पूरी तरह से । नष्ट हो जाएं । और पूरी मनुष्यता विक्षिप्त हो जाए । झेन को । पूरी पृथ्वी पर । चारों ओर । फैल जाना चाहिए । इससे पहले कि । पुराना घर ध्वस्त हो । तुम्हें नया घर बना लेना है । और इस बार फिर । वही गलती मत करना । तुम ऐसे घर में रह रहे थे । जो था ही नहीं । इसीलिए तुम । वर्षा । सर्दी । और गर्मी के । सभी दुख । और संताप । झेल रहे थे । क्योंकि घर तो केवल । 1 कल्पना मात्र था । इस बार वास्तव में । अपने मूल घर में । प्रवेश करो । न कि किसी । मनुष्य निर्मित मंदिर में । या मनुष्य निर्मित । किसी धर्म में । तुम अपने ही । अस्तित्व में । प्रवेश करो । निरंतर । कार्बन कापी बनने से । क्या लाभ ? यह समय । अत्यधिक मूल्यवान है । तुम्हारा जन्म । 1 बहुत ही सौभाग्यशाली क्षण में । हुआ है  जबकि पुराने धर्मों ने । अपनी सार्थकता । और अपने होने का । प्रमाण खो दिया है  जबकि पुराना । 1 खोखले ढांचे की भांति । तुम्हारे चारों ओर । लटका हुआ झूल रहा है । क्योंकि तुम । उसकी कैद से । मुक्त होने का साहस । नहीं जुटा पा रहे हो । नहीं तो । द्वार खुले ही हुए हैं । सच तो यह है कि कभी । द्वार थे ही नहीं । क्योंकि जिस घर में । तुम रह रहे हो । वह पूरी तरह काल्पनिक है । तुम्हारे परमात्मा । और सारे देवता । काल्पनिक हैं । तुम्हारे पवित्र शास्त्र । कल्पित हैं । इस बार । उसी गलती को । दोहराना नहीं है । यही वह समय है । जब मनुष्यता को । पुराने । सडे गले झूठों से ।  1 नूतन । शाश्वत सत्य की ओर । एक समग्र । छलांग लगानी है । ओशो । दि झेन मैनिफेस्टो पुस्तक से ।

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